समाजवादी पार्टी ने अपना रजत जयंती समारोह मना लिया और यूपी
में बिहार जैसा महागठबंधन बनाने की सम्भावनाओं को भी जगा दिया, पर उसकी घरेलू कलह कालीन के नीचे दबी पड़ी है। जैसे ही मौका मिलेगा बाहर निकल आएगी। पार्टी साफ़
तौर पर दो हिस्सों में बंट चुकी है। पार्टी सुप्रीमो ने एक को पार्टी दी है और
दूसरे को सरकार। पार्टी अलग जा रही है और सरकार अलग। मुलायम सिंह असहाय खड़े दोनों
को देख रहे हैं। बावजूद बातों के अभी यह मान लेना गलत होगा कि उत्तर प्रदेश
में महागठबंधन बनने वाला है। धीरे-धीरे साफ हो रहा है कि तलवार अब अखिलेश के हाथ में
है।
Monday, November 7, 2016
Sunday, November 6, 2016
क्या एनडीटीवी को एकतरफा घेरा गया?
एनडीटीवी प्रकरण को लेकर यह बात कही जा रही है कि देश की सुरक्षा सर्वोपरि है। उस मामले में कोई समझौता नहीं किया जा सकता। केबल टीवी नेटवर्क्स रूल्स, 1994 में पिछले साल संशोधन करके आतंकी हमलों के समय की लाइव कवरेज को लेकर कड़ाई की व्यवस्था। इस संशोधन को लेकर भी आपत्तियाँ हैं। इसके अलावा एनडीटीवी के प्रसंग में कहा जा रहा है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसके आधार पर कहा जा सके कि देश की सुरक्षा संकट में पड़ गई। इस सिलसिले में वैबसाइट द वायर ने अपने सम्पादकीय में कहा है कि ऐसी पाबंदी, भले ही एक दिन के लिए लगाई जाए, खतरनाक है और इससे राजनेताओं और उनके चुनींदा नौकरशाहों के हाथ में एक हथियार आ जाएगा। द वायर का सम्पादकीय इस सिलसिले में एक दिशा को बताता है वहीं ब्लॉग Angry Lok में अमित सेन के नाम से प्रकाशित आलेख में घटनाक्रम का विस्तार से विवरण देते हुए बताया गया है कि एनडीटीवी को दूसरे चैनलों से अलग करते हुए खासतौर से निशाना बनाया गया है। पढ़ें द वायर का सम्पादकीय और ब्लॉग Angry Log का आलेख
Ever since the chaotic and unseemly media spectacle which unfolded in downtown Mumbai during the 26/11 attacks, government managers, the courts – and journalists – have been especially mindful of the need for restraint and sensitivity in news coverage of ongoing security operations against terrorists. After the Mumbai attack ended, it emerged that some of the terrorists had planned their next moves on the basis of instructions received by telephone from handlers in Pakistan who learned about impending commando deployments from the live coverage several Indian TV channels were providing. Last year, the Modi government amended the Cable TV Network Rules, 1994, to add a new clause, 6(1) p, prohibiting TV channels from carrying content “which contains live coverage of any anti-terrorist operation by security forces, wherein media coverage shall be restricted to periodic briefing by an officer designated by the appropriate Government, till such operation concludes.”
उम्मीद की किरण है जीएसटी
लम्बे अरसे से टलती
जा रही जीएसटी व्यवस्था आखिरकार शक्ल लेने लगी है। पिछले गुरुवार को जीएसटी कौंसिल
ने आम सहमति से टैक्स की चार दरों पर सहमति कायम करके एक बड़ा मुकाम हासिल कर लिया
है। अब जो सबसे जटिल मसला है वह यह कि इस राजस्व के वितरण का फॉर्मूला क्या होगा।
चूंकि इसे 1 अप्रैल 2017 से लागू होना है, इसलिए यह काम जल्द से जल्द निपटाना
होगा। चूंकि इस साल बजट भी अपेक्षाकृत जल्दी आ रहा है, इसलिए यह उत्सुकता बनी है
कि यह सब कैसे होगा।
Friday, November 4, 2016
चिंता का विषय है एनडीटीवी को मिली सजा
एडिटर्स गिल्ड का वक्तव्य |
कुछ लोगों ने इसे विनाशकाले विपरीत बुद्धि बताया है और कुछ ने इसे इमर्जेंसी की पुनरावृत्ति कहा है. पर क्या यह राजनीतिक सवाल है? क्या एनडीटीवी को राजनीतिक कारणों से सजा दी गई है? इस किस्म की पाबंदी अच्छे लक्षण नहीं हैं. एक दिन के लिए ही सही, पर यह रोक चिंता का विषय है. पर चिंता का विषय यह भी है कि मीडिया कवरेज के कारण रक्षा से जुड़ी संवेदनशील विवरणों पर रोशनी पड़ी. मीडिया की जिम्मेदारी भी बनती है. अलबत्ता सरकार को स्पष्ट करना ही चाहिए कि वे कौन सी बातें हैं, जिनके कारण यह कदम उठाया है. मीडिया हाउस कहता है कि हमारी तरफ से गलती नहीं हुई है, पर यह तय कौन करेगा कि गलत हुआ या नहीं. लगता यह है कि चैनल अब अदालत के दरवाजे खटखटाएगा. यही सबसे अच्छा रास्ता है.
Thursday, November 3, 2016
इनोवेटिव विज्ञापन अखबारों की बिगड़ती साख के प्रतीक न बनें
नवभारत टाइम्स, दिल्ली के 3 नवम्बर के अंक में विज्ञापनदाता का जैकेट है।
जैकेट इस तरह डिजाइन किया गया है, जिससे बाहर से देखने पर अख़बार का नाम ‘न्यूट्रीचार्ज टाइम्स’ नजर आता है। अखबारों
के चलन को देखते हुए यह बात विस्मयकारी नहीं लगती, पर अखबारों की बिगड़ती साख पर
यह प्रतीकात्मक टिप्पणी जरूर है। यह कारोबार का मामला है। अखबारों में इनोवेटिव विज्ञापनों के नाम पर ऐसे
विज्ञापनों की भरमार है। इनमें कभी-कभार इनोवेशन नजर आता है, पर जो बात सबसे
ज्यादा दिखाई पड़ती है वह है विज्ञापनों को वहाँ जगह दिलाना जहाँ पहले वे नजर नहीं
आते थे। भारतीय भाषाओं के कुछ अखबारों ने अब सम्पादकीय पेज पर विज्ञापन देने शुरू
कर दिए हैं।
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