एक चैनल से फोन आया कि कल रात रामदेव-मंडली पर पुलिस-छापे के बाबत आपकी क्या राय है? फिर पूछा, आप रामदेव के फॉलोवर तो नहीं हैं? उन्हें बताया कि फॉलोवर नहीं, पर विरोधी भी नहीं हैं। चैनल ने पूछा रामदेव प्रकरण पर हम बहस करना चाहते हैं। आप आएंगे? वास्तव में ऐसे मौके आएं तो बहस में शामिल होना चाहिए। अपने विचार साफ करने के अलावा दूसरे लोगों तक पहुँचाने का यह बेहतर मौका होता है। यों भी हमारा समाज मौज-मस्ती का शिकार है। वह अपने मसलों पर ध्यान नहीं देता।
क्या राष्ट्रीय प्रश्नों पर टीवी-बहस हो सकती है? उन लोगों को कोई दिक्कत नहीं जो सीधी राय रखते हैं। इस पार या उस पार। मैदान में या तो बाबा भक्त हैं या विरोधी। पर राष्ट्रीय बहस के लिए ठंडापन चाहिए। हमारे मीडिया महारथी तथ्यों से परिचित होने के पहले धड़ा-धड़ विचार व्यक्त करना पसंद करते हैं। नुक्कड़ों और चौराहों की तरह। लगातार चार-चार दिन तक एक ही मसले पर धाराप्रवाह कवरेज से सामान्य व्यक्ति असहज और असामान्य हो जाता है। आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा जनांदोलन। दिल्ली के रामलीला मैदान पर जालियांवाला दोहराया गया। रामदेव ज़ीरो से हीरो। ऐसा लाइव नॉन स्टॉप सुनाई पड़े तो हम बाकी बातें भूल जाते हैं। मीडिया, खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दूसरों का पर्दापाश करता है। अपनी भूमिका पर बात नहीं करता।