Sunday, October 28, 2012

नई मंत्रिपरिषद


Dr Manmohan Singh- Prime Minister

Cabinet Ministers
Vayalar Ravi – Overseas Indian Affairs

Kapil Sibal – Communications & Information Technology

CP Joshi – Road Transport & Highways

Kumari Selja – Social Justice & Empowerment

Pawan Kumar Bansal – Railways

Salman Khursheed – External Affairs

Jairam Ramesh – Rural Development

M Veerappa Moily – Petroleum & Natural Gas

S Jaipal Reddy – Science & Technology and Earth Sciences

Kamal Nath – Urban Development & Parliamentary Affairs

K Rahman Khan- Minority Affairs

Dinsha J Patel- Mines

Ajay Maken – Housing & Urban Poverty Alleviation

MM Pallam Raju – Human Resource Development

Ashwani Kumar – Law & Justice

Harish Rawat- Water Resources

Chandresh Kumari Katoch- Culture

Ministers of State with independent charge

Manish Tewari – Information & Broadcasting

Dr K Chiranjeevi – Tourism

Jyotiraditya Madhavrao Scindia – Power

KH Muniappa – Micro, Small & Medium Enterprises

Bharatsinh Madhavsinh Solanki – Drinking Water & Sanitation

Sachin Pilot – Corporate Affairs

Jitendra Singh – Youth Affairs & Sports

Ministers of state
Dr Shashi Tharoor – Human Resource Development

Kodikunnil Suresh – Labour & Employment

Tariq Anwar – Agriculture & Food Processing Industries

KJ Surya Prakash Reddy – Railways

Ranee Narah – Tribal Affairs

Adhir Ranjan Chowdhury – Railways

AH Khan Choudhury – Health & Family Welfare

Sarvey Sathyanarayana – Road Transport & Highways

Ninong Ering – Minority Affairs

Deepa Dasmunsi – Urban Development

Porika Balram Naik – Social Justice & Empowerment

Dr( Smt) Kruparani Killi – Communications & Information Technology

Lalchand Kataria – Defence

E Ahamed – External Affairs

D Purandeswari – Commerce & Industry

Jitin Prasada – Defence & Human Resource Development

Dr S Jagathrakshakan – New & Renewable Energy

RPN Singh – Home

KC Venugopal – Civil Aviation

Rajeev Shukla – Parliamentary Affairs & Planning

भ्रष्टाचार मूल रोग नहीं, रोग का लक्षण है


यह जो नन्हा है भोला भाला है
खूनीं सरमाए का निवाला है
पूछती है यह इसकी खामोशी
कोई मुझको बचाने वाला है!

अली सरदार ज़ाफरी की ये पंक्तियाँ यों ही याद आती हैं। पिछले कुछ साल से देश में आग जैसी लगी है। लगता है सब कुछ तबाह हुआ जा रहा है। घोटालों पर घोटाले सामने आ रहे हैं। हमें लगता है ये घोटाले ही सबसे बड़ा रोग है। गहराई से सोचें तो पता लगता है कि ये घोटाले रोग नहीं रोग का एक लक्षण है। रोग तो कहीं और है।

तीन-चार महीने पहले हरियाणा और पंजाब की यात्रा के दौरान सड़क के दोनों ओर खेतों लगी आग की ओर ध्यान गया। यह आग किसानों ने खुद अपने खेतों में लगाई थी। हमारे साथ एक कृषि विज्ञानी भी थे। उनका कहना था कि पुरानी फसल को साफ करने के इस तरीके के खिलाफ सरकार तमाम प्रयास करके हार गई है। इसे अपराध घोषित किया जा चुका है, अक्सर किसानों के खिलाफ रपट दर्ज होती रहती हैं, पर किसान प्रतिबंध के बावजूद धान के अवशेष जलाकर न सिर्फ पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं, बल्कि अपने खेत की उर्वरा शक्ति को कम करते हैं। कृषि विभाग खेत में फसलों के अवशेष को आग लगाने के खिलाफ जागरूकता अभियान भी चलाता है लेकिन इसके किसानों को बात समझ में नहीं आती। हमारे साथ वाले कृषि वैज्ञानिकों का कहना था कि पुआल जैविक खाद के रूप में भी तब्दील की जा सकती है जिससे जमीन की आवश्यकता की पूर्ति की जा सकती है। लेकिन जागरूकता के अभाव में किसान अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। किसानों का कहना है कि धान की कटाई के बाद किसान गेहूं, सरसों, बरसीम लहसुन, टमाटर, गोभी आदि फसलों की बुआई करनी है। कंबाईन से धान कटाई के बाद काफी पुआल खेत में रह जाते हैं। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि इन अवशेषों में ऐसे जैविक पदार्थ होते हैं, जो खाद का काम करते हैं। इस पर कुछ किसान कहते हैं कि धान के अवशेष रहने पर गेहूं की फसल तो उगाई जा सकती है, लेकिन सब्जियाँ नहीं उगाई जा सकतीं।

फेरबदल माने, ढाक के तीन पात

केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ, इतनी बात तो सही साबित हुई, पर न तो इसमें राहुल गांधी दिखाई पड़े और न राहुल फैक्टर। अलबत्ता कांग्रेस की परम्परागत समझ ज़रूर दिखाई पड़ी, सेटिंग्स। आंध्र को सेट करने की कोशिश। वर्तमान को साधे रखने की कोशिश, जोखिम से बचने की कोशिश। कई बार कांग्रेस काफी समझदार लोगों की पार्टी नज़र आती है, फिर अचानक लगता है कि ऐसा कुछ नहीं है। मंत्रिमंडल में बदलाव से जिसने भी जो उम्मीदें लगाईं थीं वे गलत साबित हुईं, सिवा उनके जिन्हें इससे कुछ मिलना था या खोना था।

पार्टी नेतृत्व के सामने यह आखिरी मौका है, जब पार्टी की छवि बनाई जा सकती है। सवाल है कैसी छवि? सामान्य व्यक्ति के जीवन में फर्क नहीं पड़ा तो सारी छवियाँ बेकार हैं। जगनमोहन रेड्डी इसी कांग्रेस संस्कृति से निकले हैं और उन्होंने कांग्रेस को परेशान कर रखा है।  पर अगले लोकसभा चुनाव में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, छत्तीसगढ़ और झारखंड का हिन्दी इलाका महत्वपूर्ण साबित होगा। यहाँ कांग्रेस खुद को लगातार अलोकप्रिय कर रही है। इन राज्यों में पार्टी के पास संगठन नहीं है। शेष राज्यों में कहाँ है, पता नहीं। कांग्रेस को दुबारा सत्ता मिली तो टीना फैक्टर (देयर इज़ नो ऑल्टरनेटिव) काम करेगा।

नीति के स्तर पर सरकार खाद्य सुरक्षा कानून, महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना, शिक्षा का अधिकार और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम के अंतर्गत भारी राशि खर्च करने जा रही है, पर कोई दावा नहीं कर सकता कि गरीबों तक वह ठीक ढंग से पहुँच पाएगी। भ्रष्टाचार महत्वपूर्ण मसला है या नहीं, पर सरकार सिटिजन चार्टर और ह्विसिल ब्लोवर कानून पास नहीं करा पाई है।

राहुल गांधी राजनीति में पूरे वेग के साथ हिस्सा लेने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं। केवल कुर्ता पाजामा पहनने और कुछ गरीबों की कुटिया में भोजन करने से काम नहीं होगा। इससे मीडिया में जगह मिल जाएगी, पर जनता की बेचैनी और बढ़ेगी। पार्टी के पास संगठन नहीं है और न कर्मठ कार्यकर्ता हैं। नेता बनने का फॉर्मूला है परिवार की नज़र में चढ़ना।

हालांकि शपथ की भाषा यह तय नहीं करती कि किसका जनता से जुड़ाव कितना है, पर आप एक नज़र डालें तो नेताओं की शक्लो-सूरत और ज़मीन से जुड़ाव का पता लगता है। गुजरात के दिनशा पटेल, बंगाल की दीपा दासमुंशी, आंध्र के बलराम नायक, अरुणाचल के निनांग इरिंग और राजस्थान के लालचंद कटारिया ने हिन्दी में शपथ ली। बलराम नायक का अटक-अटक कर हिन्दी पढ़ना भी नहीं अखरा। इससे इनका ज़मीन से जुड़ाव दिखाई पड़ता है। दिल्ली के अजय माकन अपेक्षाकृत ज़मीनी नेता हैं, पर उन्होंने और अश्विनी कुमार और मनीष तिवारी ने अंग्रेजी में शपथ ली। अजय माकन हो सकता है कि मणिशंकर अय्यर को बताना चाहते हों कि मुझे अंग्रेज़ी आती है। इनके मुकाबले हरीश रावत और तारिक अनवर का हिन्दी में शपथ लेना उनके जनाधार को भी बताता है। उत्तराखंड में कांग्रेस-विरोधी भी हरीश रावत के सिर्फ इसलिए प्रशंसक हैं, क्योंकि वे जनाधार वाले नेता हैं। पर नेतृत्व इन बातों को नहीं समझता, इससे पार्टी की दशा और दिशा का पता लगता है।

अब देखना यह है कि राहुल गांधी किस रूप में राजनीति में सक्रिय होते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि वे मंत्री बने तो बहुत जल्द किसी विवाद में फँस सकते हैं। पता नहीं ऐसा राहुल सोचते हैं या नहीं, पर यह सोच नकारात्मक है। इस सरकार में जयराम रमेश जैसे मंत्री भी हैं, जो वामपंथी नहीं हैं, पर अनेक वामपंथियों से बेहतर और सामान्य कांग्रेसी से ज्यादा साफ-सुथरे हैं। वैचारिक और सामाजिक आधार के लिहाज से कांग्रेस इस देश की सहज पार्टी है, पर उसे चलाने वाले  देश के सहज नेता नहीं है। जनाधार वाले नेता अब न कांग्रेस के पास हैं और न भाजपा के पास हैं। 

Saturday, October 27, 2012

इससे मीडिया पर पाबंदियों की माँग बढ़ेगी

नवीन जिन्दल-ज़ी न्यूज़ और  सलमान खुर्शीद-इंडिया टुडे प्रकरण ने तमाम और बातों के अलावा इस बात को रेखांकित किया है कि मीडिया के समाचार और कारोबार विभाग मिलकर काम करने लगे हैं, और इसके दुष्परिणाम सामने आएंगे। ये दुष्परिणाम कवरेज के रूप में ही दिखाई नहीं पड़ेंगे, बल्कि उन लोगों को हैंडल मिलेगा जो मीडिया पर सरकारी नियंत्रण लागू करना चाहते हैं।  कुछ महीने पहले कांग्रेस की सांसद मीनाक्षी नटराजन इस आशय का प्राइवेट बिल संसद में ला रहीं थीं। एक अर्से से जस्टिस मार्कंडेय काटजू मीडिया पर पाबंदियों का समर्थन कर रहे हैं। इसका मतलब है अंततः जनता के जानकारी पाने के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चोट लगेगी। इसके ज़िम्मेदार मीडिया-स्वामी, पत्रकारों का ज़रूरत से ज़्यादा महत्वाकांक्षी तबका  और सरकार है। हम यह भूल रहे हैं कि यह स्वतंत्रता जनता की है, पर कानूनी भाषा में यह शेयर होल्डर और मीडिया के स्वामी की है। पत्रकार इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते थे। उनका प्रशिक्षण इस बात के लिए था कि वे समाज के व्यापक हित में काम करते हैं, पर व्यावहारिक बात यह है कि वे अपने निजी हित में काम करते हैं और उनका उद्देश्य अपने स्वामी की हित-रक्षा है। यह सामाजिक अंतर्विरोध है। 

इस संकट के लिए मीडिया भी ज़िम्मेदार है। उसने यह संकट खुद निमंत्रित किया है। इसकी वजह उसका कारोबारी विस्तार है। पर यह कारोबार जूता पॉलिश का कारोबार नहीं है। इसके मैनेजरों को पता होना चाहिए कि वे जिस साख को बेच रहे हैं वह कई बरसों में हासिल की गई है। अभी तक हम जिस मुख्यधारा के मीडिया में काम करते रहे हैं उसमें एक संस्थान के भीतर कई गेटकीपर होते थे। उन द्वारपालों के मार्फत कई प्रकार की बातें सामने आने से रह जाती थीं। कारोबार और कर्म की विसंगति आज से नहीं हमेशा से है। पत्रकारीय व्यवस्था में जो लिहाज कल तक था, वह भी खत्म हो गया। ज़रूरत उस परम्परा को आगे बढ़ाने की थी, पर हुआ उसका उल्टा। लगभग समूचा मीडिया अपनी तारीफ में जब बातें करता है तो मूल्यों-मानदंडों और सत्कर्मों का ज़बर्दस्त ढिंढोरा पीटता है। 

सबसे खतरनाक बात है इस मसले पर मीडिया की चुप्पी। किसी को यह ज़रूरी नहीं लगता कि इस विषय पर लिखा जाए। पारदर्शिता पूरी तरह दो रोज़ में कायम नहीं होती, पर ऐसी अपारदर्शिता के क्या माने हैं? बहरहाल हिन्दू ने 27 अक्टूबर 2012 के अंक में इस विषय पर सम्पादकीय लिखकर इस चुप्पी को तोड़ा है। इसके पहले सपन दासगुप्ता ने पायनियर में लेख लिखकर इस मामले को उठाया था। भारतीय प्रिंट मीडिया में इस मामले का उतना ज़िक्र नहीं है, जितना इंटरनेट पर है। इसकी एक वज़ह यह है कि नेट पर मुफ्त का मीडिया है और किसी किस्म का फिल्टर या गेटकीपर न होने पर कुछ भी प्रकाशित हो जाता है, पर फर्स्टपोस्ट ने इस मामले में सबसे ज्यादा रपटें प्रकाशित की हैं। नीचें पढ़ें हिन्दू के सम्पादकीय का एक अंशः-


There is only one word for promising to back off on an investigation in exchange for lucrative advertising revenue: blackmail. And that is the essence of Mr. Jindal’s allegation against Zee. Of course, the hidden camera recordings, which seem to show the two editors making such an assurance, need to be assessed on many counts, including authenticity and the context in which the conversations took place. The Zee editors have denied all wrongdoing, claiming they were victims of an attempt to bribe them, implying they played along because their channels were conducting their own sting operation. But it boggles the mind why the two should have been discussing an advertising contract with executives of Jindal Steel and Power Ltd at a time when their channels were running a series of investigations on the company’s coal block allocations....Such illegal and unethical practices only serve to strengthen the voices that would like some control over the media in the form of external regulation. It was only this May that a private member’s bill seeking to regulate the working of the press and the electronic media was introduced in Parliament. 

हिन्दू में सम्पादकीय-मीडिया कहाँ हैं तेरे वाण?
बढ़ता टकराव फर्स्ट पोस्ट की रपट
भारतीय मीडिया के लिए एक मौका-फर्स्ट पोस्ट की रपट
नवीन जिन्दल और मीडिया-फर्स्ट पोस्ट की एक और रपट
राहुल गांधी की सहयोगी मीनाक्षी नटराजन के निजी विधेयक को लेकर उपजा विरोध
भारतीय मीडिया पर अमर्त्य सेन
न्यूयॉर्क टाइम्स के ब्लॉग इंडिया इंक में भ्रष्टाचार पर कथा

Friday, October 26, 2012

कांग्रेस को रक्षात्मक नहीं, आक्रामक बनना चाहिए

नितिन गडकरी संकट में आ गए हैं। उन्हें अब फिर से अध्यक्ष बनाना मुश्किल होगा। उनके लिए यह संकट केजरीवाल ने पैदा किया या कांग्रेस ने या पार्टी के भीतर से ही किसी ने यह अभी समझ में नहीं आएगा, पर राजनीति का खेल चल रहा है। हमारी सब से बड़ी उपलब्धि है लोकतंत्र। और लोकतंत्र को दिशा देने वाली राजनीति। पर राजनीति के अंतर्विरोध लगातार खुल रहे हैं। मीडिया के शोर पर यकीन करें तो लगता है कि आसमान टूट पड़ा है, पर इस शोर-संस्कृति ने मीडिया को अविश्वसनीय बना दिया है। हम इस बात पर गौर नहीं कर रहे हैं कि दुनिया के नए देशों में पनप रहे लोकतंत्रों में सबसे अच्छा और सबसे कामयाब लोकतंत्र हमारा है। इसकी सफलता में राजनीतिक दलों और मतदाताओं दोनों की भूमिका है। बेशक दोनों में काफी सुधार की सम्भावनाएं हैं। फिलहाल कांग्रेस पार्टी पर एक नज़र डालें जो आने वाले समय के लिए किसी बड़ी रणनीति को तैयार करती दिखाई पड़ती है। 

हिमाचल और गुजरात के चुनाव सिर पर हैं और कांग्रेस पार्टी के सामने राजनीतिक मुहावरे खोजने और क्रमशः बढ़ती अलोकप्रियता को तोड़ निकालने की चुनौती है। अरविन्द केजरीवाल ने फिलहाल कांग्रेस और भाजपा दोनों को परेशान कर रखा है। भाजपा ने नितिन गडकरी को दुबारा अध्यक्ष बनाने के लिए संविधान में संशोधन कर लिया था, पर केजरीवाल ने फच्चर फँसा दिया है। शुरू में जो मामूली बात लगती थी वह गैर-मामूली बनती जा रही है। 4 नवम्बर को हिमाचल में मतदान है और वीरभद्र सिंह ने मीडिया से पंगा मोल ले लिया है। कांग्रेस ने फौरन ही माफी माँगकर मामले को सुलझाने की कोशिश की है, पर चुनाव के मौके पर रंग में भंग हो गया। हिमाचल में सोनिया, राहुल और मनमोहन सिंह तीनों अभियान पर निकले हैं। शायद चुनाव के मौके पर कांग्रेस के लिए असमंजस पैदा करने के लिए ही वीरभद्र को उकसाया गया होगा, पर उन्हें उकसावे में आने की ज़रूरतही क्या थी? दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों की सूचियाँ देर से ज़ारी हुईं है। सोनिया गांधी के जवाब में नरेन्द्र मोदी भी हिमाचल आ रहे हैं। हिमपात होने लगा है। अचानक बढ़ी ठंड ने प्रदेश के बड़े हिस्से को आगोश में लेना शुरू कर दिया है। हिमाचल के परिणाम से बहुत कुछ हासिल होने वाला नहीं है, पर कांग्रेस को इस समय छोटी-छोटी और प्रतीकात्मक सफलताएं चाहिए। हिमाचल में भी और उससे ज्यादा गुजरात में। हिमाचल और गुजरात दोनों जगह मुकाबला सीधा है। कांग्रेस और भाजपा के बीच। इस वक्त दोनों पार्टियाँ विवादों के घेरे में हैं। इन दो राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियाँ नहीं हैं, पर अगले लोकसभा चुनाव का सबसे बड़ा सवाल है कि क्या राष्ट्रीय दलों की पराजय होने वाली है।