Tuesday, August 15, 2023

लोकतंत्र, कानून का शासन और राष्ट्रीय-एकता


 आजादी के सपने-05

 जिस समय हम 77वें स्वतंत्रता दिवस की ओर कदम बढ़ा रहे हैं, जम्मू-कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद 370 और 35ए को निष्प्रभावी बनाए जाने के फैसले की वैधानिकता पर देश के सुप्रीमकोर्ट की संविधान-बेंच सुनवाई कर रही है. केंद्र सरकार के इस फैसले और उसके निहितार्थ को लेकर 23 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट के सामने हैं. फैसला जो भी हो, साबित क्या होगा?

साबित होगी भारतीय लोकतंत्र और उससे जुड़ी संस्थाओं और जनमत की ताकत. हमारे लोकतंत्र के सामने नागरिकों के हितों के अलावा न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना, बहुजातीय-बहुधर्मी-बहुभाषी व्यवस्था को संरक्षण देने के साथ राष्ट्रीय-एकता और अखंडता की रक्षा करने की चुनौती भी है. इस चुनौती को पूरा करने के लिए संविधान हमारा मार्गदर्शक है.

भारतीय संविधान

हमारे पास दुनिया का सबसे विषद संविधान है. दुनिया में सांविधानिक परम्पराएं तकरीबन साढ़े तीन सौ साल पुरानी हैं. लिखित संविधान तो और भी बाद के हैं. 1787 में अमेरिकी संविधान से इसकी शुरूआत हुई. ऑस्ट्रियो हंगेरियन संघ ने 1867 में ऑस्ट्रिया में संविधान लागू किया. ब्रिटिश संविधान तो लिखा ही नहीं गया, परंपराओं से बनता चला गया.

लोकतंत्र का दबाव था कि उन्नीसवीं सदी में अनेक सम्राटों एवं राजाओं ने अपने देशों में संविधान रचना की. भारतीय संविधान की रचना के समय उसके निर्माताओं के सामने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा, लोकतंत्र, संघीय और राज्यों के कार्यक्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या, सामाजिक न्याय और इस देश की बहुल संस्कृति की रक्षा जैसे सवाल थे.

लोकतांत्रिक-समाज

पिछले 76 साल के सांविधानिक अनुभव को देखें तो सफलता और विफलता के अनेक मंजर देखने को मिलेंगे. कभी लगता है हम लोकतंत्र से भाग रहे हैं. या फिर हम अभी लोकतंत्र के लायक नहीं हैं. या लोकतंत्र हमारे लायक नहीं है. या लोकतंत्र को हम जितना पाक-साफ समझते हैं, वह उतना नहीं हो सकता. उसकी व्यावहारिक दिक्कतें हैं. वह जिस समाज में है, वह खुद पाक-साफ नहीं है.

वस्तुतः समाज ही अपने लोकतंत्र को बढ़ावा देता है और लोकतंत्र से समाज का विकास होता है. संविधान का मतलब है कानून का शासन. पिछले 76 वर्षों में इन दोनों बातों की परीक्षा हुई है. हम गर्व से कहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है. हर पाँच साल में होने वाला आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है. चुनावों की निरंतरता और सत्ता के निर्बाध-हस्तांतरण ने हमारी सफलता की कहानी भी लिखी है.

Monday, August 14, 2023

बड़ी चुनौती, स्वस्थ और शिक्षित नागरिक



आज़ादी के सपने-04

भारत और चीन की यात्राएं समांतर चलीं, पर बुनियादी मानव-विकास में चीन हमें पीछे छोड़ता चला गया. बावजूद इसके कि पहले दो दशक की आर्थिक-संवृद्धि में हमारी गति बेहतर थी. जवाहर लाल नेहरू ने भारत में मध्यवर्ग को तैयार किया, दूसरी तरफ चीन ने बुनियादी विकास पर ध्यान दिया. समय के साथ सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य में चीन ने हमें पीछे छोड़ दिया. हमें इन दोनों के बारे में सोचना चाहिए.

कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारी कम से कम तीन क्षेत्रों में नागरिकों को सबल बनाने की है. वे सबल होंगे, तो उनकी भागीदारी से देश और समाज ताकतवर होता जाएगा. ये तीन क्षेत्र हैं शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय.

सन 2011 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा, समय से प्राथमिक शिक्षा पर निवेश न कर पाने की कीमत भारत आज अदा कर रहा है. नेहरू ने तकनीकी शिक्षा के महत्व को पहचाना जिसके कारण आईआईटी जैसे शिक्षा संस्थान खड़े हुए, पर प्राइमरी शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण ‘निराशाजनक’ रहा.

शायद यही वजह है कि उच्च और तकनीकी शिक्षा में हमारा प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर है. सत्तर के दशक में दो ग़रीब देश, आबादी और अर्थव्यवस्था के हिसाब से लगभग सामान थे. इनमें से एक खेलों में ही नहीं जीवन के हरेक क्षेत्र में आगे निकल गया और दूसरा काफ़ी पीछे रह गया.

इस सच को ध्यान में रखना होगा कि चीन 'रेजीमेंटेड' देश है, वहाँ आदेश मानना पड़ता है. भारत खुला देश है, यहाँ ऐसा मुश्किल है. हमारे यहाँ जो भी होगा, उसे एक लोकतांत्रिक-प्रक्रिया से गुजरना होगा. देश के अलग-अलग क्षेत्रों और समुदायों से विमर्श के बाद ही फैसलों को लागू किया जा सकता है.

स्वास्थ्य-चेतना

महामारी के कारण पिछले तीन साल वैश्विक स्वास्थ्य-चेतना के वर्ष थे. इस दौरान वैश्विक स्वास्थ्य-नीतियों का पर्दाफाश हुआ. भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार हमारे यहाँ बाल पोषण के संकेतक उत्साहवर्धक नहीं हैं. बच्चों की शारीरिक विकास अवरुद्धता में बड़ा सुधार नहीं है और 13 राज्यों मे आधे से ज्यादा बच्चे और महिलाएं रक्ताल्पता से पीड़ित हैं.

2020 मे सुप्रीम कोर्ट के एक पीठ ने स्वास्थ्य को नागरिक का मौलिक अधिकार मानते हुए कुछ महत्वपूर्ण निर्देश सरकार को दिए थे. अदालत ने कहा, राज्य का कर्तव्य है कि वह सस्ती चिकित्सा की व्यवस्था करे. अदालत की टिप्पणी में दो बातें महत्वपूर्ण थीं. स्वास्थ्य नागरिक का मौलिक अधिकार है. दूसरे, इस अधिकार में सस्ती या ऐसी चिकित्सा शामिल है, जिसे व्यक्ति वहन कर सके.

महंगा इलाज

अदालत ने यह भी कहा कि इलाज महंगा और महंगा होता गया है और यह आम लोगों के लिए वहन करने योग्य नहीं रहा है. भले ही कोई कोविड-19 से बच गया हो, लेकिन वह आर्थिक रूप से जर्जर हो चुका है. इसलिए सरकारी अस्पतालों मे पूरे इंतजाम हों या निजी अस्पतालों की अधिकतम फीस तय हो. यह काम आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत शक्तियों को प्रयोग करके किया जा सकता है.

देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर 1983, 2002 और 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियाँ बनाई गई हैं. 2017 की नीति से जुड़ा कार्यक्रम है आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन-आरोग्य योजना. इसके अलावा ग्रामीण भारत से जुड़ी कई सामाजिक परियोजनाओं को शुरू किया गया है, जो खासतौर से वृद्धों, महिलाओं और निराश्रितों पर केंद्रित हैं.

गरीबों की अनदेखी

सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक रणनीति का जिक्र अस्सी के दशक में तेजी से शुरू हुआ. 1978 में यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अल्मा-अता घोषणा की थी-सन 2000 में सबके लिए स्वास्थ्य! संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1974 में अपने विशेष अधिवेशन में नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की घोषणा और कार्यक्रम का मसौदा पास किया.

अल्मा-अता घोषणा में स्वास्थ्य को मानवाधिकार मानते हुए इस बात का वायदा किया गया था कि दुनिया की नई सामाजिक-आर्थिक संरचना में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी सरकारें लेंगी. इतनी बड़ी घोषणा के बाद अगले दो वर्षों में इस विमर्श पर कॉरपोरेट रणनीतिकारों ने विजय प्राप्त कर ली.

वोटर का भरोसा तोड़ रही है संसदीय बहस


संसद के मॉनसून-सत्र में अपने प्रदर्शन को लेकर सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष संभव है संतुष्ट हों, पर संसदीय-कर्म की दृष्टि से मॉनसून सत्र बहुत सकारात्मक संदेश छोड़कर नहीं गया। सत्र शुरू होने के पहले लगता था कि मणिपुर का मुद्दा बहुत बड़ा है, बेरोजगारी, गरीबी और महंगाई वगैरह पर भी सरकार को घेरने में विपक्ष सफल होगा। पर लगता नहीं कि इसमें सफलता मिल पाई। बल्कि लगता है कि मणिपुर को लेकर पैदा हुई तपन अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है। राज्यसभा में 11 अगस्त को इस विषय पर चर्चा की बात कही गई थी, पर वह भी नहीं हुई। राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने अपने समापन भाषण में कहा कि सदन में मणिपुर पर चर्चा की जा सकती थी।

विपक्ष ने मणिपुर पर चर्चा कराने के बजाय प्रधानमंत्री के वक्तव्य पर जो अतिशय जोर दिया, उससे हासिल क्या हुआ? अविश्वास-प्रस्ताव का जवाब देते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा, विपक्ष का पसंदीदा नारा है, मोदी तेरी कब्र खुदेगी। ये मुझे कोसते हैं, जो मेरे लिए वरदान है। 20 साल में क्या कुछ नहीं किया, पर मेरा भला ही होता गया। मैं इसे भगवान का आशीर्वाद मानता हूं कि ईश्वर ने विपक्ष को सुझाया और वे प्रस्ताव लेकर आए।

मोदी की बात का जो भी मतलब हो, पर यदि विपक्ष को अपने अविश्वास-प्रस्ताव के प्रदर्शन से संतोष है, तो अलग बात है। अन्यथा लगता है कि अतिशय मोदी-विरोध की रणनीति से मोदी को ही लाभ होगा। अविश्वास-प्रस्ताव पर बहस के दौरान राजनीति के तमाम गड़े मुर्दे उखाड़े गए और बहस का स्तर लगातार गिरता चला गया। । दोनों सदनों में शोर मणिपुर को लेकर शोर, पर बातें किन्हीं दूसरे विषयों की हुईं। आप खुद सोचिए इनका राजनीतिक लाभ किसे मिला?

Sunday, August 13, 2023

संसदीय बहस ने मंदी कर दी मणिपुर की तपिश


संसद के मॉनसून-सत्र का समापन लगभग उसी अंदाज़ में हुआ, जिसकी आशा थी। सत्र के पहले सबसे बड़ा मुद्दा मणिपुर का समझा जा रहा था, पर दोनों सदनों में इस विषय पर चर्चा नहीं हो पाई। विपक्ष प्रधानमंत्री के वक्तव्य पर अड़ गया, जो अविश्वास-प्रस्ताव में ही संभव था। पर अविश्वास-प्रस्ताव ने मणिपुर की तुर्शी को ठंडा कर दिया। बहस के दौरान राजनीति के तमाम गड़े मुर्दे उखाड़े गए, पर मणिपुर की परिस्थिति पर रोशनी नहीं पड़ी। इसे लेकर दोनों सदनों में शोर हुआ, चर्चा नहीं हुई। अविश्वास प्रस्ताव के करीब दो घंटे लंबे जवाब में जब प्रधानमंत्री मणिपुर-प्रसंग पर आए, तब तक विरोधी दल सदन से बहिर्गमन कर चुके थे। प्रस्ताव पर मतदान की जरूरत भी नहीं पड़ी। विरोधी दलों की गैर-मौजूदगी में वह ध्वनिमत से नामंजूर हो गया। यह सत्र, संसदीय बहस के क्रमशः बढ़ते पराभव का अच्छा उदाहरण है।

कुछ बेहद महत्वपूर्ण विधेयक इस सत्र में बगैर किसी बहस के पास हो गए। इससे पता लगता है कि राजनीति गंभीर मसलों में कितनी दिलचस्पी है। सत्र की समापन बैठकों का भी विरोधी गठबंधन ने बहिष्कार किया। यह बहिष्कार अधीर रंजन चौधरी के निलंबन और मणिपुर पर चर्चा नहीं हो पाने के विरोध में किया गया। सत्र के दौरान राज्यसभा में आम आदमी पार्टी के राघव चड्ढा, संजय सिंह और रिंकू सिंह और लोकसभा में कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी का निलंबन हुआ। आम आदमी पार्टी के संजय सिंह का निलंबन केवल सत्र के समापन तक का था, पर उसे बढ़ा दिया गया है। और कुछ हुआ हो या ना हुआ हो, इस सत्र ने 2024 के लिए प्रचार के कुछ मुद्दे, मसले, नारे और जुमले दे दिए हैं। यह भी स्पष्ट हुआ की विरोधी एकता में बीजद, वाईएसआर कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल के शामिल होने की संभावनाएं नहीं हैं।

22 विधेयक पास

सत्र की अंतिम बैठक में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने कहा कि इस दौरान सदन की 17 बैठकें हुईं, जो कुल 44 घंटे और 13 मिनट तक चलीं। सदन की सकल उत्पादकता 45 फीसदी रही। इस दौरान सरकार ने 20 विधेयक पेश किए और 22 विधेयकों को पास किया गया। इनमें से 10 विधेयक एक घंटे से भी कम की चर्चा के बाद पास हो गए। राज्यसभा में सभापति जगदीप धनखड़ ने अपने समापन भाषण में कहा कि मेरी अपीलों का असर काफी सदस्यों पर नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि इस कारण सदन के 50 घंटे 21 मिनट बेकार हो गए। सदन की उत्पादकता 55 प्रतिशत रही। सदन में नियमों के उल्लंघन और अपमानजनक आचरण का हवाला देकर आम आदमी पार्टी के राघव चड्ढा को विशेषाधिकार समिति की रिपोर्ट आने तक निलंबित कर दिया गया। सदन ने इसी पार्टी के संजय सिंह का निलंबन भी विशेषाधिकार समिति की सिफारिशें आने तक बढ़ा दिया है।

Saturday, August 12, 2023

नागरिक हैं ‘भारत के भाग्य विधाता’


आज़ादी के सपने-03

अगस्त का यह महीना चालीस के दशक की तीन तारीखों के लिए खासतौर से याद किया जाता है. सन 1942 की 9 अगस्त से शुरू हुआ ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन 15 अगस्त 1947 को अपनी तार्किक परिणति पर पहुँचा था. भारत आज़ाद हुआ.

1942 से 1947 के बीच 1945 के अगस्त की दो तारीखें मानवता के इतिहास की क्रूरतम घटनाओं के लिए याद की जाती हैं. 6 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा शहर पर एटम बम गिराया गया. फिर भी जापान ने हार नहीं मानी तो 9 अगस्त को नगासाकी शहर पर बम गिराया गया.

इन दो बमों ने विश्व युद्ध रोक दिया. इस साल दुनिया उस बमबारी की 78वीं सालगिरह मना रही है. इन दो घटनाओं ने वैश्विक नागरिक-समुदाय के सामने कई सवाल खड़े किए थे. राष्ट्रों के हित क्या नागरिकों के हित भी होते हैं?

नागरिकों की ताकत

जापान के नागरिकों को श्रेय जाता है कि उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध की पराजय और विध्वंस का सामना करते हुए पिछले 77 साल में एक नए देश की रचना कर दी. वह दुनिया की तीसरे नम्बर की अर्थव्यवस्था है. भले ही चीन उससे बड़ी अर्थव्यवस्था है, पर तकनीकी गुणवत्ता में चीन उसके करीब नहीं हैं.

भारत और जापान की संसदें दो तरह के अनुभवों से गुजर रही हैं. जापान की संसद पिछले 76 साल के इतिहास का सबसे लंबा विमर्श कर रही है, वहीं हमारी संसद में शोर है. यह राजनीति है और इसकी ताली भी दो हाथ से बजती है. एक नेता की, दूसरी जनता की.

शोर ही सही, पर क्या हमारे विमर्श में गम्भीरता है? क्या हम भविष्य को लेकर सचेत हैं? हम माने कौन? देश के संविधान की उद्देशिका का पहला वाक्य है: ‘हम, भारत के लोग…और अंतिम वाक्य है: ‘,अपनी संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतदद्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.’  कौन हैं भारत के वे लोग, जिन्होंने संविधान को आत्मार्पितकिया है?

भारत भाग्य विधाता

रघुवीर सहाय की कविता है:- राष्ट्रगीत में भला कौन वह/ भारत भाग्य विधाता है/ फटा सुथन्ना पहने जिसका/ गुन हरचरना गाता है. कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं:- कौन-कौन है वह जन-गण-मन/ अधिनायक वह महाबली/ डरा हुआ मन बेमन जिसका/ बाजा रोज़ बजाता है.

वह भारत भाग्य विधाता इस देश की जनता है. क्या उसे जागी हुई जनता कहना चाहिए? जागने का मतलब आवेश और तैश नहीं है. अभी हम या तो खामोशी देखते हैं या भावावेश. दोनों ही गलत हैं. सही क्या है, यह सोचने का समय आज है. आप सोचें कि 9 और 15 अगस्त की दो क्रांतियों का क्या हुआ.

15 अगस्त, 1947 को जवाहर लाल नेहरू ने कहा, ‘इतिहास के प्रारंभ से ही भारत ने अपनी अनंत खोज आरंभ की थी. अनगिनत सदियां उसके उद्यम, अपार सफलताओं और असफलताओं से भरी हैं…हम आज दुर्भाग्य की एक अवधि पूरी करते हैं. आज भारत ने अपने आप को फिर पहचाना है.’

इस भाषण के दो साल बाद 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में भीमराव आंबेडकर ने कहा, ‘राजनीतिक लोकतंत्र तबतक विफल है, जबतक उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र नहीं हो.’ इस सामाजिक-लोकतंत्र के केंद्र में है भारतीय जनता, जो जागती है, तो बहुत कुछ बदल जाता है.