गेहूँ या चावल के एक या दो दाने देखकर
पहचान हो सकती है, पर क्या सरकार के काम की पहचान एक महीने में हो सकती है? सन 2004 के मई में जब यूपीए-1 की
सरकार बनी तो पहला महीना विचार-विमर्श में निकल गया. तब भी सरकार के सामने पहली
चुनौती थी महंगाई को रोकना और रोजगार को बढ़ावा देना. इस सरकार के सामने भी वही
चुनौती है. मनमोहन सिंह सरकार के सामने भी पेट्रोलियम की कीमतों को बढ़ाने की
चुनौती थी. उसके पहले वाजपेयी सरकार ने पेट्रोलियम की कीमतों से बाजार के
उतार-चढ़ाव से सीधा जोड़ दिया था, पर चुनाव के ठीक पहले कीमतों को बढ़ने से रोक लिया. वैसे ही जैसे इस बार यूपीए सरकार
ने रेल किराया बढ़ाने से रोका. इसे राजनीति कहते हैं.
Monday, June 30, 2014
Sunday, June 29, 2014
पहला महीना और उम्मीदों के पहाड़
मोदी सरकार का पहला महीना उस
गर्द-गुबार से मुक्त रहा, जिसका अंदेशा सरकार बनने के पहले देश-विदेश के मीडिया
में व्यक्त किया गया था। कहा जा रहा था कि मोदी आए तो अल्पसंख्यकों का जीना हराम
हो जाएगा वगैरह। मोदी के आलोचक आज भी असंतुष्ट हैं। वे मानते हैं कि मोदी ने व्यावहारिक
कारणों से अपने चोले को बदला है, खुद बदले नहीं हैं। बहरहाल सरकार के सामने पाँच
साल हैं और एक महीने के काम को देखकर कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
मोदी सरकार के पहले महीने के बारे में
विचार करने के पहले ही ‘हनीमून पीरियड’, ‘कड़वी गोली’ और ‘अच्छे दिन’ के जुम्ले हवा में थे और अभी हैं। मोदी के समर्थकों से ज्यादा
विरोधियों को उनसे अपेक्षाएं ज्यादा हैं। पर वे आलोचना के किसी भी मौके पर चूकेंगे
नहीं। खाद्य सामग्री की मुद्रास्फीति के आंकड़े जैसे ही जारी हुए, आलोचना की झड़ी
लग गई। इसपर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि ये आँकड़े मई के महीने के हैं, जब यूपीए
सरकार थी। महंगाई अभी बढ़ेगी। सरकारी प्रयासों से सुधार भी हुआ तो उसमें समय
लगेगा। हो सकता है कि सरकार विफल हो, पर उसे विफल होने के लिए भी समय चाहिए। पिछली
सरकार के मुकाबले एक अंतर साफ दिखाई पड़ रहा है। वह है फैसले करना।
Thursday, June 26, 2014
पत्रकारों को निशाना बनाना खतरनाक है
बेहद खतरनाक है पत्रकारों को सजा देना, पढें वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी का विश्लेषण...
Submitted by admin on Thu, 2014-06-26 14:30
पश्चिम एशिया में लोकप्रिय अंग्रेजी चैनल अल-जजीरा के पत्रकारों को मिस्र में सजा सुनाए जाने के बाद दुनिया भर के पत्रकारों की पहली प्रतिक्रिया सदमे और सन्नाटे की है। इतने बड़े स्तर पर पत्रकारों को सजा देने का यह पहला मामला है। बावजूद इसके हमारे देश में इस खबर पर ज्यादा चर्चा नहीं है। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह बात है कि हाल में भारतीय मीडिया के राजनीतिक झुकाव को लेकर उस पर हमले होने लगे हैं। उसकी साख को कायम रखने का सवाल है। दूसरी ओर पिछले तीन-चार साल में पत्रकारों की राजनीतिक और व्यावसायिक भूमिका को लेकर हमारे यहां ही नहीं दुनिया भर में जबर्दस्त टिप्पणियाँ हुईं हैं।
Tuesday, June 24, 2014
भाषाओं को लेकर टकराव का ज़माना गया
मनमोहन
सिंह अंग्रेजी में बोलते थे और नरेंद्र मोदी हिदी में बोलते हैं। मनमोहन सिंह की
विद्वत्ता को लेकर संदेह नहीं, पर जनता को अपनी भाषा में बात समझ में आती है। गृह
मंत्रालय के एक अनौपचारिक निर्देश को लेकर जो बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है उसके
पीछे वह साहबी मनोदशा है, जो अंग्रेजी के सिंहासन को डोलता हुआ नहीं देख सकती। हाल
में बीबीसी हिंदी की वैबसाइट पर एक आलेख में कहा गया था, प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के समय की एक तस्वीर में प्रधानमंत्री के साथ राष्ट्रपति
प्रणब मुखर्जी, अफ़ग़ानिस्तान
के राष्ट्रपति हामिद करज़ई, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ और भूटान के राजा जिग्मे खेसर
नामग्याल वांगचुक एक साथ एक गोल मेज़ के इर्द-गिर्द बैठे हैं।
आलेख
में लेखक ने पूछा है, वे आपस में किस भाषा में बात कर रहे थे? अंग्रेज़ी में नहीं बल्कि हिंदी में। अगर
मोदी की जगह मनमोहन सिंह होते तो ये लोग किस भाषा में बातें कर रहे होते? किसी और भाषा में नहीं, बल्कि अंग्रेज़ी में। मोदी अब तक प्रधानमंत्री
की हैसियत से विदेशी नेताओं से जितनी बार मिले हैं उन्होंने हिंदी भाषा का
इस्तेमाल किया है।
Monday, June 23, 2014
राज्यपालों को लेकर राजनीति न हो तो बेहतर
केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के पहले से ही इस बात की चर्चा शुरू हो गई थी कि सबसे पहले वे राज्यपाल हटाए जाएंगे, जो कांग्रेस पार्टी से सीधे जुड़े हुए हैं. इसके बाद खबर आई कि केंद्रीय गृहसचिव अनिल गोस्वामी ने छह राज्यपालों को सलाह दी है कि वे अपने इस्तीफे दे दें. उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी ने इस्तीफा दे भी दिया. कुछ राज्यपालों ने आना-कानी की है. इन पंक्तियों के छपने तक कुछ और राज्यपालों के इस्तीफे हो सकते हैं. नहीं तो उनकी बर्खास्तगी सम्भव है. सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ की व्यवस्था के बावजूद लगता है केंद्र सरकार ने इन राज्यपालों को हटाने का मन बना लिया है. कांग्रेस पार्टी ने इसे बदले की कार्रवाई बताया है और इस के सांविधानिक पद की गरिमा बनाए रखने का सुझाव दिया है. सच यह है कि इस पद की फजीहत में सबसे बड़ा हाथ उसका ही है. बेहतर होगा कि कांग्रेस और भाजपा इसे संग्राम की शक्ल देने के बजाय स्वस्थ राजनीतिक परम्पराओं को कायम करें.
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