Saturday, April 16, 2011

राजनीति और सुराज के द्वंद



अन्ना हजारे के समानांतर देश में दो और गतिविधियाँ चल रहीं हैं, जिनका हमारे लोकतंत्र से वास्ता है। एक है पाँच राज्यों में विधानसभा के चुनाव और दूसरे टू-जी, सीडब्ल्यूजी और आदर्श सोसायटी जैसे मामलों कर कानूनी कारवाई। देश में लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था को लेकर कई कोणों से सवाल उठे हैं। अन्ना हजारे ने राजनैतिक प्रतिष्ठान पर हमला करके बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। अन्ना ने कहा कि लोग सौ के नोट, साड़ी और दारू की एक बोतल पर वोट देते हैं। मैं नहीं लड़ पाऊँगा चुनाव। इसपर दिग्विजय सिंह ने सवाल पूछा है कि क्या सारे वोटर बेईमान हैं? संयोग है कि विकीलीक्स के सौजन्य से इन्हीं दिनों संसदीय कैश फॉर वोट का मसला भी उठा है। तमिलनाडु के चुनाव में पार्टियों ने जनता को टीवी, मिक्सर-ग्राइंडर, वॉशिंग मशीन से लेकर मंगलसूत्र तक देने का वादा किया है। एक ओर  सिविल सोसायटी बनाम राजनीति का शोर है, दूसरी ओर सब भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारेपुराण का अखंड पाठ चल रहा है, हम सब चोर हैं के सम्पुट के साथ। देश का मस्त-मीडिया विश्व कप क्रिकेट, मोमबत्तियाँ सुलगाती सिविल सोसायटी और आईपीएल को एक साथ निपटा रहा है।

Friday, April 15, 2011

कांग्रेस और भगत सिंह


कांग्रेस संदेश के मुखपत्र कांग्रेस संदेश के मार्च अंक में भगत सिंह और राजगुरु की जातीय पृष्ठभूमि का उल्लेख किए जाने पर अनेक लोगों ने विरोध व्यक्त किया है। श्री गिरिजेश कुमार ने जो विचार व्यक्त किए हैं, यहाँ पेश हैं।

ये शहीदों का अपमान है

जिन्होंने अपना जीवन, अंग्रेजी साम्राज्य  से मुक्ति के लिए देश को समर्पित कर दिया उन्हें जाति जैसी संकीर्ण सोच की मानसिकता में बांधना कहाँ तक उचित है? वह भी उस राजनीतिक पार्टी के द्वारा जो राष्ट्रीय पटल पर देश का नेतृत्व कर रही है, या यों कहें कि जिसकी सरकार केन्द्र में है| भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे देश के महानायकों की जाति का उल्लेख कर कांग्रेस ने अपना असली चेहरा उजागर कर दिया है| हालाँकि देश में एक के बाद एक भ्रष्टाचार के तमाम मामले उजागर होने के बाद लोगों का विश्वास केन्द्र सरकार और कांग्रेस से पहले ही उठ चुका था लेकिन इस घृणित  कदम के बाद रही सही कसर भी समाप्त हो गयी|  सवाल है जब देश का नेतृत्व  करने वाली राजनीतिक पार्टी देश के लिए शहीद हुए शहीदों का अपमान करती है तो फिर आम आदमी से क्या अपेक्षा की जाए?

दरअसल कांग्रेस  यह भूल गयी कि जिस आजाद भारत की दुहाई देकर वह आज शासन सत्ता का सुख भोग रही है उसकी बुनियाद, भगत सिंह जैसे कई शहीदों के खून से लिखी गई है| ये लोग किसी जाति, धर्म या संप्रदाय से सम्बन्ध नहीं रखते थे, इनकी जाति मानवता थी और इंसानियत धर्म|  इन्होने कागज के चन्द टुकड़ों के लिए अपने ईमान को नहीं बेचा| लालच के समंदर में फँसकर निजीहित के लिए देशहित की बलि चढ़ाने वाली कांग्रेस पार्टी और उसके करता धर्ता को  भगत सिंह जैसे महानायकों पर जाति का ठप्पा लगाने  का अधिकार किसने दिया?

Monday, April 11, 2011

हमें भी मध्य-वर्गीय क्रांति चाहिए


शहरी नखलिस्तान नहीं, खुशहाल हिन्दुस्तान
अन्ना हजारे के आंदोलन को इतनी सफलता मिलेगी, इसकी कल्पना बहुत से लोगों ने नहीं की थी। इतिहास की विडंबना है कि कई बार पूर्वानुमान गलत साबित होते हैं। जयप्रकाश नारायण के 1974 के आंदोलन के डेढ़-दो साल पहले लखनऊ के अमीनाबाद में गंगा प्रसाद मेमोरियल हॉल में जेपी की एक सभा थी, जिसमें पचासेक लोग भी नहीं थे। और आंदोलन जब चरम पर था, तब लखनऊ विश्वविद्यालय के कला संकाय के बराबर वाले बड़े मैदान में हुई सभा में अपार भीड़ थी। जंतर-मंतर के पास हुई रैली के कुछ महीने पहले इसी तरह की रैली, इसी माँग को लेकर हुई थी। उसका नेतृत्व अन्ना हजारे नहीं कर रहे थे। उस रैली का सीधा प्रसारण मीडिया ने नहीं किया। केवल एक धार्मिक चैनल पर उसका प्रसारण हुआ। अन्ना हजारे और युवा वर्ग की जबर्दस्त भागीदारी से बात बदल गई। हालांकि मसला करीब-करीब वही था।

Sunday, April 10, 2011

विज्ञापनों में झलकता रंग-रंगीला देश



पिछले एक साल में टी-ट्वेंटी वर्ल्ड कप, विश्व कप फुटबॉल, कॉमनवैल्थ गेम्स और विश्व कप क्रिकेट की तुलना करें तो क्रिकेट सबसे भारी बैठेगा। कवरेज के लिहाज से, दर्शकों की संख्या और कमाई के लिहाज से भी। चूंकि टीम चैम्पियन हो गई है इसलिए इस विश्व कप से बनी लहरें दूर तक जाएंगी। सोने पे सुहागा आईपीएल करीब है। विश्व कप के फाइनल और सेमी फाइनल मैच मीडिया के लिहाज से तमाम बातों के लिए याद किए जाएंगे, पर सबसे खास बात थी, इन दोनों मैचों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर लगी पाबंदी।


Friday, April 8, 2011

समस्या नहीं समाधान बनिए




अन्ना हजारे के अनशन ने अचानक सारे देश का ध्यान खींचा है। यही अनशन आज से दो साल पहले होता तो शायद इसे इतनी प्रसिद्धि न मिली होती। देश का राजनैतिक-सामाजिक माहौल एजेंडा तय करता है। पिछले एक साल में भ्रष्टाचार से जुड़े मसले तमाम मसले सामने आने के बाद लोगों को नियम-कानूनों का मतलब समझ में आया है। जो भी पकड़-धकड़ हुई है वह इसी कानून-व्यवस्था के तहत हुई है। और जो कुछ सम्भव है वह इसी व्यवस्था के तहत होगा। इसलिए दो बातों को समझना चाहिए। एक, यह आंदोलन व्यवस्था विरोधी नहीं है, बल्कि व्यवस्था को पुष्ट करने वाला है। दूसरे यह देश की सिविल सोसायटी के विकसित होने की घड़ी है। अरविन्द केजरीवाल, किरन बेदी, संतोष हेगडे और प्रशांत भूषण जैसे लोग इसी व्यवस्था का हिस्सा रहे हैं और आज भी हैं।