इंटरनेट पर ‘पप्पू’ और ‘फेंकू’ दो सबसे ज्यादा प्रचलित
शब्द हैं। जाने-अनजाने भारतीय राजनीति दो नेताओं के इर्द-गिर्द सिमट गई है। परम्परा
से भारतीय जनता पार्टी व्यक्ति केन्द्रित पार्टी नहीं है। और कांग्रेस हमेशा व्यक्ति
केन्द्रित पार्टी रही है। पर इस बार दोनों अपनी परम्परागत भूमिकाओं से हट गईं हैं।
भाजपा का सारा जोर व्यक्तिगत नेतृत्व पर है और कांग्रेस नेतृत्व के इस सीधे टकराव से
भागती नजर आती है। सच बात है कि भारतीय चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की तरह नहीं
होते जहाँ दो राष्ट्रीय नेता आमने-सामने बहस करें। यहाँ संसद का चुनाव होता है, जिसमें
पार्टियाँ महत्वपूर्ण होती हैं। और संसदीय दल अपने नेता का चुनाव करते हैं। वास्तव
में यह आदर्श स्थिति है। ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ तो कांग्रेस का ही नारा था। सच यह भी है कि लाल बहादुर शास्त्री, पीवी नरसिम्हाराव
और मनमोहन सिंह तीनों नेताओं को प्रधानमंत्री बनने का मौका तब मिला जब परिवार का कोई
नेता तैयार नहीं था। पर आज स्थिति पूरी तरह बदली हुई है।
पिछले शुक्रवार को दिल्ली के प्रेस क्लब में राहुल गांधी की हैरतभरी घोषणा ने केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए ही असमंजस पैदा नहीं किया, बल्कि उत्तर भारत के महत्वपूर्ण प्रदेश बिहार की राजनीति में उलटफेर के हालात भी पैदा कर दिए हैं.
पिछले एक साल से आरजेडी नेता लालू यादव ने जगह-जगह रैलियाँ करके प्रदेश की राजनीति में न सिर्फ अपनी वापसी के हालात पैदा कर लिए हैं, बल्कि एनडीए से टूटे जेडीयू का राजनीतिक गणित भी बिगाड़ दिया है.
मई में पटना की परिवर्तन रैली और जून में महाराजगंज के लोकसभा चुनाव में प्रभुनाथ सिंह को विजय दिलाकर लालू ने नीतीश कुमार के लिए परेशानी पैदा कर दी थी.
उस वक़्त लालू प्रसाद ने कहा था कि अगले लोकसभा चुनाव में बिहार की सभी 40 सीटों पर आरजेडी की जीत का रास्ता तैयार हो गया है. वह अतिरेक ज़रूर था, पर ग़ैर-वाजिब नहीं. फिलहाल व्यक्तिगत रूप से लालू और संगठन के रूप में उनकी पार्टी की परीक्षा है.
अध्यादेश का क्या होगा?
दाग़ी जनप्रतिनिधियों की सदस्यता बचाने वाला अध्यादेश अधर में है और अब लगता नहीं कि सरकार इस पर राष्ट्रपति के दस्तख़त कराने पर ज़ोर देगी. अगले हफ़्ते इसके पक्ष में फैसला हुआ भी, तो शायद लालू यादव के लिए देर हो चुकी होगी.
अगले हफ़्ते कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य रशीद मसूद से जुड़े मामले में भी सज़ा सुनाई जाएगी. बहरहाल उनके मामले का राजनीतिक निहितार्थ उतना गहरा नहीं है, जितना लालू यादव के मामले का है.
राहुल गांधी के अध्यादेश को फाड़कर फेंक देने का जितना मुखर स्वागत नीतीश कुमार ने किया है, वह ध्यान खींचता है. क्या नीतीश कुमार को इसका कोई दूरगामी परिणाम नज़र आ रहा है?
लालू यादव राजनीतिक विस्मृति में गर्त में गए तो तीन-चार महत्वपूर्ण सवाल सामने आएंगे. बिहार में आरजेडी एक महत्वपूर्ण ताक़त है. 2010 के विधानसभा के चुनाव में जेडीयू ने 115 सीटों पर जीत हासिल की थी.