Sunday, October 23, 2022

कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र: उम्मीदें और अंदेशे


मल्लिकार्जुन खड़गे की जीत को लेकर शायद ही किसी को संदेह रहा हो, पर असली सवाल है कि इस चुनाव से कांग्रेस की समस्याओं का समाधान होगा या नहीं? इस सिलसिले में दो तरह की तात्कालिक प्रतिक्रियाएं हैं। पहली यह कि खड़गे ने सिर पर काँटों का ताज पहन लिया है और उनके सामने समस्याओं के पहाड़ हैं, जिनका समाधान गांधी परिवार नहीं कर पाया, तो वे क्या करेंगे? दूसरी तरफ कुछ संजीदा राजनीति-शास्त्री मानते हैं कि यह चुनाव केवल कांग्रेस पार्टी के लिए ही युगांतरकारी साबित नहीं होगा, बल्कि इससे दूसरे दलों के आंतरिक लोकतंत्र की संभावनाएं बढ़ेंगी। फिलहाल कांग्रेस की सारी समस्याओं के समाधान नहीं निकलें, पर पार्टी के पुनरोदय के रास्ते खुलेंगे और एक नई शुरुआत होगी।

अंदेशे और सवाल

करीब 24 साल बाद कांग्रेस की कमान किसी गैर-गांधी के हाथ में आई है। पर जिस बदलाव की आशा पार्टी के भीतर और बाहर से की जा रही है, वह केवल इतनी ही नहीं है। इसे बदलाव का प्रस्थान-बिंदु माना जा सकता है, पर केवल इतना ही, क्योंकि सवाल कई हैं? इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है हाईकमान से आशीर्वाद प्राप्त प्रत्याशीका होना। उसके पीछे सबसे बड़ा सवाल है कि अब हाईकमान के मायने क्या होंगे? पिछले कुछ वर्षों के घटनाक्रम से यह बात रेखांकित हो रही है कि पार्टी में कोई धुरी नहीं है और है भी तो कमज़ोर है। अब नए अध्यक्ष की भूमिका क्या होगी, कितनी उसकी चलेगी और कितनी परिवार की, जिसे हाईकमान कहा जाता है?  और अध्यक्ष के रहते क्या कोई हाईकमान भी होगी? सबसे बड़ा सवाल है कि गैर-गांधी अध्यक्ष खुद कब तक चलेगा?  बात केवल अध्यक्ष के पदस्थापित होने तक है या पार्टी के भीतर वैचारिक और संगठनात्मक सुधारों की कोई योजना भी है?

चुनौतियों के पहाड़

मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने चुनौतियों के पहाड़ हैं और समय कम है। समय से आशय है 2024 का लोकसभा चुनाव। यह बदलाव मई 2019 में राहुल गांधी के इस्तीफे के फौरन बाद हो गया होता, तब भी बात थी। नए अध्यक्ष को अपना काम करने का मौका मिल गया होता। पता नहीं उस स्थिति में भारत जोड़ो यात्रा होती या कुछ और होता। पंजाब में कांग्रेस हारती या नहीं हारती वगैरह-वगैरह। खड़गे के पास अब समय नहीं है। लोकसभा चुनाव के लिए डेढ़ साल का समय बचा है। उसके पहले 11 राज्यों के और उसके फौरन बाद को भी जोड़ लें, तो कुल 18 विधानसभाओं के चुनाव होने हैं, जिनमें हिमाचल प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य शामिल हैं। हिमाचल और गुजरात के चुनाव तो सामने खड़े हैं और फिर 2023 में उनके गृह राज्य कर्नाटक के चुनाव हैं। अगले साल फरवरी-मार्च में त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के चुनाव हैं, मई में कर्नाटक के और नवंबर-दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना के। राजस्थान में अशोक गहलोत प्रकरण अभी अनसुलझा है। भले ही खड़गे पार्टी अध्यक्ष हैं, पर कम से कम इस मामले में परिवार की सलाह काम करेगी।

Wednesday, October 19, 2022

बाइडन ने पाकिस्तान को ‘खतरनाक देश’ क्यों बताया?


अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने पाकिस्तान को दुनिया के सबसे ख़तरनाक देशों में से एक बताया है. बाइडन ने इस साल हो रहे मध्यावधि चुनाव के सिलसिले में अपनी पार्टी के लिए हुए एक धन-संग्रह कार्यक्रम में कहा, मुझे लगता है कि शायद (अंग्रेजी में मे बी) पाकिस्तान दुनिया के सबसे ख़तरनाक देशों में से एक है. एक ग़ैर-ज़िम्मेदार देश के पास परमाणु हथियार हैं.

बाइडन के इस बयान पर पाकिस्तान में तो तीखी प्रतिक्रिया हुई है, भारत में भी लोगों ने इसका मतलब लगाने की कोशिश की है. कुछ दिन पहले लग रहा था कि अमेरिका फिर से पाकिस्तान की तरफदारी कर रहा है. ऐसे में यू-टर्न क्यों? वह भी ऐसे मौके पर जब पाकिस्तान सरकार उसके साथ अपने रिश्ते सुधारना चाहती है.

इमरान खान का तो आरोप ही यही है कि शहबाज़ शरीफ की इंपोर्टेड सरकार है. दूसरी तरफ देखना यह भी होगा कि अमेरिका धीरे-धीरे पाकिस्तान की तकलीफों को कम कर रहा है. उसे आईएमएफ से कर्ज मिलने लगा है, इस हफ्ते एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट से भी उसके बाहर निकलने की आशा है. 

भौगोलिक स्थिति के कारण अमेरिका की दिलचस्पी पाकिस्तान को अपने साथ जोड़कर रखने में है. पर पाकिस्तान के साथ विसंगतियाँ जुड़ी हैं. उसे खतरनाक देश बताकर बाइडन इस विसंगति की ओर ही इशारा कर रहे हैं. उसके एक हाथ में एटम बम का बटन है, और दूसरा हाथ बेकाबू राजनीति से पंजे लड़ा रहा है. 

राजनीतिक बयान?

बाइडन ने चुनाव-अभियान के दौरान यह बात कही है. इसका मतलब क्या है? क्या अमेरिकी मतदाता की दिलचस्पी ऐसे बयानों में है? या बाइडन ने भारत की नाराज़गी को कम करने की कोशिश की है? या इसका भारत से कोई संबंध नहीं है?

इस महीने के शुरू में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा का अमेरिका में भव्य स्वागत किया गया था. अमेरिका के रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन के आमंत्रण पर जनरल बाजवा अमेरिका गए थे और उनका उसी प्रकार स्वागत हुआ, जैसा अप्रेल के महीने में भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का हुआ था.

बाइडन के बयान को पढ़ने के लिए जनरल बाजवा की यात्रा के उद्देश्य को भी समझना होगा. लगता है कि यह यात्रा भू-राजनीति के बजाय पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति से जुड़ी है, जिसमें जनरल बाजवा और सेना की भूमिका है.

सेना की भूमिका

पाकिस्तान की सेना के भीतर राष्ट्रीय राजनीति और अमेरिका के साथ रिश्तों को लेकर दो तरह के विचार हैं. जनरल बाजवा का कार्यकाल हालांकि अब एक महीने का ही बचा है, पर लगता है कि सेना के भीतर उनकी पकड़ अच्छी है. वे कई बार कह चुके हैं कि सेना अब राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करेगी.

इसमें दो राय नहीं कि 2018 के चुनाव में वहाँ की सेना ने भूमिका अदा की थी और इमरान खान को गद्दी पर बैठाया. इमरान खान ने न केवल राजनीति में, बल्कि सेना के भीतर भी कुछ बुनियादी पेच पैदा कर दिए हैं, जिन्हें लेकर अमेरिका परेशान है.   

चीन के प्रभाव में इमरान खान ने रूस के साथ रिश्तों को सुधारने की कोशिश भी की थी. यूक्रेन पर हमले के ठीक पहले इमरान खान मॉस्को में थे. पाकिस्तान की वर्तमान सरकार ने अमेरिका से रिश्ते सुधारे जरूर हैं, पर चीन के साथ उसके रिश्ते बदस्तूर हैं.

चीन का मुकाबला

अमेरिका को लग रहा है कि पाकिस्तान का झुकावचीन की ओर बढ़ रहा है, जिसे रोकने के लिए वह पाकिस्तान को एक तरफ खुश करने की कोशिश कर रहा है, वहीं धमका भी रहा है. पिछले साल अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान को जिम्मेदार माना था.

Monday, October 17, 2022

समस्या समाज की है, केवल भाषा की नहीं


भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा-3

इससे पहले की दूसरी कड़ी पढ़ें यहाँ

गृहमंत्री अमित शाह ने रविवार, 16 अक्टूबर 2022 को भोपाल में मेडिकल शिक्षा की हिंदी किताबों का लोकार्पण किया। गृहमंत्री ने कहा कि देश विद्यार्थी जब अपनी भाषा में पढ़ाई करेंगे, तभी वह सच्ची सेवा कर पाएंगे। 10 राज्यों में इंजीनियरिंग की पढ़ाई उनकी मातृभाषा में शुरू होने वाली है। इस पर काम चल रहा है। मैं देश भर के युवाओं से अह्वान से कहता हूं कि अब भाषा कोई बाध्यता नहीं है। आने वाले दिनों में ये सिलसिला और तेजी से आगे बढ़ेगी. पढ़ाई लिखाई और अनुसंधान मातृभाषा में होगा तो देश तेज़ी से तरक़्क़ी करेगा।

इस कार्यक्रम को आप किस तरह से देखते हैं, यह आप पर निर्भर करता है। मध्य प्रदेश में हिंदी माध्यम की मेडिकल पुस्तकों के मसले को काफी लोग राजनीतिक दृष्टि से देख रहे हैं। दक्षिण भारत, खासतौर से तमिलनाडु में हिंदी-विरोध राजनीतिक-विचारधारा की शक्ल भी अख्तियार कर चुका है। यह विचारधारा पहले से उस इलाके में पल्लवित-पुष्पित हो रही थी, पर 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद से इसे बल मिला है। मेरा सुझाव है कि इस मसले को राजनीतिक नज़रिए से देखना बंद करें।

भारतीय जनता पार्टी हिंदी-माध्यम से शिक्षण को प्रचार के लिए इस्तेमाल करे या द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम इसके विरोध को अपनी राजनीति की ज़रिया बनाए, दोनों परिस्थितियों में हम उद्देश्य से भटकेंगे। जब आप राजनीतिक हानि-लाभ या रणनीतियों का विवेचन करें, तब भाषा की राजनीति पर भी विचार करें। पर जब शिक्षा-नीति की दृष्टि से विचार करें, तब यही देखें कि सामान्य-छात्र के लिए कौन सी भाषा उपयोगी है।

भाषा की राजनीति

भाषा की राजनीति अलग विषय है। सामाजिक पहचान के रूप में भाषा का इस्तेमाल होता है। यह राजनीति है। राष्ट्रवाद का महत्वपूर्ण अवयव है भाषा। हिंदी को संघ की राजभाषा बनाने का फैसला एक प्रकार से राजनीतिक समझौता था। संविधान सभा ने आधे-अधूरे तरीके से इस मसले का समाधान किया और इसे समस्या के रूप में छोड़ दिया। इसके लिए राजनीति ही दोषी है, जिसका विवेचन शुरू करते ही हम एक दूसरे रणक्षेत्र में पहुँच जाते हैं।

फिलहाल मैं प्राथमिक रूप से शिक्षा के माध्यम से जुड़े सवालों पर बात करना चाहूँगा, जिसकी विशेषज्ञता मेरे पास नहीं है। विशेषज्ञों की राय के सहारे ही मैंने अपनी राय बनाई है। मेरी दृष्टि की विसंगतियों को पाठक इंगित करें तो अच्छा है। इससे मुझे अपनी राय को सुस्पष्ट बनाने में आसानी होगी।

स्थानीयता का महत्व

नब्बे के दशक में अंग्रेजी के दो काफी प्रचलित हुए थे। एक लोकल और दूसरा ग्लोबल। कहा गया कि थिंक ग्लोबल, एक्ट लोकल। स्थानीयता और अंतरराष्ट्रीयता को जोड़ने की यह कोशिश थी। इसे भाषा की दृष्टि से देखें, तो बनता है वैश्विक भाषा और स्थानीय भाषा। आपकी समस्याएं और उनके समाधानों की स्थानीयता उतनी ही या उससे कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण है, जितनी आप वैश्विकता को महत्वपूर्ण मानते हैं। मध्य प्रदेश में हिंदी के माध्यम से मेडिकल पढ़ाई अभी शुरू ही नहीं हुई है कि आपने अमेरिका और यूरोप जाकर वहाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करने या प्रैक्टिस से जुड़ी परेशानियों का जिक्र शुरू कर दिया।

Sunday, October 16, 2022

यूक्रेन की लड़ाई से जुड़ी पेचीदगियाँ


यूक्रेन की लड़ाई अब ऐसे मोड़ पर आ गई है, जहाँ खतरा है कि कहीं यह एटमी लड़ाई में न बदल जाए। एक तरफ खबरें हैं कि रूस के फौजी-संसाधन बड़ी तेजी से खत्म हो रहे हैं। वहीं रूसी हमलों में तेजी आने की खबरें भी हैं। रूस को क्राइमिया से जोड़ने वाले पुल पर हुए विस्फोट के बाद 10 अक्टूबर को यूक्रेन पर सबसे बड़ा हवाई हमला किया गया। एक के बाद एक कई रूसी मिसाइलों का रुख यूक्रेन की तरफ मुड़ गया। उधर बेलारूस ने भी रूस के पक्ष में युद्ध में कूदने की घोषणा कर दी है। 10 अक्तूबर को बेलारूस के राष्ट्रपति अलेक्जेंडर लुकाशेंको ने कहा, हमें पता लगा है कि बेलारूस पर यूक्रेन हमला करने वाला है। इसलिए हमने अपनी सेना को रूसी सेना के साथ तैनात करने का फैसला किया है। हम रूसी सेना को बेस कैंप बनाने और तैयारी के लिए अपनी जमीन देंगे। पश्चिमी विश्लेषकों का कहना है कि सीधे भिड़ने के बजाय पुतिन बेलारूस के जरिए यूक्रेन पर परमाणु हमला कर सकते हैं। इससे रूस को सीधे हमले का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकेगा। जी-7 देशों को भी ऐसा ही अंदेशा है। इसीलिए जी-7 की इमरजेंसी बैठक के बाद रूस को धमकी दी गई कि यूक्रेन पर रासायनिक, जैविक या न्यूक्लियर हमला हुआ तो रूस को बुरा अंजाम भुगतना पड़ेगा।

नाटो का विस्तार

नाटो ने कहा है कि हम यूक्रेन को हथियारों की मदद जारी रखेंगे और जो कोई भी नाटो से भिड़ेगा उसे देख लिया जाएगा। नाटो के प्रमुख स्टोल्टेनबर्ग ने कहा है कि नाटो अगले हफ्ते न्यूक्लियर ड्रिल करेगा। बेलारूस की सीमा लात्विया, लिथुआनिया और पोलैंड से लगती है। तीनों नाटो के सदस्य हैं। इस बीच यूक्रेन ने यूरोपियन यूनियन और नाटो दोनों में शामिल होने के लिए अर्जी दे दी है। बारह सदस्य देशों के साथ शुरू हुए नाटो में शामिल होने के लिए फिनलैंड और स्वीडन की अर्जी मंजूर होने के बाद उनके 31वें और 32वें देश के रूप में शामिल होने की उम्मीदें हैं। अब बोस्निया और हर्ज़गोवीना, जॉर्जिया और यूक्रेन के भी इसमें शामिल होने के आसार हैं। उधर रूस ने यूक्रेन के चार इलाकों में जनमत संग्रह कराकर उन्हें अपने देश में शामिल करने की घोषणा कर दी है। इन बातों से तनाव घटने के बजाय बढ़ ही रही है। इतना स्पष्ट है कि लड़ाई उसके अनुमान से कहीं ज्यादा लंबी खिंच गई है। हाल में रूस ने जो लगातार बमबारी की है उससे यही लगता है कि रूस इस युद्ध को और बढ़ाना चाहता है। पर अंतहीन लड़ाई के लिए अंतहीन संसाधनों की जरूरत होगी। बेशक रूस ने मिसाइलों की बौछार करके अपनी ताकत का प्रदर्शन किया है, पर ऐसा करके उसने अपने संसाधनों को बर्बाद भी किया है। सुरक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि रूसी हथियारों की सप्लाई कम हो रही है। उसके संसाधनों की भी एक सीमा है। लड़ाई के लंबा खिंचने से जटिलताएं बढ़ रही हैं। रूस के भीतर भी असंतोष बढ़ रहा है।

Friday, October 14, 2022

अंग्रेजी भाषायी साम्राज्यवाद से बचने की जरूरत


भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा-2

आजादी के 75 साल बाद भी यदि मैं आपको सुझाव दूँ कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद की दासता छोड़ें, तो आपको हैरत होगी। काफी लोग समझते हैं कि ब्रिटिश सरकार का शासन तो गया। वस्तुतः जब आप अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को ज्ञान-विज्ञान की भाषा मानते हुए आगे बढ़ते हैं, तब यह सवाल पैदा होता है कि उच्च शिक्षा या ज्ञान-विज्ञान का माध्यम भारतीय भाषाएं क्यों न बनें? भारत में अंग्रेजी का स्तर दुनिया के बहुत से गैर-अंग्रेजी देशों से बेहतर है, इसमें दो राय नहीं, पर क्या केवल इसी वजह से हमें अपनी शिक्षा-व्यवस्था को अंग्रेजी के हवाले कर देना चाहिए? हमने भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा के बारे में क्यों नहीं सोचा? इसके भी दो-तीन बड़े कारण हैं। एक तो भारतीय भाषाओं में विज्ञान और तकनीकी साहित्य की कमी और इनके माध्यम से शिक्षा प्रदान करने वाली व्यवस्थाओं की अनुपस्थिति।

माना यह भी जाता है कि हम अंग्रेजी में शिक्षा पाने के बाद वैश्विक समुदाय के बराबर आ जाते हैं और वैश्विक विद्वानों से हमारा संवाद आसानी से संभव है। हमारी तुलना में चीन जैसे देशों को दिक्कत होती है। पर क्या चीन का अकादमिक स्तर हम से कम है? हम से कम नहीं हमसे बेहतर ही है। हमें अपने सॉफ्टवेयर कार्यक्रम पर गर्व है, क्योंकि उसमें अंग्रेजी की सहायता हमें मिली। पर सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भी चीन हमसे पीछे नहीं है। फर्क केवल यह है कि हम पश्चिमी देशों के लिए सॉफ्टवेयर का काम करते हैं और चीन अपने आंतरिक कार्यों के लिए सॉफ्टवेयर बनाता है।

आप अपने मोबाइल फोनों को देखें, तो पाएंगे कि चीनी सॉफ्टवेयर गेमिंग और मनोरंजन से जुड़े सॉफ्टवेयरों में भी काफी आगे हैं। मेडिकल साइंस, नाभिकीय ऊर्जा और अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़े तमाम शोध वे अपनी भाषा में ही करते हैं। यही बात जापान, कोरिया और इसरायल जैसे देशों पर लागू होती है। यूरोप के गैर-अंग्रेजी भाषी देशों की बात करना उचित नहीं होगा, क्योंकि उनकी भाषाएं पहले से काफी समृद्ध हैं।

भारत की समस्या राजनीतिक है, जिसके पीछे सामाजिक-सांस्कृतिक बहुलता को बड़ा कारक माना जाता है। माना जाता है कि अंग्रेजी हमें जोड़ती है। देश के सभी इलाके के लोगों को अंग्रेजी स्वीकार्य है। ऐसी कोई भारतीय भाषा नहीं है, जो पूरे देश को जोड़ती हो और जिसे पूरा देश स्वीकार करता हो। यह बात एक हद तक सही है, पर पूरी तरह सही नहीं है। देश के स्वतंत्रता संग्राम की भाषा काफी हद तक हिंदी या हिंदुस्तानी थी, अंग्रेजी नहीं। महात्मा गांधी ने भारत आने से पहले दक्षिण अफ्रीका से अपना अखबार शुरू किया तो उसमें अंग्रेजी के अलावा गुजराती हिन्दी और तमिल का इस्तेमाल भी किया और भारत आने बाद तो देशभर में जनता के बीच वे हिंदी या हिंदुस्तानी का इस्तेमाल ही करते थे।