फ्रांचेस्का ऑर्सीनी की किताब ‘हिंदी का लोकवृत्त’ को पढ़ते हुए मैंने 2012 में लिखे अपने एक पुराने लेख को फिर से देखा। उसके एक अंश को मैं थोड़ा बदल कर फिर से अपने ब्लॉग में प्रकाशित कर रहा हूँ।
हमारा सामुदायिक जीवन क्या है? सोशल नेटवर्किंग में हम काफी आगे चले गए हैं। पर सारी नेटवर्किंग
अपने व्यावसायिक हितों और स्वार्थों के लिए है। शाम को दारू-पार्टी पर बैठने और
गॉसिप करने को हम सोशल होना मानते हैं। जो इसमें शामिल नहीं है, वह अन-सोशल है। दरअसल सोशल होने का मतलब व्यावहारिक रूप में ऊपर चढ़ने की
सीढ़ियाँ तलाशना है। सामाजिक जीवन की गुत्थियों को सुलझाना या सामूहिक एक्शन के
बारे में सोचना सोशल नेटवर्किंग का अंग नहीं है। लोग चाहें तो अपने आसपास
की खराबियों को आपसी सहयोग से दूर कर सकते हैं। कई जगह करते हैं और ज्यादातर
जगहों पर नहीं करते।
ज्यादातर लोग ऐसा क्यों नहीं करते? मुझे लगता है कि हम वैचारिक कर्म से भागते हैं और खुद को असुरक्षित मानते हुए आत्मकेंद्रित होते चले गए हैं। सोशल मीडिया पर
देखें, तो पाएंगे कि ज्यादातर लोग छोटी, चटपटी और मसालेदार बातों को पसंद करते
हैं। संज़ीदा बातों को भारी काम मानते हैं। मामूली सी बात को भी समझना नहीं चाहते। उनपर रास-रंग हावी है। उसमें भी खराबी नहीं, पर आप विमर्श से भागते क्यों हैं?
आपने गौर किया होगा नई कॉलोनियों की योजनाओं
में जीवन की सारी चीजें मुहैया कराने का वादा होता है। मॉल होते हैं, मेट्रो होती है, ब्यूटी सैलून, जिम
और स्पा होते हैं। मल्टीप्लेक्स, वॉटर स्पोर्ट्स होते हैं। जमीन पर अवैध कब्जा करके धर्म स्थल भी खड़े कर दिए जाते हैं, पर
इस योजना में लाइब्रेरी नहीं होती। कम्युनिटी सेंटर होते हैं तो वे शादी-बारात के
लिए होते हैं, बैठकर विचार करने के लिए नहीं। ऐसे
सामुदायिक केंद्र की कल्पना नहीं होती, जो विमर्श का केंद्र बने। छोटा सा ऑडिटोरियम। पढ़ने,
विचार करने, सोचने और उसे अपने एक्शन में उतारने को
कोई बढ़ावा नहीं।
भौतिक रूप से चौपाल, चौराहों और कॉफी हाउसों की संस्कृति खत्म हो रही है। इस विमर्श की जगह वर्चुअल-विमर्श ने ले ली है। यह वर्चुअल-विमर्श ट्विटर और फेसबुक में पहुँच गया है। यहाँ वह सरलीकरण और जल्दबाज़ी का शिकार है। अक्सर अधकचरे तथ्यों पर अधकचरे निष्कर्ष निकल कर सामने आ रहे हैं। एकाध गंभीर ब्लॉग को छोड़ दें तो नेट का काफी बड़ी संख्या में विमर्श अराजक है। यह ज्यादा बड़े धरातल पर पूरे समाज की है।