Tuesday, August 3, 2021

कम होता वैक्सीन-भय और दुनियाभर में बढ़ता तीसरी-चौथी लहर का खतरा


कोरोना वायरस से बचाव के लिए दुनिया टीकाकरण पूरा होने का इंतज़ार कर रही है। डॉक्टरों, वैज्ञानिकों और महामारी विशेषज्ञों के बड़े हिस्से का मानना है कि कोरोना के मुकम्मल इलाज के लिए वैक्सीन के अलावा और कोई विकल्प नहीं है, फिर भी एक तबका ऐसा हो, जो टीका लगवाना नहीं चाहता। कुछ लोग ऐसे हैं, जो टीका लगवाने से घबराते हैं। वे उन खबरों को गौर से सुनते हैं, जिनमें टीका लगवाने के बाद पैदा हुई परेशानियों का विवरण हो। दूसरी तरफ कुछ लोग ऐसे हैं, जो टीके के सख्त विरोधी हैं। कुछ वैज्ञानिक सिद्धांतों का हवाला देते हैं और कुछ धार्मिक विश्वासों का।

पिछले साल दुनिया में कोविड-19 से सबसे ज्यादा संक्रमण अमेरिका में हो रहे थे और वहाँ मौतें भी सबसे ज्यादा हुई थीं। पर जैसे ही टीके लगने शुरू हुए वहाँ बीमारी पर काफी हद तक काबू पा लिया गया। जहाँ इस साल 12 जनवरी को साढ़े चार हजार के ऊपर मौतें हुई थीं, वहीं अब यह संख्या सौ से डेढ़ सौ के बीच है। पर ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मरने वालों में करीब 90 फीसदी ऐसे हैं, जिन्होंने टीका नहीं लगवाया है।

वैक्सीन-विरोध

दुनियाभर में ऐसे संगठित समूह हैं, जो हर तरह की वैक्सीन के विरोधी हैं। वे अनिवार्य टीकाकरण को नागरिक अधिकारों, वैयक्तिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उल्लंघन मानते हैं। उनके अनुसार वैक्सीन से कोई फ़ायदा नहीं। यह इंसान के प्राकृतिक-प्रतिरक्षण के साथ दखलंदाजी है। इन्हें एंटी-वैक्स कहा जाता है। कुछ धार्मिक समूह हैं, कुछ वैकल्पिक मेडिसिन के समर्थक। कुछ मानते हैं कि वैक्सीन कुछ नहीं बड़ी कम्पनियों की कमाई का धंधा है। एक प्रकार की विश्व-व्यापी साजिश।

Sunday, August 1, 2021

विरोधी-एकता का गुब्बारा


विरोधी-एकता का गुब्बारा फिर से फूल रहा है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सफलता इसका प्रस्थान बिंदु है और ममता बनर्जी, शरद पवार और राहुल गांधी की महत्वाकांक्षाएं बुनियाद में। तीनों को जोड़ रहे हैं प्रशांत किशोर। कांग्रेस पार्टी भी प्रशांत किशोर की सलाह पर नई रणनीति बना रही है। ममता बनर्जी एक्शन पर जोर देती हैं। उनके पास बंगाल में वाममोर्चे को उखाड़ फेंकने का अनुभव है। क्या वह रणनीति पूरे देश में सफल होगी? सवाल है कि रणनीति के केंद्र में कौन है और परिधि में कौन? कौन है इसका सूत्रधार?

मोदी को हटाना है?

विरोधी-एकता का राजनीतिक एजेंडा क्या है? मोदी को हटाना? कांग्रेस नेता वीरप्पा मोइली ने कहा है कि केवल मोदी-विरोधी एजेंडा कारगर नहीं होगा। व्यक्ति विशेष का विरोध किसी भी राजनीतिक मोर्चे को आगे लेकर नहीं जाएगा। एक जमाने में विरोधी-दलों ने इंदिरा गांधी के खिलाफ यही किया था। वे कामयाब नहीं हुए। मोइली का कहना है कि हमें साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाना होगा। हम चर्चा यह कर रहे हैं कि कौन इसका नेता बनेगा, किस राजनीतिक पार्टी को इसकी अगुवाई करनी चाहिए तो, यह कामयाब नहीं होगा।

मोदी की सफलता व्यक्ति-केंद्रित है या विचार-केंद्रित? कांग्रेस, ममता और शरद पवार का राजनीतिक-नैरेटिव क्या है? व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या सामूहिक चेतना? बात केवल विरोधी-एकता की नहीं है। यह कितने बड़े आधार वाली एकता होगी? इसमें बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, जेडीएस, बसपा, वाईएसआर कांग्रेस, तेलुगु देशम पार्टी, अकाली दल और इनके अलावा तमाम छोटे-बड़े दल दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। क्या वे इसमें शामिल होंगे? जैसे ही आधार व्यापक होगा, क्या आपसी मसले खड़े नहीं होंगे?

अगले कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं। उसके बाद गुजरात के चुनाव होंगे। क्या यह विरोधी-एकता इन चुनावों में दिखाई पड़ेगी? यह बहुत मुश्किल सवाल है। केवल मुखिया के नाम का झगड़ा नहीं है। सत्ता-प्राप्ति की मनोकामना केवल राजनीतिक-आदर्श नहीं है, बल्कि आर्थिक-आधार बनाने की कामना है।

नेता ममता बनर्जी?

दिल्ली आकर ममता बनर्जी ने घोषणा की कि अब कोई इस राजनीतिक तूफान को रोक नहीं पाएगा। जब उनसे पूछा गया कि इस तूफान का नेतृत्व कौन करेगा, तो उनका जवाब था, मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ। कांग्रेस और तृणमूल दोनों की तरफ से कहा जा रहा है कि नेतृत्व का मसला महत्वपूर्ण नहीं है, पर यह समझ में आने वाली बात नहीं है। ममता बनर्जी और शरद पवार कांग्रेस से ही टूटकर बाहर गए थे। क्यों गए?

पिछले बुधवार को राहुल गांधी ने संसद में विपक्षी नेताओं की बैठक बुलाकर पहल की। बैठक में कांग्रेस, शिवसेना, एनसीपी, समाजवादी पार्टी, आरजेडी, आम आदमी पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने भाग लिया, पर तृणमूल के नेता नहीं थे। जब राहुल पैदल मार्च कर रहे थे, लगभग उसी समय, ममता बनर्जी ने अपने सांसदों की बैठक बुलाई थी।

तृणमूल-सांसद कल्याण बनर्जी ने बाद में कहा कि मोदी के खिलाफ विपक्ष का नेतृत्व सिर्फ ममता बनर्जी ही कर सकती हैं। उन्होंने कहा, मोदी का कोई विकल्प है तो वह ममता बनर्जी हैं, क्योंकि ‘वह लीडर नंबर वन’ हैं। ममता बनर्जी की रणनीति में विसंगतियाँ हैं। नरेंद्र मोदी की तरह उन्होंने खुद को राष्ट्रीय नेता बनाने का प्रयास नहीं किया। उनकी पार्टी ने विधानसभा चुनाव के दौरान बांग्ला उप-राष्ट्रवाद का जमकर इस्तेमाल किया। उनके कार्यकर्ताओं ने हिंदी और हिंदी-क्षेत्र को लेकर जो बातें कही थीं, वे बाधा बनेंगी।

Friday, July 30, 2021

संसद में शोर और विरोधी-एकता के जुड़ते तार


संसद में पेगासस-विवाद के सहारे विरोधी दलों की एकता के तार जुड़ तो रहे हैं, पर साथ ही उसके अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं। इसे संसद के भीतर और बाहर की गतिविधियों में देखा जा सकता है। पेगासस मामले को लेकर संसद के दोनों सदनों में विरोधी दलों ने कार्य-स्थगन प्रस्ताव के नोटिस दिए हैं। राज्यसभा के सभापति ने इन प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया है। लोकसभा में राहुल गांधी ने 14 विरोधी दलों की ओर से जो नोटिस दिया है, अभी उसपर अध्यक्ष के फैसले की सूचना नहीं है।

अभी तक सरकार इस विषय पर चर्चा के लिए तैयार नहीं है। सरकार का कहना है कि विपक्ष ठोस सबूत पेश करे। अफवाहों की जांच कैसे होगी? सम्भव है कि वह कार्य-स्थगन प्रस्ताव पर चर्चा के लिए तैयार हो जाए, पर उसकी दिलचस्पी विरोधी-एकता के छिद्रों और उनकी गैर-जिम्मेदारी को उजागर करने में ज्यादा होगी। क्या वास्तव में यह इतना बड़ा मामला है, जितना बड़ा कांग्रेस पार्टी मानकर चल रही है? क्या इससे आने वाले समय के चुनावों पर असर डाला जा सकेगा? संसद में विरोधी-दलों की शोरगुल और हंगामे की नीति भी समझ में नहीं आती है। खासतौर से राज्यसभा में सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री के हाथ से कागज लेकर फाड़ना।

पिछले 11 दिन में लोकसभा में केवल 11 फीसदी काम हुआ है और राज्यसभा में करीब 21 फीसदी। सरकार ने लोकसभा में अपने दो विधेयक इस दौरान पास करा लिए, जिनपर चर्चा नहीं हुई। लगता है कि यह शोरगुल चलता रहेगा। यानी सरकार अपने विधेयक पास कराती रहेगी और महत्वपूर्ण प्रश्नों पर चर्चा नहीं होगी, केवल नारे लगेंगे और तख्तियाँ दिखाई जाएंगी। इस बीच सम्भव है कि लोकसभा में कुछ सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई हो। राज्यसभा में ऐसा हो चुका है। क्या विरोधी दल यही चाहते हैं?

पेगासस मामले पर विरोधी दलों की रणनीति बिखरी हुई है। एक पक्ष सदन के अंदर बहस चाहता है, दूसरा चाहता है कि संयुक्त संसदीय समिति जांच करे, और तीसरा सुप्रीम कोर्ट के जज की निगरानी में जांच चाहता है। संसद के बाहर विरोधी एकता कायम करने के प्रयास दो या तीन छोरों पर हो रहे हैं। एक प्रयास हाल में शरद पवार ने शुरू किया है, दूसरे की पहल ममता बनर्जी ने की है। उनका दिल्ली-दौरा इस लिहाज से महत्वपूर्ण है।

बुधवार को राहुल गांधी ने संसद में विपक्षी नेताओं की बैठक बुलाकर पहल की कोशिश की। इस बैठक में कांग्रेस, शिवसेना, एनसीपी, समाजवादी पार्टी, आरजेडी, आम आदमी पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने भाग लिया, पर तृणमूल कांग्रेस के नेता शामिल नहीं हुए। विरोधी सांसद संसद से विजय चौक तक पैदल गए और फिर मीडिया को संबोधित किया।

इस मार्च का नेतृत्व प्रत्यक्षतः राहुल गांधी ने किया। उनके साथ संजय राउत, सुप्रिया सुले, रामगोपाल यादव और द्रमुक तथा राजद के प्रतिनिधि थे। कांग्रेस के साथ चलने वाले इस दस्ते में कोई नया सदस्य नहीं है। बहरहाल जब राहुल पैदल मार्च कर रहे थे, लगभग उसी समय, ममता बनर्जी ने अपने सांसदों की बैठक बुलाई थी। उनकी पार्टी के सांसद कल्याण बनर्जी ने बाद में कहा कि मोदी के खिलाफ विपक्ष का नेतृत्व सिर्फ ममता बनर्जी ही कर सकती हैं। उन्होंने कहा, मोदी का कोई विकल्प है तो वह ममता बनर्जी हैं, क्योंकि ‘वह लीडर नंबर वन’ हैं। ममता बनर्जी की इस रणनीति में विसंगतियाँ हैं। पश्चिम बंगाल में उनकी पार्टी ने पिछले चुनाव के दौरान बांग्ला उप-राष्ट्रवाद का जमकर इस्तेमाल किया। उनके कार्यकर्ताओं ने हिंदी भाषा और हिंदी-क्षेत्र को लेकर जो बातें कही थीं, वे उन्हें राष्ट्रीय नेता बनने से रोकेंगी।

बहरहाल ममता बनर्जी ने राहुल गांधी और सोनिया गांधी से मुलाकात भी की। उन्होंने मुलाकात करने के बाद पत्रकारों से कहा, सभी विपक्षी दलों को हाथ मिलाना होगा और मिलकर काम करना होगा। ममता बनर्जी की योजना में कांग्रेस समेत वे सभी पार्टियाँ शामिल हैं, जो किसी न किसी रूप में बीजेपी-विरोधी हैं। इसके पहले सोनिया गांधी कह चुकी हैं कि नेतृत्व का सवाल एकता के आड़े नहीं आएगा। फिर भी सवाल है कि कांग्रेस इस एकता के केंद्र में होगी या परिधि में?

Thursday, July 29, 2021

अफगानिस्तान से खतरनाक संदेश

 

इस साल मई में काबुल के एक स्कूल पर हुई बमबारी के बाद एक कक्षा में मृत-छात्राओं के नाम पर डेस्क पर रखी पुष्पांजलियाँ

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान मामले में चीन का दिलचस्पी लेना “एक सकारात्मक बात” हो सकती है। वह भी तब जब चीन “इस टकराव के शांतिपूर्ण समाधान” और “सही मायने में एक प्रतिनिधि और समावेशी” सरकार को लेकर विचार कर रहा हो। भारत-यात्रा पर आए एंटनी ब्लिंकेन ने यह भी कहा, “देश पर तालिबान के फौजी कब्ज़े और इसे इस्लामिक अमीरात बनने में किसी की दिलचस्पी नहीं है।” उनके इस बयान की यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण है।

ट्विटर पर एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें लोग एक नौजवान की पत्थर मारकर हत्या कर रहे हैं। पता नहीं वीडियो नया है या पुराना, पर यह खतरनाक संदेश है। सबसे बड़ा खतरा लड़कियों की पढ़ाई को लेकर है। अफगानिस्तान में तालिबान का मजबूत होना इस पूरे इलाके में अराजकता का संदेश है। अफगानिस्तान को मध्य-युगीन अराजक-व्यवस्था बनने से रोकना होगा। अमेरिका के सामने यह बड़ी चुनौती है। भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने भी कहा है कि अफगानिस्तान में ताकत के जोर पर स्थापित किसी व्यवस्था का हम समर्थन नहीं करेंगे।

बुधवार को तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल चीन पहुंचा था। मुल्ला अब्दुल ग़नी बारादर की अगुआई वाले दल ने चीन के विदेश मंत्री वांग यी के साथ मुलाक़ात की थी। इस मुलाक़ात के बाद तालिबान के प्रवक्ता ने एक ट्वीट किया कि चीन ने "अफ़ग़ानों को सहायता जारी रखने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई और कहा कि वे अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, लेकिन देश में शांति बहाल करने और समस्याओं को हल करने में मदद करेंगे।" वहीं, चीन के विदेश मंत्रालय ने भी एक बयान जारी कर कहा कि वो अफ़ग़ानिस्तान के घरेलू मामलों में "हस्तक्षेप ना करने" की नीति जारी रखेगा।

प्रवासी-कामगारों पर खतरे की 'कोविड-लहरें'


ओलिम्पिक खेल चल रहे हैं और एक नया खतरा सामने है कि कहीं कोविड-19 के संक्रमण पर इसका असर तो नहीं पड़ेगा। 23 जुलाई से शुरू हुई इन प्रतियोगिताओं में तोक्यो और उसके तीन पड़ोसी प्रांतों सैतामा, चिबा और कानागावा में दर्शकों का प्रवेश नहीं होगा। अलबत्ता शिजुओका, इबाराकी, फुकुशिमा और मियागी प्रान्तों में होने वाली प्रतियोगिताओं में दर्शक आ सकेंगे, पर उनकी अधिकतम संख्या 10,000 या स्टेडियम बैठने की क्षमता के 50 प्रतिशत तक सीमित होगी। खतरा फिर भी सिर पर है कि कहीं ये खेल कोरोना की एक नई लहर लेकर न आएं। दर्शक नहीं होंगे, पर दुनियाभर से आए खिलाड़ी तो मैदान में होंगे।

एक साल स्थगित रहने के बाद ये प्रतियोगिताएं हो तो रही हैं, पर कई प्रकार की आशंकाएं हैं। ओलिम्पिक के अलावा क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी, एथलेटिक्स, बैडमिंटन और टेनिस की वैश्विक प्रतियोगिताएं धीरे-धीरे शुरू हो रही हैं। दुनिया का प्रयास है कि कोरोना को परास्त करने के बाद दुनिया का कार्य-व्यवहार जल्द से जल्द फिर से ढर्रे पर वापस आ जाए। यह सब इसलिए जरूरी है, ताकि हमारी खुशियाँ फिर से वापस आ सकें। यह सिर्फ खेल की बात नहीं है। इसके साथ रोजी-रोजगार, खान-पान, आवागमन, पर्यटन, प्रवास जैसी तमाम बातें जुड़ी हैं, जो इनसान के जीवन को चलाए रखने के लिए जरूरी हैं।

ब्रिटेन में फ्रीडम-डे

ब्रिटेन के अधिकतर हिस्सों में सोमवार 19 जुलाई से लॉकडाउन की पाबंदियां हटा ली गई हैं। सरकार ने सोशल डिस्टेंसिंग के अनिवार्य पालन संबंधी आदेश भी वापस ले लिया है। नाइट क्लब्स को खोल दिया गया है। इनडोर गतिविधियों को पूरी क्षमता के साथ खोलने की अनुमति दे दी गई है। फेस मास्क की अनिवार्यता खत्म, वर्क फ्रॉम होम भी जरूरी नहीं। प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का कहना है, इस समय नहीं तो फिर ये पाबंदियाँ सर्दी में ही हटेंगी। सर्दी में वायरस का असर ज्यादा होगा। स्कूलों की छुट्टियाँ एक अवसर है। अब नहीं तो कब खोलेंगे? ब्रिटिश मीडिया ने इसे फ्रीडम-डेका नाम दिया है, पर वैज्ञानिकों ने सवाल उठाए हैं। यह फैसला लागू होने के दो दिन पहले शनिवार को ब्रिटेन में 54,000 से ज्यादा नए मामले आए थे, जो जनवरी के बाद सबसे बड़ा नम्बर है। विशेषज्ञों के अनुसार पाबंदियों में छूट वैश्विक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है।