पिछले दिनों दिल्ली में आम
आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के धरने के बाद यह सवाल उठा था कि दफा
144 को तोड़कर धरना देना क्या उचित है? केजरीवाल ने संविधान की रक्षा करने की शपथ ली
थी। धारा 144 का उल्लंघन करना क्या उन्हें शोभा देता है? और उनके
कानून मंत्री सोमनाथ भारती ने जिस तरह दिल्ली के एक इलाके में छापा मारा वह क्या
उचित था? पर अब केजरीवाल सांविधानिक बंधनों से मुक्त हैं।
मुख्यमंत्री का पद छोड़ते ही उन्होंने घोषणा की है कि भ्रष्टाचार-विरोधी अपनी
मुहिम को वे सड़कों पर ले जाएंगे। यानी देश की सड़कों पर अब अफरा-तफरी बढ़ेगी।
व्यवस्था के शुद्धीकरण की दिशा में क्या यह बेहतर कदम होगा?
या अराजकता का नंगा नाच शुरू होने वाला है? इस हफ्ते कुछ ऐसी
घटनाएं देखने को मिली हैं, जो डर पैदा करती हैं। केजरीवाल की तरह आंध्र के
मुख्यमंत्री किरण कुमार भी तेलंगाना के सवाल पर धरने पर बैठे थे। हो सकता है कि वे
भी इस्तीफा देकर अपनी लड़ाई सड़कों पर ले जाने की घोषणा करें। क्या वजह है कि
हमारा संसद पर से विश्वास उठ रहा है और राजनीतिक दल अपनी लड़ाई सड़कों पर ले जाने
की घोषणा कर रहे हैं? और क्या वजह है कि वे संसद और सड़क का
अंतर नहीं कर पा रहे हैं?