Sunday, August 4, 2019

राजनीति इतनी दागी क्यों?


उन्नाव दुष्कर्म कांड ने देश की पुलिस और न्याय-व्यवस्था के साथ-साथ  राजनीति की दयनीय स्थिति को भी उजागर किया है। भारतीय जनता पार्टी ने विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को बर्खास्त करने में काफी देर की। रायबरेली में दुर्घटना नहीं हुई होती तो शायद यह कार्रवाई भी नहीं हुई होती। सेंगर ने राजनीति की शुरुआत कांग्रेस से की, फिर सपा में गए। पत्नी को बसपा में भेजा, खुद बीजेपी में आए। उनके निकट सम्बंधी सभी पार्टियों में हैं। खुद चुनाव जीतते हैं, बल्कि जिसपर हाथ रख देते हैं, वह भी जीतता है। राजनीति के सामंती स्वरूप की बेहतरीन मिसाल।
उन्नाव ही नहीं देश के सभी इलाकों की यही कहानी है। चुनावों में जीतकर आने वाले सांसदों में करोड़पति और आपराधिक मामलों से घिरे सदस्यों की संख्या लगातार बढ़ी है। चुनावों पर नजर रखने वाली शोध संस्था ‘एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म’ (एडीआर) ने सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम के बाद जो रिपोर्ट जारी की, उसके अनुसार आपराधिक मामलों में फँसे सांसदों की संख्या दस साल में 44 प्रतिशत बढ़ी है। इसबार चुन कर आए 542 में 233 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे लंबित है। इनमें से 159 के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हैं। राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय 25 राजनीतिक दलों में से छह दलों के शत प्रतिशत सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं। करोड़पति सांसदों की संख्या 2009 में 58 प्रतिशत थी जो 2019 में 88 प्रतिशत हो गई।

डिजिटल इंडिया के पास है बेरोजगारी का समाधान


अस्सी और नब्बे के दशक में जब देश में कम्प्यूटराइजेशन की शुरुआत हो रही थी, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में श्रमिकों की गेट मीटिंगें इस चिंता को लेकर होने लगी थीं कि कम्प्यूटर हमारी रोजी-रोटी छीन लेगा। ऑटोमेशन को गलत रास्ता बताया गया और कहा गया कि इसे किसी भी कीमत पर होने नहीं देंगे। बहरहाल उसी दौर में सॉफ्टवेयर क्रांति हुई और तकरीबन हर क्षेत्र में आईटी-इनेबल्ड तकनीक ने प्रवेश किया। सेवाओं में सुधार हुआ और रोजगार के नए दरवाजे खुले। तकरीबन उसी दौर में देश के वस्त्रोद्योग पर संकट आया और एक के बाद एक टेक्सटाइल मिलें बंद होने लगीं।
देश में रोजगार का बड़ा जरिया था वस्त्रोद्योग। कपड़ा मिलों के बंद होने का कारण कम्प्यूटराइजेशन नहीं था। कारण दूसरे थे। कपड़ा मिलों के स्वामियों ने समय के साथ अपने कारखानों का आधुनिकीकरण नहीं किया। ट्रेड यूनियनों ने ऐसी माँगें रखीं, जिन्हें स्वीकार करने में दिक्कतें थीं, राजनीतिक दल कारोबारियों से चंदे लेने में व्यस्त थे और सरकारें उद्योगों को लेकर उदासीन थीं। जैसे ही कोई उद्योग संकट में आता तो उसका राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता। औद्योगिक बीमारी ने करोड़ों रोजगारों की हत्या कर दी।
हाल में हमने बैंक राष्ट्रीयकरण की पचासवीं जयंती मनाई। माना जाता है कि राष्ट्रीयकरण के कारण बैंक गाँव-गाँव तक पहुँचे, पर उचित विनियमन के अभाव में लाखों करोड़ रुपये के कर्ज बट्टेखाते में चले गए। तमाम विरोधों के बावजूद सार्वजनिक बैंकों और जीवन बीमा निगम में तकनीकी बदलाव हुआ, भले ही देर से हुआ। आम नागरिकों को ज्यादा बड़ा बदलाव रेल आरक्षण में देखने को मिला, जिसकी वजह से कई तरह की सेवाएं और सुविधाएं बढ़ीं। आज आप बाराबंकी में रहते हुए भी चेन्नई से बेंगलुरु की ट्रेन का आरक्षण करा सकते हैं, जो कुछ दशक पहले सम्भव नहीं था।
नवम्बर 2016 में जब नोटबंदी की घोषणा हुई थी, तब तमाम बातों के अलावा यह भी कहा गया था कि इस कदम के कारण अर्थव्यवस्था के डिजिटाइज़ेशन की प्रक्रिया बढ़ेगी। यह बढ़ी भी। पर यह सवाल अब भी उठता है कि यह डिजिटाइटेशन रोजगारों को खा रहा है या बढ़ा रहा है?   

Wednesday, July 31, 2019

गौरव की प्रतीक भारतीय सेना


गत 25 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय युद्ध-स्मारक का उद्घाटन करके देश की एक बहुत पुरानी माँग को पूरा कर दिया। करीब 40 एकड़ क्षेत्र में फैला यह स्मारक राजधानी दिल्ली में इंडिया गेट के ठीक पीछे स्थित है। इसमें देश के उन 25,942 शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि दी गई है, जिन्होंने सन 1962 के भारत-चीन युद्ध और पाकिस्तान के साथ 1947, 1965, 1971 और 1999 के करगिल तथा आतंकियों के खिलाफ चलाए गए विभिन्न ऑपरेशनों तथा श्रीलंका और संयुक्त राष्ट्र के अनेक शांति-स्थापना अभियानों में अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया।
इस युद्ध-स्मारक की स्थापना को आप एक सामान्य घटना मान सकते हैं, पर एक अर्थ में यह असाधारण स्मारक है। अभी तक देश में कोई राष्ट्रीय युद्ध-स्मारक नहीं था। इंडिया गेट में जो स्मारक है, वह अंग्रेजों ने पहले विश्व-युद्ध (1914-1918) के शहीदों से सम्मान में बनाया था। बेशक भारतीय सैनिकों की कहानी हजारों साल पुरानी है। कम से कम 1947 के काफी पहले की, पर आधुनिक भारत का जन्म 15 अगस्त 1947 को हुआ। विडंबना है कि शुरू से ही हमें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए युद्ध लड़ने पड़े हैं। आश्चर्य है कि हमारे पास पहले विश्वयुद्ध की स्मृति में स्मारक था, आधुनिक भारत की रक्षा के लिए लड़े गए युद्धों का स्मारक नहीं।
स्वाभिमान के प्रतीक
देशभर में दासता के तमाम अवशेष पड़े हैं, हमें राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीकों को भी स्थापित करना होगा। भारतीय सेना की गौरव गाथाओं के रूप में हमारे पास हजारों-लाखों प्रतीक मौजूद हैं। उन्हें याद करें। हर साल 15 जनवरी को हम सेना दिवस मनाते हैं। सन 1949 में 15 जनवरी को सेना के पहले भारतीय कमांडर-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल केएम करियप्पा ने आखिरी ब्रिटिश सी-इन-सी जनरल सर फ्रांसिस बूचर से कार्यभार संभाला था।  सेना दिवस मनाने के पीछे केवल इतनी सी बात नहीं है कि भारतीय जनरल ने अंग्रेज जनरल के हाथों से कमान अपने हाथ में ले ली। देश स्वतंत्र हुआ था, तो यह कमान भी हमें मिलनी थी। महत्वपूर्ण था भारतीय सेना की भूमिका में बदलाव।

Monday, July 29, 2019

हर साल बाढ़ झेलने को अभिशप्त क्यों है बिहार?


बिहार में बाढ़ की विभीषिका विकराल रूप ले रही है. इसकी वजह से कई गाँवों का अस्तित्व समाप्त हो गया है. सवा सौ से ज्यादा लोगों की मृत्यु की पुष्टि सरकार ने की है. न जाने कितनों की जानकारी ही नहीं है. पिछले हफ्ते जारी सूचना के अनुसार, आकाशीय बिजली गिरने से बिहार के अलग-अलग जिलों में 39 और झारखंड में 12 लोगों की मौत हुई है. करीब 82 लाख की आबादी बाढ़ से प्रभावित है. विडंबना है कि उत्तर बिहार और सीमांचल के 13 जिले बाढ़ से प्रभावित हैं, तो 20 जिलों पर सूखे का साया है. दोनों आपदाओं के पीड़ितों को राहत पहुंचाने की चुनौती है. पानी उतरने के बाद बीमारियों का खतरा ऊपर से है.
असम और उत्तर प्रदेश से भी बाढ़ की विभीषिका की खबरें हैं. असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के मुताबिक 33 जिलों में से 20 जिलों में बाढ़ से 38.82 लाख लोग प्रभावित हैं. केंद्रीय जल आयोग के अनुसार बिहार में बूढ़ी गंडक, बागमती, अधवारा समूह, कमला बलान, कोसी, महानंदा और परमान नदी अलग-अलग स्थानों पर खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं. पश्चिम बंगाल के निचले इलाकों में भी भारी बारिश के कारण बाढ़ जैसे हालात बन रहे हैं.
बिहार के बाढ़ प्रभावित इलाकों में राहत और बचाव के काम चल रहे हैं. अभी पीड़ित परिवारों को छह-छह हजार रुपये की मदद सीधे खातों में भेजी जा रही है. इसके बाद खेती से नुकसान का आकलन होगा और किसान फसल सहायता और कृषि इनपुट सब्सिडी के जरिए मदद की जाएगी. आपदा प्रबंधन विभाग के अनुसार सीतामढ़ी, शिवहर, मधुबनी, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, पूर्वी और पश्चिमी चंपारण, सहरसा, सुपौल, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया और  कटिहार जिलों में बाढ़ है. सीतामढ़ी में सबसे ज्यादा 37 लोगों की मौत हुई है.

Sunday, July 28, 2019

राजनीतिक ‘मॉब लिंचिंग’ क्यों?

सन 2014 में मोदी सरकार के आगमन के पहले ही देश में पत्र-युद्ध शुरू हो गया था। चुनाव परिणाम आने के एक साल पहले अमेरिका में कुछ भारतीय राजनेताओं के नाम से चिट्ठी भेजी गई कि नरेन्द्र मोदी को अमेरिका का वीजा नहीं मिलना चाहिए। लंदन के गार्डियन में भारत के कुछ बुद्धिजीवियों के नाम से लेख छपा जिसमें कहा गया कि मोदी आया तो कहर बरपा हो जाएगा। गार्डियन, इकोनॉमिस्ट, वॉशिंगटन पोस्ट और न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में मोदी के आगमन के साथ जुड़े खतरों को लेकर सम्पादकीय टिप्पणियाँ लिखी गईं।

सरकार बनने के एक साल बाद अवॉर्ड वापसी का एक दौर चला और यह जारी है। शुरू में इन पत्रों का जवाब कोई नहीं दे रहा था, पर हाल के वर्षों में जैसे ही ये पत्र सामने आते हैं, कुछ दूसरे लेखकों, कलाकारों, संगीतकारों, इतिहासकारों की तरफ से पत्र जारी होने लगे हैं। कहना मुश्किल है कि आम नागरिक इन पत्रों की तरफ ध्यान देते हैं या नहीं, पर इनसे जुड़ी राजनीति का बाजार गर्म है। आमतौर पर ये पत्र, लेख या टिप्पणियाँ एक खास खेमे से निकल कर आती हैं। यह खेमा लम्बे अरसे तक देश के कला-संस्कृति जगत पर हावी रहा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 49 हस्तियों की ओर से ‘मॉब लिंचिंग’ की घटनाओं को रोकने के लिए लिखे गए पत्र के जवाब में 61 सेलिब्रिटीज ने खुला पत्र जारी किया है। इन्होंने पीएम को लिखे गए पत्र को ‘सिलेक्टिव गुस्सा’ और ‘गलत नैरेटिव’ सेट करने की कोशिश करने वाला बताया है। इसके पहले पीएम को संबोधित करते हुए चिट्ठी में लिखा गया था कि देश भर में लोगों को ‘जय श्रीराम’ के नारे के आधार पर उकसाने का काम किया जा रहा है। साथ ही दलित, मुस्लिम और दूसरे कमजोर तबकों की ‘मॉब लिंचिंग’ को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने की मांग की गई है।