Thursday, August 26, 2010

जैसी हिन्दी आप चाहेंगे वैसी बनेगी


ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के ताजा संस्करण में 2000 नए शब्द जोड़े गए हैं। इन नए शब्दों में ट्वीटप, चिलैक्स, नेटबुक और वुवुज़ेला भी हैं। कम्प्यूटर का इस्तेमाल बढ़ने और खासतौर से सोशल नेटवर्क साइट्स के विस्तार के साथ अनेक नए शब्द बन रहे हैं। इन नए शब्दों में डि-फ्रेंड, पेवॉल, वर्फिंग या ईयरवर्म जैसे शब्द हैं, जिनका इस्तेमाल बढ़ता जाएगा। मसलन डि-फ्रेंड। अपनी फ्रेंड लिस्ट से किसी को हटाना। वर्फिंग याने काम (वर्क) के दौरान (नेट) सर्फिंग। संगीत सुनते-सुनते कोई धुन गहरे से दिमाग में बैठ गई तो वह ईयरवर्म है। ऑक्सफर्ड डिक्शनरी की ऑनलाइन सेवा हर तीन महीने में यों भी तकरीबन एक से दो हजार नए शब्द जोड़ती है।

हमारे लिए इस खबर के दो माने हैं। एक तो हम ऑक्सफर्ड डिक्शनरी के बारे में जानें और दूसरे यह कि हिन्दी के विस्तार के दौर में इस बात का संकेत क्या है। आगे बढ़ने के पहले मैं यह निवेदन करना चाहूँगा कि किसी नई प्रवृत्ति के उभरने पर न तो घबराना चाहिए और न यह मान लेना चाहिए कि यह अंतिम सत्य है। दिल और दिमाग के दरवाजे खोलकर ही सारी चीज़ों को देखें। नई बातें बड़े कालखंड में ही सही या गलत साबित होंगी।  

हिन्दी में नए शब्दों को जोड़ने की ज़रूरत है। मेरे कहने मात्र से यह बात लागू नहीं होती। नए शब्द जुड़ने के कारण होते हैं। नए शब्द घर का दरवाज़ा खटखटाने वाले नए मेहमान हैं। हिन्दी का विकास नए शब्दों के जुड़ते जाने से ही हुआ है। उसके इस्तेमाल का भौगोलिक दायरा बढ़ता जा रहा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पुराने शब्द निरर्थक हो गए या उनका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। कुछ लोग हिन्दी को आसान बनाने के नाम पर जबर्दस्ती अंग्रेजी शब्दों की जो ठूँसम-ठाँस कर रहे हैं, वह ठीक नहीं। पर लॉगिन, पासवर्ड, कोलेस्ट्रॉल, माउस, डायलॉग या ट्रेनिंग जैसे शब्द आसानी से हिन्दी में आ गए हैं। उन्हें शब्दकोशों में जगह दी जानी चाहिए। यों भी भाषा शब्दकोशों से नहीं शब्दकोश भाषा से बनते हैं।
     
हिन्दी को आसान बनाने की जो ज़िम्मेदारी लेते हैं, उन्हें भी समझना चाहिए कि हिन्दी आसान होने के कारण ही तो प्रचलित है। पर आम बोलचाल की भाषा और  गूढ़ विषयों की भाषा को एक नहीं किया जा सकता। बोलचाल की भाषा भी व्यक्ति और व्यक्ति की अलग-अलग होती है। सड़क के भैये और एक अध्यापक की भाषा एक जैसी नहीं होती। चैनल और अखबार की भाषा भी एक जैसी नहीं हो सकती। दो चैनलों की भाषा का अंतर भी उनके बाज़ार का अंतर बता सकता है। आज नहीं तो दस साल बाद यह फर्क आएगा।

आसान, रोचक और संदेश को साफ-साफ बताना भाषा का काम है। अंग्रेजी जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी नहीं जाती। हिन्दी में भी ऐसा है। हिन्दी में हाल के वर्षों में झकास, मस्त, खलास, खीसा, भिड़ू, टकला, वाट लगाना जैसे शब्द फिल्मी कारखाने से आए। इन्होंने जगह बना ली है। अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, हरियाणवी और कौरवी में तमाम ऐसे शब्द हैं जो मानक हिन्दी के विकास की धारा में पीछे रह गए हैं। नए शब्द सिर्फ अंग्रेजी से ही नहीं आते। भारतीय भाषाओं से और बोलियों से भी आएंगे। यह आदान-प्रदान भी चलेगा। कुमाऊंनी में गंध के लिए जितने प्रकार के शब्द हैं, उनकी सूची बनाई जाए तो बड़ी लम्बी और उपयोगी बनेगी। किसी एक घटना से शब्द प्रचलन में आ जाते हैं। जैसे खालिस्तानी आंदोलन के दौरान सरबत खालसा या घल्लू-घारां जैसे शब्द आए।  

हमारा सांस्कृतिक और व्यापारिक विस्तार हो रहा है। हम कमज़ोर बौद्धिक पृष्ठभूमि के लोग नहीं है। पश्चिम और पूर्व के समन्वय के लिहाज से भी हम बेहतर स्थिति में हैं। भाषा-व्याकरण और शब्दकोश से जुड़ा हमारा अतीत बहुत समृद्ध है, पर वह अतीत है वर्तमान नहीं है। इस लिहाज से मैं ऑक्सफर्ड शब्दकोश के बारे में जानकारी हासिल करने का सुझाव दूँगा। पर उसके पहले अपने देश जानकारी भी लेनी चाहिए। हिन्दी विकीपीडिया के अनुसार,सब से पहले शब्द संकलन भारत में बने। हमारी यह शानदार परंपरा वेदों जितनीकम से कम पाँच हज़ार सालपुरानी है। प्रजापति कश्यप का निघंटु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है। इस में 18 सौ वैदिक शब्दों को इकट्ठा किया गया है। निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या निरुक्त संसार का पहला शब्दार्थ कोश (डिक्शनरी) एवं विश्वकोश (ऐनसाइक्लोपीडिया) है। इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमर सिंह कृतनामलिंगानुशासन या त्रिकांड जिसे सारा संसार अमरकोश के नाम से जानता है। अमरकोश को विश्व का सर्वप्रथम समान्तर कोश (थेसेरस) कहा जा सकता है।

भारत के बाहर संसार में शब्द संकलन का एक प्राचीन प्रयास अक्कादियाई संस्कृति की शब्द सूची है। यह शायद ईसा पूर्व सातवीं सदी की रचना है। ईसा से तीसरी सदी पहले की चीनी भाषा का कोश है ईर्या आधुनिक कोशों की नीवँ डाली इंग्लैंड में 1755 में सैमुएल जानसन ने। उन की डिक्शनरी सैमुएल जॉन्संस डिक्शनरी ऑफ़ इंग्लिश लैंग्वेज ने कोशकारिता को नए आयाम दिए। इस में परिभाषाएँ भी दी गई थीं। असली आधुनिक कोश आया इक्यावन साल बाद 1806 में अमरीका में नोहा वैब्स्टर्स की नोहा वैब्स्टर्स ए कंपैंडियस डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज प्रकाशित हुई। इस ने जो स्तर स्थापित किया वह पहले कभी नहीं हुआ था। साहित्यिक शब्दावली के साथ साथ कला और विज्ञान क्षेत्रों को स्थान दिया गया था। कोश को सफल होना ही था, हुआ। वैब्स्टर के बाद अँगरेजी कोशों के संशोधन और नए कोशों के प्रकाशन का व्यवसाय तेज़ी से बढ़ने लगा। आज छोटे बड़े हर शहर में, किताबों की दुकानें हैं। हर दुकान पर कई कोश मिलते हैं। हर साल कोशों में नए शब्द सम्मिलित किए जाते हैं।

ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी अपने आप में एक विशाल काम है। इस डिक्शनरी के दो संस्करण निकल चुके हैं। पहला 1928 में निकला था और दूसरा 1989 में। तीसरे संस्करण पर काम चल रहा है और सब ठीक रहा तो वह सन 2037 तक पूरा हो जाएगा। 1989 के इसके संस्करण में इसके 20 खंड थे। इसी संस्करण के छोटे-छोटे संस्करण आप अलग नाम से देखते हैं। इस डिक्शनरी को दुबारा टाइप करना पड़े तो एक व्यक्ति को 120 साल लगेंगे। प्रूफ पड़ने में 60 साल। इस शह्दकोश को इस तरह तैयार किया गया था कि इसमें अंग्रेजी भाषा के इतिहास में जितने शब्द इस्तेमाल में आए उन्हें इसमें शामिल कर लिया जाय। फिर भी इसमें सन 1150 तक प्रयोग से बाहर हो चुके शब्द शामिल नहीं हैं। यह एक विशाल आयोजन है जिसमें शास्त्रीय शब्दों के साथ-साथ बोल-चाल के और अपशब्द (स्लैंग) भी शामिल हैं।ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी को अपडेट करने के काम में 300 विद्वान लगे हैं और यह प्रोजेक्ट 5.5 करोड़ डॉलर का है। यानी ढाई सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का। इसके साथ ऑक्सफर्ड इंग्लिश कोर्पस है, जिसमें करीब बास लाख शब्दों का भंडार है। इस पर करीब 3.5 करोड़ पाउंड याने करीब 300 करोड़ का खर्च है। धनराशि बताने का आशय सिर्फ इस बात को रेखांकित करना है कि कोई समाज अपने वैचारिक कर्म के प्रति कितना सचेत है।

हिन्दी के पास ऑक्सफर्ड जैसा कोई कार्यक्रम नहीं है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन जैसी संस्थाएं इन कार्यों को करतीं हैं। इसके लिए आर्थिक और तकनीकी सहयोग भी चाहिए। शब्दकोश के बारे में मुझे जानकारी नहीं है, पर हिन्दी के विश्वकोश को मैने नेट पर देखा है, जिसे सी-डैक की मदद से नेट पर रखा गया है। इस काम को जिस स्तर पर अपडेट करना चाहिए वह अभी हुआ नहीं है। हाल के वर्षों में अरविन्द कुमार-कुसुम कुमार के व्यक्तिगत प्रयास से समांतर कोश तैयार हुआ वह उत्साहवर्धक है। इसका सहज संस्करण भी देखने को मिला। इस कोश में प्रौपराइटर, प्रौपैलर, फोकस, औप्टीशियन, औरबिटर, औब्शेसन, इंटरनैट और इंटरकौम। जैसे तमाम अंग्रेजी शब्द हैं। पर यह मानक नहीं है। वर्तनी का सवाल भी है। वृत्तमुखी ध्वनि के लिए दीर्घ औ का इस्तेमाल किया गया है। कौल शब्द कुलीन और ग्रास के अर्थ में है। सम्भव है वे कभी टेली कॉल वाले कॉल को भी शामिल करें। यह कोश की नहीं मानक हिन्दी के प्रयोग की कमी है। अभी हम हर बात पर एकमत नहीं हैं।

हिन्दी के लिए नए शब्द बनाने की सरकारी परियोजना ने बहुत बड़ा काम किया था।गम्भीर विषयों की भाषा चलताऊ शब्दों से नहीं बनती। पर उससे ज्यादा बड़ी ज़रूरत अलग-अलग विषयों के शब्द कोशों और विश्वकोशों की है। इस काम का आधा हिस्सा मीडिया से और आधा विश्वविद्यालयों से जुड़ा है। हिन्दी के सहारे कारोबार चलाने वाले न जाने क्या सोचते हैं। अलबत्ता हिन्दी-प्रयोक्ता ही तय करेंगे कि वे अपनी भाषा को कहाँ ले जाना चाहते हैं। यह भी कि हिन्दी की ज़रूरत उन्हें कहाँ है। 

Wednesday, August 25, 2010

भारत-जापान रिश्ते

भारत और जापान के बीच एटमी सहयोग की बातचीत लम्बे अर्से से चली आ रही है, पर हाल के दिनों में इसमें तेजी आई है। इसके पीछे जापान की अपनी आर्थिक दुश्वारियाँ ज्यादा हैं। बहरहाल तमाम अंदेशों के बावज़ूद ऐसा लगता है कि इस साल के अंत में जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जापान जाएंगे तब भारत-जापान न्यूक्लियर संधि हो जाएगी। अंतरराष्ट्रीय रिश्तों के बनने और बिगड़ने की गति आसानी से नज़र नहीं आता।

भारत-जापान रिश्तों के भविष्य में और प्रगाढ़ होने की अच्छी खासी सम्भावनाएं हैं। इसके पीछे भौगोलिक यथार्थ, सामरिक और आर्थिक ज़रूरतें हैं। यों तो आज कोई किसी या शत्रु या मित्र नहीं है, पर कुछ मित्र अपेक्षाकृत ज्यादा सहज होते हैं। जापान हमारा अपेक्षाकृत सहज मित्र है।


हिन्दुस्तान में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें

विश्लेषण आईडीएसए की टिप्पणी

Sunday, August 22, 2010

गौरमेन्ट सैयद पे क्यों मेहरबाँ है

अकबर इलाहाबादी


तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब
गौरमेन्ट[1] सैयद पे क्यों मेहरबाँ है

उसे क्यों हुई इस क़दर कामियाबी
कि हर बज़्म[2] में बस यही दास्ताँ[3] है

कभी लाट साहब हैं मेहमान उसके
कभी लाट साहब का वह मेहमाँ[4] है

नहीं है हमारे बराबर वह हरगिज़
दिया हमने हर सीग़े का इम्तहाँ है

वह अंग्रेज़ी से कुछ भी वाक़िफ़ नहीं है
यहाँ जितनी इंगलिश है सब बरज़बाँ हैं

कहा हँस के 'अकबर' ने ऎ बाबू साहब
सुनो मुझसे जो रम्ज़ उसमें निहाँ हैं

नहीं है तुम्हें कुछ भी सैयद से निस्बत
तुम अंग्रेज़ीदाँ हो वह अंग्रेज़दाँ है
शब्दार्थ:
  1.  गवर्नमेन्ट
  2.  सभा
  3.  कथा
  4.  अतिथि


कविता कोश में पढ़े अकबर इलाहाबादी की कुछ और रचनाएं

Saturday, August 21, 2010

पाँच नगर : प्रतीक- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

दिल्ली
कच्चे रंगों में नफ़ीस
चित्रकारी की हुई , कागज की एक डिबिया
जिसमें नकली हीरे की अंगूठी
असली दामों के कैश्मेमो में लिपटी हुई रखी है ।

लखनऊ
श्रृंगारदान में पड़ी
एक पुरानी खाली इत्र की शीशी
जिसमें अब महज उसकी कार्क पड़ी सड़ रही है ।

बनारस
बहुत पुराने तागे में बंधी एक ताबीज़ ,
जो एक तरफ़ से खोलकर
भांग रखने की डिबिया बना ली गयी है ।

इलाहाबाद
एक छूछी गंगाजली
जो दिन-भर दोस्तों के नाम पर
और रात में कला के नाम पर
उठायी जाती है ।

बस्ती
गाँव के मेले में किसी
पनवाड़ी की दुकान का शीशा
जिस पर अब इतनी धूल जम गई है
कि अब कोई भी अक्स दिखाई नहीं देता ।
( बस्ती सर्वेश्वर का जन्म स्थान है । )

Friday, August 20, 2010

गलत काम करने वालों को म्यूज़िक क्यों सुनाते हैं?

सोनिया गांधी का एक वक्तव्य आज के टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा है कि कॉमनवैल्थ गेम्स के दोषियों को खेल खत्म होने के बाद सजा मिलेगी। अखबार ने इसका शीर्षक दिया है Sonia says corrupt will face music after Games. मतलब साफ है, पर मुझे यह जानने की इच्छा हुई कि काम गलत करें और म्यूज़िक का मजा भी लें, ऐसी भाषा क्यों बनी होगी। भाषा के विकास के दौरान ऐसे तमाम मौके आते हैं। इसके लिए मैने phrase.org को देखा। उसमें जो जानकारी मिली वह पेश है। पर यह जानकारी भी पर्याप्त नहीं लगती। शायद आप मदद करें। जानकारी इस प्रकार हैः-

Face the music

Meaning
Accept the unpleasant consequences of one's actions.
Origin
The phrase 'face the music' has an agreeable imagery. We feel that we can picture who was facing what and what music was playing at the time. Regrettably, the documentary records don't point to any clear source for the phrase and we are, as so often, at the mercy of plausible speculation. There was, of course, a definitive and unique origin for the expression 'face the music' and whoever coined it was quite certain of the circumstances and the music being referred to. Let's hope at least that one of the following suggestions is the correct one, even though there is no clear evidence to prove it.
A commonly repeated assertion is that 'face the music' originated from the tradition of disgraced officers being 'drummed out' of their regiment. A second popular theory is that it was actors who 'faced the music', i.e. faced the orchestra pit, when they went on stage. A third theory, less likely but quite interesting none the less, was recounted with some confidence by a member of the choir at a choral concert I attended recently in Sheffield. It relates to the old UK practice of West Gallery singing. This was singing, literally from the west galleries of English churches, by the common peasantry who weren't allowed to sit in the higher status parts of the church. The theory was that the nobility were obliged to listen to the vernacular songs of the parishioners, often with lyrics that were critical of the ways of the gentry.
It may help to pinpoint the origin to know that the phrase appears to be mid 19th American in origin. The earliest citation I can find for the phrase is from The New Hampshire Statesman & State Journal, August 1834:
"Will the editor of the Courier explain this black affair. We want no equivocation - 'face the music' this time."
ALmost all other early citations are American. Sadly, none of them give the slightest clue as to the source, or reason for, the music being faced.

मैने इसे और ज्यादा जानने की कोशिश की तो एक वीडियो मिला जिसमें संगीत से जुड़े अंग्रेजी के 6 मुहावरों  पर अच्छी जानकारी है।
 इस वीडियो को देखें