फरवरी-मार्च में होने वाले पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव एक तरह से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए मध्यावधि जनादेश का काम करेंगे। आमतौर पर विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। खासतौर से नब्बे के दशक से राज्यों के स्थानीय नेतृत्व का उभार हुआ है, जिसके कारण राज्य-केंद्रित मसले आगे आ गए हैं। पर इसबार लगता है कि चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाएगी। मणिपुर को छोड़ दें तो शेष चारों राज्यों की राजनीति फिलहाल केंद्रीय राजनीति के समांतर चल रही है। इसकी एक वजह बीजेपी की मोदी-केंद्रित रणनीति भी है।
नरेंद्र मोदी की सन 2014 की सफलता का प्रभाव अब भी कायम है। उसकी सबसे बड़ी परीक्षा इसबार उत्तर प्रदेश में होगी, जो राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। इन चुनावों के राष्ट्रीय महत्व की झलक उस प्रयास में देखी जा सकती है, जो एनडीए के समांतर एक राष्ट्रीय गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है। इन चुनावों के ठीक पहले आम बजट पेश होने वाला है। इसे लेकर विरोधी दलों की लामबंदी उस प्रयास का एक हिस्सा है। यही वजह है कि बजट-विरोधी मुहिम में तृणमूल कांग्रेस और शिवसेना जैसी पार्टियाँ आगे हैं।
नरेंद्र मोदी की सन 2014 की सफलता का प्रभाव अब भी कायम है। उसकी सबसे बड़ी परीक्षा इसबार उत्तर प्रदेश में होगी, जो राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। इन चुनावों के राष्ट्रीय महत्व की झलक उस प्रयास में देखी जा सकती है, जो एनडीए के समांतर एक राष्ट्रीय गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है। इन चुनावों के ठीक पहले आम बजट पेश होने वाला है। इसे लेकर विरोधी दलों की लामबंदी उस प्रयास का एक हिस्सा है। यही वजह है कि बजट-विरोधी मुहिम में तृणमूल कांग्रेस और शिवसेना जैसी पार्टियाँ आगे हैं।