।।तीन।।
कश्मीर का विलय हो
या नहीं हो और वह स्वतंत्र रहे या किसी के साथ जाए, इन दुविधाओं के कारण महाराजा हरिसिंह ने स्वतंत्रता
के तीन दिन पहले 12 अगस्त 1947 को दोनों देशों के सामने एक स्टैंडस्टिल समझौते का
प्रस्ताव रखा। पाकिस्तान ने इस समझौते पर दस्तखत कर दिए, पर भारत ने नहीं किए।
भारत इसपर ज्यादा विचार चाहता था और इसके लिए उसने महाराजा को दिल्ली आकर बातचीत
करने का सुझाव दिया। वीपी मेनन ने लिखा है, ‘पाकिस्तान ने स्टैंडस्टिल
समझौते पर दस्तखत कर दिए थे, पर हम इसके निहितार्थ पर विचार करना चाहते थे। हमने रियासत
को अकेला ही रहने दिया …। भारत सरकार की तत्काल कश्मीर में बहुत ज्यादा दिलचस्पी
नहीं थी। राज्य के सामने अपनी कई तरह की समस्याएं थीं। सच पूछो तो हमारे हाथ भी
घिरे हुए थे। कश्मीर के बारे में सोचने का वक्त ही कहाँ था।’1
उधर पाकिस्तान ने स्टैंडस्टिल समझौते पर दस्तखत करने के बावजूद कुछ समय बाद ही
जम्मू-कश्मीर की आर्थिक और संचार से जुड़ी नाकेबंदी कर दी। हर तरह की आवश्यक
सामग्री खाद्यान्न, नमक, पेट्रोल वगैरह की सप्लाई रोक दी गई। उधर भारत कश्मीर के
महाराजा से इस बाबत कोई विचार-विमर्श कर पाता, हमला शुरू हो गया। परिस्थितियाँ
तेजी से बदल गईं।
24 अक्तूबर, 1947 को गवर्नर जनरल और स्याम के विदेशमंत्री नई दिल्ली में पंडित जवाहर लाल नेहरू के घर पर रात्रिभोज के लिए आ रहे थे। लॉर्ड माउंटबेटन को पंडित नेहरू ने बताया कि खबरें मिली हैं कि कश्मीर पर पश्चिमोत्तर पाकिस्तान के कबायलियों ने हमला कर दिया है। स्थिति की गम्भीरता को समझते हुए लॉर्ड माउंटबेटन ने अगली सुबह 11 बजे डिफेंस कमेटी की विशेष बैठक बुला ली। वहाँ भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ की आधिकारिक रिपोर्ट भी आ चुकी थी, जिन्हें पाकिस्तानी सेना के रावलपिंडी स्थित हैडक्वार्टर्स ने जानकारी दी थी, ‘तीन दिन पहले पश्चिम से करीब 5000 कबायलियों ने कश्मीर में प्रवेश किया है और श्रीनगर की ओर बढ़ते हुए उन्होंने मुजफ्फराबाद शहर में लूटपाट और आगज़नी की है।’2 सन 1947 में पाकिस्तानी हमले की यह पहली रिपोर्ट थी।