आज एक अखबार में मिस्र के बारे में छपे आलेख को पढ़ते समय मेरी निगाहें इस बात पर रुकीं कि मिस्र का यह जनाक्रोश भूमंडलीकरण की पराजय का प्रारम्भ है। मुझे ऐसा नहीं लगता। मैं जनाक्रोश और उसके पीछे की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं से सहमत हूँ और मानता हूँ कि ऐसे जनांदोलन अभी तमाम देशों में होंगे। भारत में भी किसी न किसी रूप में होंगे। बुनियादी फर्क सिर्फ वैश्वीकरण की मूल अवधारणा को लेकर है।
आलेख के लेखक की निगाह में वैश्वीकरण अपने आप में समस्या है। मेरी निगाह में वैश्वीकरण समस्या नहीं एक अनिवार्य प्रक्रिया है। और उसमें ही अनेक समस्याओं के समाधान छिपे हैं। इससे तो गुज़रना ही है। वैश्वीकरण के बगैर तो समाजवाद भी नहीं आएगा। कार्ल मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद के लिए भी वैश्वीकरण अनिवार्य है। इस वैश्वीकरण को पूँजीवादी विकास और पूँजी का वैश्वीकरण लीड कर रहा है। पूँजीवाद और पूँजी के वैश्विक विस्तार पर आपत्ति समझ में आती है, पर संयोग से दुनिया में इस समय आर्थिक गतिविधियाँ पूँजी के मार्फत ही चल रहीं हैं। मिस्र में हुस्नी मुबारक की तानाशाही सरकार हटी भी तो जो व्यवस्था आएगी वह वर्तमान वैश्विक संरचना से अलग होगी यह मानने की बड़ी वजह दिखाई नहीं पड़ती।
आलेख के लेखक की निगाह में वैश्वीकरण अपने आप में समस्या है। मेरी निगाह में वैश्वीकरण समस्या नहीं एक अनिवार्य प्रक्रिया है। और उसमें ही अनेक समस्याओं के समाधान छिपे हैं। इससे तो गुज़रना ही है। वैश्वीकरण के बगैर तो समाजवाद भी नहीं आएगा। कार्ल मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद के लिए भी वैश्वीकरण अनिवार्य है। इस वैश्वीकरण को पूँजीवादी विकास और पूँजी का वैश्वीकरण लीड कर रहा है। पूँजीवाद और पूँजी के वैश्विक विस्तार पर आपत्ति समझ में आती है, पर संयोग से दुनिया में इस समय आर्थिक गतिविधियाँ पूँजी के मार्फत ही चल रहीं हैं। मिस्र में हुस्नी मुबारक की तानाशाही सरकार हटी भी तो जो व्यवस्था आएगी वह वर्तमान वैश्विक संरचना से अलग होगी यह मानने की बड़ी वजह दिखाई नहीं पड़ती।