दिल्ली के
विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत भारतीय राजनीति में नई ‘सम्भावनाओं की शुरुआत’ थी. पर नेतृत्व
की नासमझी ने उन सम्भावनाओं का अंत कर दिया. अभी यह कहना गलत होगा कि इस विचार का
मृत्युलेख लिख दिया गया है. पर इसे जीवित मानना भी गलत होगा. इसकी वापसी के लिए अब
हमें कुछ घटनाओं का इंतज़ार करना होगा. यह त्रासद कथा पहले भी कई बार दोहराई गई है.
अब इसका भविष्य उन ताकतों पर निर्भर करेगा, जो इसकी रचना का कारण बनी थीं. भविष्य
में उनकी भूमिका क्या होने वाली अभी कहना मुश्किल है. अंतिम रूप से सफलता या
विफलता के तमाम टेस्ट अभी बाकी हैं. इतना साफ हो रहा है कि संकट के पीछे
सैद्धांतिक मतभेद नहीं व्यक्तिगत राग-द्वेष हैं. यह बात इसके खिलाफ जाती है.
दिल्ली में 49
दिन बाद ही इस्तीफा देने के बाद पार्टी की साख कम हो गई थी. वोटर ने लोकसभा चुनाव
में उसे जोरदार थप्पड़ लगाया. पर माफी माँगने के बाद पार्टी दुबारा मैदान में आई
तो सफल बना दिया? दिल्ली में उसे मिली
सफलता के दो कारण थे. एक तो जनता इस प्रयोग को तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहती थी.
दूसरे भाजपा के विजय रथ को भी रोकना चाहती थी. पर जनता बार-बार उसकी नादानियों को
सहन नहीं करेगी. खासतौर से तब जब एक के बजाय दो ‘आप’ सामने होंगी? फिलहाल दोनों निष्प्राण
हैं. और यह नहीं लगता कि दिल्ली की प्रयोगशाला से निकला जादू आसानी से देश के सिर
पर चढ़कर बोलेगा.