कांग्रेस के रायपुर महाधिवेशन और पूर्वोत्तर के तीन राज्यों से मिले चुनाव-परिणामों से आगामी लोकसभा चुनाव से जुड़ी कुछ संभावित प्रवृत्तियों के दर्शन होने लगे हैं। खासतौर से विरोधी दलों की एकता और कांग्रेस की रणनीति स्पष्ट हो रही है। राहुल गांधी की ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ के बाद कांग्रेस का उत्साह बढ़ा है, पर इस उत्साह का लाभ चुनावी राजनीति में फिलहाल मिलता दिखाई नहीं पड़ रहा है। सबसे बड़ी बात है कि विरोधी-दलों की एकता के रास्ते में उसी किस्म की बाधाएं दिखाई पड़ रही हैं, जो पिछले कई दशकों में देखी गई हैं।
तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने कहा है
कि बीजेपी, कांग्रेस और सीपीएम के बीच लेन-देन
का रिश्ता कायम हो गया है और आने वाले दिनों में हम इनके राजनीतिक नाटक का
पटाक्षेप करेंगे। 2024 के चुनाव में तृणमूल और जनता का सीधा गठबंधन होगा और हम
किसी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेंगे। जनता के समर्थन से हम अकेले लड़ेंगे।
ममता बनर्जी के बयान से यह नहीं मान लेना चाहिए
कि भविष्य में वे किसी गठबंधन में शामिल नहीं होंगी। राजनीति में किसी भी वक्त कुछ
भी संभव है और चुनाव-24 का असली गठबंधन चुनाव के ठीक पहले ही होगा। दूसरे भारत की
राजनीति में अब पोस्ट-पोल गठबंधनों का मतलब ज्यादा होता है। फिर भी कांग्रेस और
तृणमूल के बीच बढ़ती बदमज़गी की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है।
पूर्वोत्तर के चुनाव
तीन राज्यों के चुनाव पर नज़र डालें, तो साफ दिखाई पड़ता है कि कांग्रेस ने अपनी बची-खुची ज़मीन भी खो दी है। चुनाव के पहले मेघालय में कांग्रेस के भीतर हुई बगावत का परिणाम सामने है। ममता बनर्जी का कहना है कि उनकी पार्टी ने इस राज्य में केवल छह महीने पहले ही प्रवेश किया था, फिर भी उसे 13.78 फीसदी वोट मिले, जो कांग्रेस के 13.14प्रतिशत के करीब बराबर ही हैं। दोनों पार्टियों को पाँच-पाँच सीटें मिली हैं। 2018 के चुनाव में यहाँ से कांग्रेस को 21 सीटें मिली थीं और उसे 28.5 प्रतिशत वोट मिले थे। इन 21 में से 12 विधायकों ने हाल में कांग्रेस को छोड़कर तृणमूल का दामन थाम लिया था।