अफगानिस्तान पिछले तकरीबन पैंतीस साल के खूनी इतिहास के बाद एक नए दौर में प्रवेश करने जा रहा है. वह है अपनी सामर्थ्य पर अपने मुस्तकबिल को हासिल करना. इसका मतलब यह नहीं कि वहाँ आतंकी और कट्टरपंथी मार-काट के खत्म होने का समय आ गया है. ऐसा सम्भव नहीं, बल्कि अब एक नया संधिकाल शुरू हो रहा है, जिसमें तय होगा कि यह देश किस राह जाएगा. एक राह मध्ययुग की ओर जाती है और दूसरी भविष्य की आधुनिकता की ओर. इस अंतर्विरोध के साथ तमाम पेच जुड़े हैं, जिनका हल उसके निवासी ही खोजेंगे. अब जब वहाँ से अमेरिकी सेनाओं की पूरी तरह वापसी हो रही है रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए नई ताकतें सामने आ रही हैं. यहाँ भारत की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. उस भूमिका को समझने के लिए हमें कुछ वास्तविकताओं को समझना होगा.
अफगानिस्तान के
राष्ट्रपति डॉ अशरफ ग़नी की भारत यात्रा के वक्त संयोग से दो बातें ऐसी हुईं हैं
जो ध्यान खींचती हैं. उन्हें सोमवार को दिन में एक बजे के आसपास भारत यात्रा के
लिए रवाना होना था. उसके कुछ समय पहले ही खबरें आईं कि सैकड़ों तालिबानियों उत्तरी
प्रांत कुंदुज में फौजी चौकियों पर हमला बोल दिया. काफी बड़ी संख्या में तालिबानी
और सरकारी सैनिक मारे गए. वहाँ अतिरिक्त सेना भेजी गई है. इस अफरातफरी में
राष्ट्रपति की यात्रा कुछ घंटे देर से शुरू हो पाई. दूसरी ओर यह यात्रा नेपाल में
आए भूकम्प की पृष्ठभूमि में हो रही ही है. नेपाल के भूकम्प का अफगानिस्तान से सीधा
सम्बंध नहीं है, पर पुनर्निर्माण से है. खासतौर से भारत और चीन की भूमिका को लेकर.
यह भूमिका अफगानिस्तान में भी है.