सरकार पहले कहती है कि हमें समय दीजिए। अन्ना के अनशन की घोषणा के बाद जानकारी मिलती है कि शायद मंगलवार को विधेयक आ जाएगा। शायद सदन का कार्यकाल भी बढ़ेगा। यह सब अनिश्चय की निशानी है। सरकार को पहले अपनी धारणा को साफ करना चाहिए।
लोकपाल पर यह पहली सर्वदलीय बैठक नहीं थी। इसके पहले 3 जुलाई को भी एक बैठक हो चुकी थी जब संयुक्त ड्राफ्टिंग समिति की बैठकों के बाद सरकार ने अपना मन लगभग बना लिया था। अगस्त के अंतिम सप्ताह में संसद की इच्छा पर चर्चा हुई तब भी प्रायः सभी दलों की राय सामने आ गई थी। बुधवार की बैठक में पार्टियों के रुख में कोई बड़ा बदलाव नहीं था। बहरहाल 1968 से अब तक के समय को जोड़ें तो देश की संसदीय राजनीति के इतिहास में किसी भी कानून पर इतना लम्बा विचार-विमर्श नहीं हुआ होगा। यह अच्छी बात है और खराब भी। खराब इसलिए कि केवल इस कानून के कारण देश का, मीडिया का और संसद का काफी समय इस मामले पर खर्च हो रहा है जबकि दूसरे मामले भी सामने खड़े हैं। अर्थ-व्यवस्था संकट में है, औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है, यूरो और डॉलर के झगड़े में रुपया कमजोर होता जा रहा है। जनता को महंगाई और बेरोजगारी सता रही है। ऐसे में पार्टियाँ सत्ता की राजनीति के फेर में फैसले पर नहीं पहुँच पा रहीं हैं।
लोकपाल पर यह पहली सर्वदलीय बैठक नहीं थी। इसके पहले 3 जुलाई को भी एक बैठक हो चुकी थी जब संयुक्त ड्राफ्टिंग समिति की बैठकों के बाद सरकार ने अपना मन लगभग बना लिया था। अगस्त के अंतिम सप्ताह में संसद की इच्छा पर चर्चा हुई तब भी प्रायः सभी दलों की राय सामने आ गई थी। बुधवार की बैठक में पार्टियों के रुख में कोई बड़ा बदलाव नहीं था। बहरहाल 1968 से अब तक के समय को जोड़ें तो देश की संसदीय राजनीति के इतिहास में किसी भी कानून पर इतना लम्बा विचार-विमर्श नहीं हुआ होगा। यह अच्छी बात है और खराब भी। खराब इसलिए कि केवल इस कानून के कारण देश का, मीडिया का और संसद का काफी समय इस मामले पर खर्च हो रहा है जबकि दूसरे मामले भी सामने खड़े हैं। अर्थ-व्यवस्था संकट में है, औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है, यूरो और डॉलर के झगड़े में रुपया कमजोर होता जा रहा है। जनता को महंगाई और बेरोजगारी सता रही है। ऐसे में पार्टियाँ सत्ता की राजनीति के फेर में फैसले पर नहीं पहुँच पा रहीं हैं।