नेपाल में संविधान सभा की पुष्टि के बाद धर्म-निरपेक्षता
शब्द चर्चा का विषय बन गया है. खासतौर से भारत में जहाँ यह एक राजनीतिक अवधारणा के
रूप में सामने आ रहा है. उदार, अनुदार, प्रगतिशील, प्रतिक्रियावादी जैसे शब्द हमारे
यहाँ पश्चिम से आए हैं. इनमें धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा भी शामिल है, जिसे लेकर
समूचे दक्षिण एशिया में भ्रम की स्थिति है. भारतीय राजनीति में इसे गैर-हिंदू (गैर-सांप्रदायिक)
अवधारणा के रूप में पेश किया जाता है, वहीं दूसरी ओर इसे मुस्लिम परस्त, छद्म विचार
के रूप में पेश किया जाता है. कुछ लोग मानते हैं कि भारत की धार्मिक बहुलता को
देखते हुए धर्म-निरपेक्षता अनिवार्यता है. पर धर्म-निरपेक्षता को केवल सामाजिक
संतुलनकारी विचार मानने से उसका मतलब अधूरा रह जाता है. इसे सर्वधर्म-समभाव तक
सीमित करना इसके अर्थ को संकुचित बनाता है.
भारत के मुसलमान धर्म-निरपेक्ष राजनीति के पक्षधर हैं, वहीं
पाकिस्तान और बांग्लादेश में धर्म-निरपेक्षता को नास्तिकता का समानार्थी साबित
किया जा रहा है. भारतीय जनता पार्टी इसे ‘छद्म धर्म-निरपेक्षता’ कहती है. नेपाल की
संविधान सभा ने तकरीबन सर्वानुमति से देश को धर्म-निरपेक्ष घोषित कर तो दिया है,
पर लगता है कि वहाँ के राजनीतिक दल जनता को इसका मर्म समझाने में नाकामयाब रहे हैं.
वहाँ की राजनीति एक हद तक भारतीय राजनीति के
प्रभाव में रहती है. इसीलिए वहाँ के मुख्य राजनीतिक दलों ने धर्मनिरपेक्ष राज्य-व्यवस्था
का समर्थन किया है. यदि वहाँ के संविधान में धर्म-निरपेक्षता शब्द नहीं होता तो
क्या होता?