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28 जुलाई 2021 को चीन के तियानजिन शहर में तालिबान प्रतिनिधि मुल्ला बरादर और चीनी विदेशमंत्री वांग यी। |
अफगानिस्तान में नई सरकार बन जाने के बाद अब
अगला सवाल है कि क्या दुनिया इस सरकार को स्वीकार करेगी? स्वीकार
करना यानी पहले मान्यता देना, फिर उसके पुनर्निर्माण में सहायता देना। केवल भारत
के नजरिए से देखें, तो यह सवाल और ज्यादा पेचीदा है। भारतीय दृष्टिकोण के साथ यह
बात भी जुड़ी है कि तालिबान के पाकिस्तान के साथ रिश्ते किस प्रकार के होंगे। कहा
जा रहा है कि जिस प्रकार भारत ने सन 1949 में चीन में हुए सत्ता-परिवर्तन के बाद
मान्यता देने में जल्दबाजी की थी, वैसा नहीं होना चाहिए।
फिलहाल ज्यादातर सवाल अमेरिका की नीति से जुड़े
हैं। इसके अलावा इस बात पर भी कि संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद में आमराय क्या
बनती है। क्या तालिबान सरकार के नेतृत्व में अफगानिस्तान को संरा की सदस्यता
मिलेगी? क्या तालिबान पर लगे सुरक्षा
परिषद के प्रतिबंध हटेंगे? संयुक्त अमेरिका से आए बयानों में
कहा गया है कि जो अफगानिस्तान सरकार अपने देशवासियों के मानवाधिकार की रक्षा करेगी
और अपनी जमीन से आतंकवाद का प्रसार नहीं करेगी, उसके साथ हम मिलकर काम करेंगे। वहाँ
के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने कहा है कि हम तालिबान के बयानों के आधार पर फैसला
नहीं करेंगे, बल्कि देखेंगे कि उसका व्यवहार कैसा है।
अमेरिका की भूमिका
लगता यह है कि ज्यादातर देश विचार-मंथन में समय
लगा रहे हैं। जरूरी नहीं कि कोई देश अफगान सरकार को मान्यता देने के लिए संरा की
आमराय का इंतजार करे, पर अभी कोई पहल कर नहीं रहा है। अमेरिका के भीतर अफगानिस्तान
के घटनाक्रम को लेकर बहस चल रही है। बाइडेन प्रशासन अपने फैसलों को सही साबित करने
का प्रयास कर रहा है, पर उसे तीखी आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है।
सवाल यह भी है कि क्या अफगानिस्तान में अमेरिका
की हार हुई है? इसे हार कैसे कह सकते हैं? अमेरिका ने 11 सितम्बर 2001 की घटना के बाद अफगानिस्तान में जब
प्रवेश किया था, तब उसका पहला उद्देश्य ओसामा बिन लादेन का सफाया था। उसने तालिबान
को परास्त किया, लादेन की हत्या की, अफगानिस्तान में एक सरकार बनाई और उसे बीस साल
तक सहायता दी। डोनाल्ड ट्रंप की सरकार के नीति-निर्णय के तहत उसने मुकर्रर वक्त पर
अफगानिस्तान को छोड़ दिया।
बेशक इससे तालिबान को वापस आने का मौका मिला,
पर इसे तालिबान की जीत कैसे कहेंगे? आज भी तालिबान अमेरिका का मुँह जोह रहा
है। तालिबान ने पहले के मुकाबले अपने व्यवहार को सौम्य बनाने की घोषणा किसके दबाव
में की है? विजेता का व्यवहार पूरी तरह ऐसा नहीं होता। यह
आंशिक विजय है, जो दुनिया में नए ध्रुवीकरण का बीज डाल सकती है। वैश्विक-राजनीति में इसे रूस-चीन गठजोड़ की जीत
के रूप में देखा जा रहा है।
भारत की दुविधा
जहाँ तक भारत का सवाल है, उसके सामने विकट
स्थिति है। हालांकि भारत के राजदूत ने दोहा में तालिबान प्रतिनिधि से बातचीत की
है, पर इसका मतलब यह नहीं कि तालिबान को स्वीकार कर लिया। तालिबान के पीछे कौन सी
ताकतें हैं, यह जानकारी भारत सरकार के पास पूरी है। सवाल है कि भविष्य की रणनीति
क्या होगी? संयुक्त राष्ट्र की भूमिका अफगानिस्तान में
क्या होगी और दुनिया का फैसला एक जैसा होगा या दो धड़ों के रूप में दुनिया बँटेगी?
तालिबान को मान्यता के मामले में तमाम पेचो-खम हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या
तालिबान पूरे अफगानिस्तान का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? क्या
सारे समुदाय एक झंडे के नीचे हैं? दूसरे वैश्विक-राजनीति में अब अफगानिस्तान
सरकार की भूमिका क्या होगी? तालिबान ने अमेरिका के साथ समझौता जरूर किया
है, पर उन्होंने चीन के साथ सम्पर्क बढ़ाया है।