Tuesday, September 21, 2010

टकराव के दौर में मीडिया

इस हफ्ते भारतीय मीडिया पर जिम्मेदारी का दबाव है। 24 सितम्बर को बाबरी मस्जिद मामले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आएगा। उसके बाद कॉमनवैल्थ गेम्स शुरू होने वाले हैं, जिन्हें लेकर मस्ती कम अंदेशा ज्यादा है। पुरानी दिल्ली में इंडियन मुज़ाहिदीन ने गोली चलाकर इस अंदेशे को बढ़ा दिया है। कश्मीर में माहौल बिगड़ रहा है। नक्सली हिंसा बढ़ रही है और अब सामने हैं बिहार के चुनाव। भारत में मीडिया, सरकार और समाज का द्वंद हमेशा रहा है। इतने बड़े देश के अंतर्विरोधों की सूची लम्बी है। मीडिया सरकार को कोसता है, सरकार मीडिया को। और दर्शक या पाठक दोनों को।

न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन ने अयोध्या मसले को लेकर पहले से सावधानी बरतने का फैसला किया है। फैसले की खबर देते समय साथ में अपनी राय देने या उसका निहितार्थ निकालने की कोशिश नहीं की जाएगी। बाबरी विध्वंस की फुटेज नहीं दिखाई जाएगी। इसके अलावा फैसला आने पर उसके स्वागत या विरोध से जुड़े विज़ुअल नहीं दिखाए जाएंगे। यानी टोन डाउन करेंगे। हाल में अमेरिका में किसी ने पवित्र ग्रंथ कुरान शरीफ को जलाने की धमकी दी थी। उस मामले को भी हमारे मीडिया ने बहुत महत्व नहीं दिया। टकराव के हालात में मीडिया की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। मीडिया ने इसे समझा यह अच्छी बात है।  

6 दिसम्बर 1992 को देश में टीवी का प्रसार इस तरीके का नहीं था। प्राइवेट चैनल के नाम पर बीबीसी का मामूली सा प्रसारण केबल टीवी पर होता था। स्टार और एमटीवी जैसे चैनल थे। सब अंग्रेजी में। इनके बीच ज़ी का हिन्दी मनोरंजन चैनल प्रकट हुआ। अयोध्या ध्वंस के काफी बाद भारतीय न्यूज़ चैनल सामने आए। पर हम 1991 के इराक युद्ध की सीएनएन कवरेज से परिचित थे, और उससे रूबरू होने को व्यग्र थे। उन दिनों लोग न्यूज़ ट्रैक के कैसेट किराए पर लेकर देखते थे। आरक्षण-विरोधी आंदोलन के दौरान आत्मदाह के एक प्रयास के विजुअल पूरे समाज पर किस तरह का असर डालते हैं, यह हमने तभी देखा। हरियाणा के महम में हुई हिंसा के विजुअल्स ने दर्शकों को विचलित किया। अखबारों में पढ़ने के मुकाबले उसे देखना कहीं ज्यादा असरदार था। पर ज्यादातर मामलों में यह असर नकारात्मक साबित हुआ। 

बहरहाल दिसम्बर 1992 में मीडिया माने अखबार होते थे। और उनमें भी सबसे महत्वपूर्ण थे हिन्दी के अखबार। 1992 के एक साल पहले नवम्बर 1991 में बाबरी मस्जिद को तोड़ने की कोशिश हुई थी। तब उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा, ऐसी घटना नहीं हुई। मुझे याद है लखनऊ के नव भारत टाइम्स ने बाबरी के शिखर की वह तस्वीर हाफ पेज में छापी। सबेरे उस अखबार की कॉपियाँ ढूँढे नहीं मिल रहीं थीं। उस ज़माने तक बहुत सी बातें मीडिया की निगाहों से दूर थीं। आज मीडिया की दृष्टि तेज़ है। पहले से बेहतर तकनीक उपलब्ध है। तब के अखबारों के फोटोग्राफरों के कैमरों के टेली लेंसों के मुकाबले आज के मामूली कैमरों के लेंस बेहतर हैं।

मीडिया के विकास के समानांतर सामाजिक-अंतर्विरोधों के खुलने की प्रक्रिया भी चल रही है। साठ के दशक तक मुल्क अपेक्षाकृत आराम से चल रहा था। सत्तर के दशक में तीन बड़े आंदोलनों की बुनियाद पड़ी। एक, नक्सली आंदोलन, दूसरा बिहार और गुजरात में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और तीसरा पंजाब में अकाली आंदोलन। तीनों आंदोलनों के भटकाव भी फौरन सामने आए। संयोग है कि भारतीय भाषाओं के, खासकर हिन्दी के अखबारों का उदय इसी दौरान हुआ। यह जनांदोलनों का दौर था। इसी दौरान इमर्जेंसी लगी और अखबारों को पाबंदियों का सामना करना पड़ा। इमर्जेंसी हटने के बाद देश के सामाजिक-सांस्कृतिक  अंतर्विरोधों ने और तेजी के साथ एक के बाद एक खुलना शुरू किया। यह क्रम अभी जारी है।

राष्ट्रीय कंट्राडिक्शंस के तीखे होने और खुलने के समानांतर मीडिया के कारोबार का विस्तार भी हुआ। मीडिया-विस्तार का यह पहलू ज्यादा महत्वपूर्ण साबित हुआ। इसके कारण मीडिया को अपनी भूमिका को लेकर बातचीत करने का मौका नहीं मिला। बाबरी-विध्वंस के बाद देशभर में विचार-विमर्श की लहर चली थी। अखबारों की भूमिका की खुलकर और नाम लेकर निंदा हुई। उस तरीके का सामाजिक संवाद उसके बाद नहीं हुआ। अलबत्ता उस संवाद का फायदा यह हुआ कि आज मीडिया अपनी मर्यादा रेखाएं तय कर रहा है। 

सामाजिक जिम्मेदारियों को किनारे रखकर मीडिया का विस्तार सम्भव नहीं है। मीडिया विचार-विमर्श का वाहक है, विचार-निर्धारक या निर्देशक नहीं। अंततः विचार समाज का है। यदि हम समाज के विचार को सामने लाने में मददगार होंगे तो वह भूमिका सकारात्मक होगी। विचार नहीं आने देंगे तो वह भूमिका नकारात्मक होगी और हमारी साख को कम करेगी। हमारे प्रसार-क्षेत्र के विस्तार से ज्यादा महत्वपूर्ण है साख का विस्तार। तेज बोलने, चीखने, कूदने और नाचने से साख नहीं बनती। धीमे बोलने से भी बन सकती है। शॉर्ट कट खोजने के बजाय साख बढ़ाने की कोशिश लम्बा रास्ता साबित होगी, पर कारोबार को बढ़ाने की बेहतर राह वही है।

खबर के साथ बेमतलब अपने विचार न देना, उसे तोड़ कर पेश न करना, सनसनी फैलाने वाले वक्तव्यों को तवज्जो न देना पत्रकारिता के सामान्य सूत्र हैं। पिछले बीस बरस में भारतीय मीडिया जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय मसलों से जूझ रहा है। इससे जो आम राय बनकर निकली है वह इस मीडिया को शत प्रतिशत साखदार भले न बनाती हो, पर वह उसे कूड़े में भी नहीं डालती। जॉर्ज बुश ने कहीं इस बात का जिक्र किया था कि अल-कायदा के नेटवर्क में भारतीय मुसलमान नहीं हैं। इसे मीडिया के परिप्रेक्ष्य में देखें। भारतीय मुसलमान के सामने तमाम दुश्वारियाँ हैं। वह आर्थिक दिक्कतों के अलावा केवल मुसलमान होने की सज़ा भी भुगतता है, पर भारतीय राष्ट्र राज्य पर उसकी आस्था है। इस आस्था को कायम रखने में मीडिया की भी भूमिका है, गोकि यह भूमिका और बेहतर हो सकती है। कश्मीर के मामले में भारतीय मुसलमान हमारे साथ है।

मीडिया सामजिक दर्पण है। जैसा समाज सोचेगा वैसा उसका मीडिया होगा। यह दोतरफा रिश्ता है। मीडिया भी समाज को समझदार या गैर-समझदार बनाता है। हमारी दिलचस्पी इस बात में होनी चाहिए कि हम किस तरह सकारात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ा सकते हैं। साथ ही इस बात में कि हमारे किसी काम का उल्टा असर न हो। उम्मीद है आने वाला वक्त बेहतर समझदारी का होगा। पूरा देश हमें देखता, सुनता और पढ़ता है।       

Sunday, September 19, 2010

अयोध्या का फैसला आने से पहले

फैसला तो जो भी आएगा, लगता है हम सब घबरा रहे हैं। अतीत में हमारे मीडिया ने असंतुलित होकर जो भूमिका निभाई उसकी याद करके घबरा रहे हैं। वैबसाइट हूट के अनुसार न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसएशन ने इस सिलसिले में सहमति बनाई है कि फैसले को किस तरह कवर करेंगे। हूट के अनुसारः-


The News Broadcasters Association has put out an advisory on how the High Court judgement on the Ayodhya issue should be reported. All news on the judgement in the case should be a verbatim reproduction with no opinion or interpretation, no speculation of the judgement before it is pronounced should be carried, no footage of the demolition of the Babri Masjid is to be shown in any new item relating to the judgement, and no visuals need be shown depicting celebration or protest following the pronouncement.


इस एडवाइज़री की भावना ठीक है, पर इतना अंदेशा क्यों? अयोध्या मामला ही नहीं सारे मामले महत्वपूर्ण होते हैं। कवरेज के मोटे नियम सभी पत्रकारों को समझने चाहिए। फैसला आने पर उसपर टिप्पणी करना लोकतांत्रिक अधिकार है। उस अधिकार की मर्यादा रेखा को समझना चाहिए। पत्रकारिता की परम्परागत ट्रेनिंग  ऑब्जेक्टिविटी और फेयरनेस और क्या हैं?  इसी तरह तथ्यों में तोड़-मरोड़ नहीं होनी चाहिए। 


एक बात यह भी समझनी चाहिए कि यह न्यायालय का फैसला है। इसके कानूनी पहलू पर ही हमें ज़ोर देना चाहिए। भावनाओं को किनारे कर दें। हमें अपनी व्यवस्था और देशवासियों पर यकीन करना चाहिए। सब समझदार हैं। बेहतर हो कि फैसला आने के पहले पृष्ठभूमि का पता करें। उसे पढ़ें और पूरी समस्या पर विचार करें। इसपर आमराय भी बनाई जा सकती है। 

Friday, September 17, 2010

कश्मीर का क्या करें?

मेरे कई दोस्त व्यग्र हैं। वे समझना चाहते हैं कि कश्मीर का क्या हो रहा है। उसका अब क्या करें। हिन्दुस्तान में प्रकाशित अपने लेख पर मैने अपने फेस बुक मित्रों से राय माँगी तो ज्यादातर ने पोस्ट को पसंद किया, पर राय नहीं दी। विजय राणा जो लंदन में रहते हैं, पर भारतीय मामलों पर लगातार सोचते रहते हैं। उन्होंने जो राय दी वह मैं नीचे दे रहा हूँ।

Its' the problem of Islamic fundamentalism - something that we have been self-deludingly reluctant to acknowledge. Two nations theory did not end with the creation of Pakistan. How can a Muslim majority state live with Hindu India. That's how Huriyat thinks. The whole basis of Kashmiriat is Islam, it has no place for Kashmiri Pundits. There have been attempts for years to target Sikhs and now Christians in the Valley. Right from day one Huriyat leaders had a soft corner for Pakistan. Short of Azadi the Huriyat leadership will be quite happy to join Pakistan. Sadly this truth does not fit into our secularist aganda. Thats' why we have closed our eyes to it. Now economic integratioin is the key. Evey Indian state should give at least 1000 jobs to Kashmiri youth. You don't need law for this. Ask private sector to help. Just do special recuritment drive today and give them at least 30,000 jobs per year. Things will change.

विजय जी का यह विचार इस बात को बताता है कि कश्मीर का भारत में विलय हुआ है तो उसे भारत से जोड़ना भी चाहिए। कैसे जोड़ें? उनकी सलाह व्यावहारिक लगती है। तिब्बत में चीन ने पिछले साठ साल में सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव कर दिया है। तिब्बतियों और चीनियों के आपसी विवाह से नई पीढ़ी एकदम अलग ढंग से सोचती है। कश्मीर के नौजवानों को हमने पाक-परस्त लोगों के सामने खुला छोड़ दिया है। उन्हें ठीक से धर्म-निरपेक्ष शिक्षा नहीं मिली। पंडितों को निकालकर बाकायदा एकरंगा समाज बना लिया। नौजवानों के मन में ज़हर भर दिया। अब आज़ादी की बात हो रही है।

मेरे मित्र शरद पांडेय ने मेल भेजी है, ......AGAR AZADI HI.., TO ITANE SAALO MAI JITANA UNHE DIYA GAYA WOH KISI OR STATE KO NAHI,ABHI DO ROJ PAHLE HI, KI UNHE EK BARA PACKAGE AUR..,TO IN SAB BAATO KA KYA MATALB, KYA ISSE..मेरे एक पाठक मनीष चौहान ने मुझे मेल भेजी, ...क्या आप चाहते हैं कि कश्मीर से की तैनाती हटा ली जाये? क्या आप कश्मीर को उसके हाल पर छोड़ देना चाहते हैं? माफ़ कीजिये, कोई भी पार्टी या संगठन कुछ भी मांग करे, सामरिक दृष्टि से वहां स्वायत्तता देना एक नई मुसीबत को आमंत्रण देना होगा ऐसा मेरा मानना है... अच्छा होता, हर बार की तरह आप एक क्लियर स्टैंड रखते...

इस आशय की मेल और भी आई हैं। हमारा क्लियर स्टैंड क्या हो?  अब चूंकि पानी सिर के ऊपर जा रहा है इसलिए एक साफ दृष्टिकोण ज़रूरी है। बेहतर हो कि पूरा देश तय करे कि क्या किया जाय़। 

Thursday, September 16, 2010

कश्मीर पर पहल

कश्मीर पर केन्द्र सरकार की पहल हालांकि कोई नया संदेश नहीं देती, पर पहल है इसलिए उसका स्वागत करना चाहिए। कल रात 'टाइम्स नाव' पर अर्णब गोस्वामी ने सैयद अली शाह गिलानी को भी बिठा रखा था। उनका रुख सबको मालूम है, फिर भी उन्हें बुलाकर अर्णब ने क्या साबित किया? शायद उन्हें तैश भरी बहसें अच्छी लगती हैं। बात तब होती है, जब एक बोले तो दूसरा सुने। गिलानी साहब अपनी बात कहने के अलावा दूसरे की बात सुनना नहीं चाहते तो उनसे बात क्यों करें?

अब विचार करें कि हम कश्मीर के बारे में क्या कर सकते हैं?

1. सभी पक्षों से बात करने का आह्वान करें। कोई न आए तो बैठे रहें।
2. सर्वदलीय टीम को भेजने के बाद उम्मीद करें कि टीम कोई रपट दे। रपट कहे कि कश्मीरी जनता से बात करो। फिर जनता से कहें कि आओ बात करें। वह न आए तो बैठे रहें।
3. उमर अब्दुल्ला की सरकार की जगह पीडीपी की सरकार लाने की कोशिश करें। नई सरकार बन जाए तो इंतजार करें कि आंदोलन रुका या नहीं। न रुके तो बैठे रहें।
4.उम्मीद करें कि हमारे बैठे रहने से आंदोलनकारी खुद थक कर बैठ जाएं।

इस तरह के दो-चार सिनारियो और हो सकते हैं, पर लगता है अब कोई बड़ी बात होगी। 1947 के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्जे की सबसे बड़ी कोशिश 1965 में की थी। उसके बाद 1989 में आतंकवादियों को भेजा। फिर 1998 में करगिल हुआ। अब पत्थरमार है। फर्क यह है कि पहले कश्मीरी जनता का काफी बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी कार्रवाई से असहमत होता था। अब काफी बड़ा तबका पाकिस्तान-परस्त है। गिलानी इस आंदोलन के आगे हैं तो उनके पीछे कोई समर्थन भी है। हम उन्हें निरर्थक मानते हैं तो उन्हें किनारे करें, फिर देखें कि कौन हमारे साथ है। उसके बाद पाकिस्तान के सामने स्पष्ट करें कि हम इस समस्या का पूरा समाधान चाहते हैं। यह समाधान लड़ाई से होना है तो उसके लिए तैयार हो जाएं। जिस तरीके से अंतरराष्ट्रीय समुदाय बैठा देख रहा है उससे नहीं लगता कि पाकिस्तान पर किसी का दबाव काम करता है।

एलओसी पर समाधान होना है तो देश में सर्वानुमति बनाएं। उस समाधान पर पक्की मुहर लगाएं। गिलानी साहब को पाकिस्तान पसंद है तो वे वहाँ जाकर रहें, हमारे कश्मीर से जाएं। अब आए दिन श्रीनगर के लालचौक के घंटाघर पर हरा झंडा लगने लगा है। यह शुभ लक्षण नहीं है।

इसके अलावा कोई समाधान किसी को समझ में आता है उसके सुझाव दें।

हिन्दुस्तान में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें

Tuesday, September 14, 2010

मस्ती और मनोरंजन की हिन्दी


1982 में दिल्ली में हुए एशिया खेलों के उद्घाटन समारोह में टीमों का मार्च पास्ट हिन्दी के अकारादिक्रम से हुआ था। इस बार कॉमनवैल्थ खेलों में भी शायद ऐसा हो। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समारोहों में विमर्श की भाषा भले ही अंग्रेजी होती हो, पृष्ठभूमि पर लगे पट में हिन्दी के अक्षर भी होते हैं। ऐसा इसलिए कि इस देश की राजभाषा देवनागरी में लिखी हिन्दी है। हमें खुश रखने के लिए इतना काफी है। 14 सितम्बर के एक हफ्ते बाद तक सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के दफ्तरों में हिन्दी दिवस मनाया जाता है। सरकारी दफ्तरों में तमाम लोग हिन्दी के काम को व्यक्तिगत प्रयास से और बड़े उत्साह के साथ करते हैं। और अब दक्षिण भारत में भी हिन्दी का पहले जैसा विरोध नहीं है। दक्षिण के लोगों को समझ मे आ गया है कि बच्चों के बेहतर करिअर के लिए हिन्दी का ज्ञान भी ज़रूरी है। इसलिए नहीं कि हिन्दी में काम करना है। इसलिए कि हिन्दी इलाके में नौकरी करनी है तो उधर की भाषा का ज्ञान होना ही चाहिए। हिन्दी की जानकारी होने से एक फायदा यह होता है कि किसी तीसरी भाषा के इलाके में जाएं और वहाँ अंग्रेजी जानने वाला भी न मिले तो हिन्दी की मदद मिल जाती है।

खबरिया और मनोरंजन चैनलों की वजह से भी हिन्दी जानने वालों की तादाद बढ़ी है। हिन्दी सिनेमा की वजह से तो वह थी ही। हमें इसे स्वीकार करना चाहिए कि हिन्दी की आधी से ज्यादा ताकत गैर-हिन्दी भाषी जन के कारण है। गुजराती, मराठी, पंजाबी, बांग्ला और असमिया इलाकों में हिन्दी को समझने वाले काफी पहले से हैं। भारतीय राष्ट्रवाद को विकसित करने में हिन्दी की भूमिका को सबसे पहले बंगाल से समर्थन मिला था। सन 1875 में केशव चन्द्र सेन ने अपने पत्र सुलभ समाचार में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने की बात उठाई। बंकिम चन्द्र चटर्जी भी हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा मानते थे। महात्मा गांधी गुजराती थे। दो पीढ़ी पहले के हिन्दी के श्रेष्ठ पत्रकारों में अमृत लाल चक्रवर्ती, माधव राव सप्रे, बाबूराव विष्णु पराडकर, लक्ष्मण नारायण गर्दे, सिद्धनाथ माधव आगरकर और क्षितीन्द्र मोहन मित्र जैसे अहिन्दी भाषी थे।

हिन्दी को आज पूरे देश का स्नेह मिल रहा है और उसे पूरे देश को जोड़ पाने वाली भाषा बनने के लिए जिस खुलेपन की ज़रूरत है, वह भी उसे मिल रहा है। यानी भाषा में शब्दों, वाक्यों और मुहावरों के प्रयोगों को स्वीकार किया जा रहा है। पाकिस्तान को और जोड़ ले तो हिन्दी या उर्दू बोलने-समझने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। यह इस भाषा की ताकत है। हिन्दी का यह विस्तार उसे एक धरातल पर ऊपर ले गया है, पर वह उतना ही है, जितना कहा गया है। यानी बोलने, सम्पर्क करने, बाजार से सामान या सेवा खरीदने, मनोरंजन करने की भाषा। विचार-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और साहित्यिक हिन्दी का बाजार छोटा है। 

बांग्ला, मराठी, तमिल, मलयालम या दूसरी अन्य भाषाओं का राष्ट्रवाद अपनी भाषा को बिसराने की सलाह नहीं देता। हिन्दी का अपना राष्ट्रवाद उतना गहरा नहीं है। ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और सामान्य ज्ञान के विषयों की जानकारी के लिए अंग्रेजी का सहारा है। हिन्दी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं का पाठक विचार-विमर्श के लिए अपनी भाषा को छोड़ना नहीं चाहता। आनन्द बाज़ार पत्रिका और मलयाला मनोरमा बंगाल और केरल के ज्यादातर घरों में जाते हैं। अंग्रेजी अखबारों के पाठक यों तो चार या पाँच महानगरों में केन्द्रित हैं, पर मराठी, तमिल, बांग्ला और कन्नड़ परिवार में अंग्रेजी अखबार के साथ अपनी भाषा का अखबार भी आता है। हिन्दी शहरी पाठक का हिन्दी अखबार के साथ वैसा जुड़ाव नहीं है। एक ज़माने तक हिन्दी घरों में धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, पराग, नन्दन और सारिका जैसी  पत्रिकाएं जातीं थीं। उनके सहारे पाठक अपने लेखकों से जुड़ा था। ऊपर गिनाई सात पत्रिकाओं में से पाँच बन्द हो चुकी हैं। बांग्ला का देश बन्द नहीं हुआ, तमिल का आनन्द विकटन बन्द नहीं हुआ। हिन्दी क्षेत्र का शहरी पाठक अंग्रेजी अखबार लेता है रुतबे के लिए। बाकी वह कुछ नहीं पढ़ता। टीवी देखता है,  पेप्सी या कोक पीता है, पीत्ज़ा खाता है। वह अपवार्ड मोबाइल है। 

हिन्दी का इस्तेमाल हम जिन कामों के लिए करते हैं उसके लिए जिस हिन्दी की ज़रूरत है, वह बन ही रही है। उसमें आसान और आम शब्द आ रहे हैं। पर हिन्दी दिवस हम सरकारी हिन्दी के लिए मनाते हैं। वह हिन्दी राष्ट्रवाद का दिवस नहीं है। इसे समझना चाहिए हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा है। मनोरंजन के बाद हिन्दी राष्ट्र का एक और शगल है, राजनीति। लोकसभा में जब भी किसी अविश्वास प्रस्ताव पर बहस होती है सबसे अच्छे भाषण हिन्दी में होते हैं। बौद्धिकता के लिहाज से अच्छे नहीं, भावनाओं और आवेशों में। लफ्फाज़ी में। हिन्दी राष्ट्र में तर्क, विवेक और विचार की जगह आवेशों और मस्ती ने ले ली है। मुझे पिछले दिनों रेलवे की हिन्दी सलाहकार समिति की एक बैठक में भाग लेने का मौका मिला। उसमें कई वक्ताओं ने सलाह दी कि रेलवे को आसान हिन्दी का इस्तेमाल करना चाहिए। वास्तव में संज्ञान में कोई बात लाने के मुकाबले जानकारी में लाना आसान और बेहतर शब्द है। ऐसे तमाम शब्द हैं जो रेलवे के पब्लिक एड्रेस सिस्टम में इस्तेमाल होते हैं, जो सामान्य व्यक्ति के लिए दिक्कत तलब हो सकते हैं। उनकी जगह आसान शब्द होने चाहिए। उस बैठक में किसी ने रेलवे-बजट की भाषा का सवाल उठाया। उसे भी आसान भाषा में होना चाहिए। बजट को आसान भाषा में तैयार करना उतना आसान नहीं है, जितना आसान पब्लिक एनाउंसमेंट में आसान भाषा का इस्तेमाल करना है।


संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार हिन्दी देश की राजभाषा है, पर संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार ही अनन्त काल तक अंग्रेजी देश की राजभाषा के रूप में काम करती रहेगी। हिन्दी के जबर्दस्त उभार और प्रसार के बावजूद इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि केवल उसे राजभाषा बनाने के लिए एक ओर तो समूचे देश की स्वीकृति की ज़रूरत है, दूसरे उसे इस काबिल बनना होगा कि उसके मार्फत राजकाज चल सके। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में अंग्रेजी का ही इस्तेमाल होता है। ज्यादातर बौद्धिक कर्म की भाषा अंग्रेजी है। हिन्दी पुस्तकालय की भाषा नहीं है। उसे समृद्ध बनाने की ज़िम्मेदारी भारत सरकार की है। संविधान का अनुच्छेद 351 इस बात को कहता है, पर सरकार 14 से 21 सितम्बर तक हिन्दी सप्ताह मनाने के अलावा और क्या कर सकती है? तमाम फॉर्मों के हिन्दी अनुवाद हो चुके हैं। चिट्ठियाँ हिन्दी में लिखी जा रहीं हैं। दफ्तरों के दस्तावेजों में हिन्दी के काम की प्रगति देखी जा सकती है, पर वास्तविकता किसी से छिपी नहीं है। हमारा संविधान हिन्दी के विकास में ज़रूर मददगार होता बशर्ते हिन्दी का समाज अपनी भाषा की इज्जत के बारे में सोचता। 


समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित