सब ठीक रहा तो अब लोकपाल बिल आज या कल संसद में पेश कर दिया जाएगा। साल खत्म होते-होते देश पारदर्शिता के अगले पायदान पर पैर रख देगा। और कुछ नए सवालों के आधार तैयार कर लेगा। समस्याओं और समाधानों की यह प्रतियोगिता जारी रहेगी। शायद अन्ना हजारे की टीम 27 को जश्न का समारोह करे। हो सकता है कि इस कानून से असहमत होकर आंदोलन के रास्ते पर जाए। पर क्या हम अन्ना हजारे के या सरकार के समर्थक या विरोधी के रूप में खुद को देखते हैं? सामान्य नागरिक होने के नाते हमारी भूमिका क्या दर्शक भर बने रहने की है? दर्शक नहीं हैं कर्ता हैं तो कितने प्रभावशाली हैं? कितने जानकार हैं और हमारी समझ का दायरा कितना बड़ा है? क्या हम हताशा की पराकाष्ठा पर पहुँच कर खामोश हो चुके हैं? या हमें इनमें से किसी प्लेयर पर इतना भरोसा है कि उससे सवाल नहीं करना चाहते?
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Monday, December 19, 2011
Saturday, February 12, 2011
मिस्री बदलाव का निहितार्थ
हुस्नी मुबारक का पतन क्या मिस्र में लोकतंत्र की स्थापना का प्रतीक है? मेरा ख्याल है कि मिस्र की परीक्षा की घड़ी अब शुरू हो रही है। हुस्नी मुबारक क्या अकेले तानाशाही चला रहे थे? वे सत्ता की कुंजी जिनके पास छोड़ गए हैं क्या वे लोकतंत्र की प्रतिमूर्ति हैं? मिस्र का दुर्भाग्य है कि वहाँ लम्बे अर्से से अलोकतांत्रिक व्यवस्था चल रही थी। लोकतंत्र जनता की मदद से चलता है पर उसकी संस्थाएं उसे चलातीं हैं। भारत में लोकतांत्रिक संस्थाएं खासी मजबूत हैं, फिर भी आए दिन घोटाले सामने आ रहे हैं।मिस्र को अभी काफी लम्बा रास्ता तय करना है। हाँ एक बात ज़रूर है कि इस आंदोलन से राष्ट्रीय आम राय ज़रूर बनी है।
Friday, February 4, 2011
क्या यह वैश्वीकरण की पराजय है?
आज एक अखबार में मिस्र के बारे में छपे आलेख को पढ़ते समय मेरी निगाहें इस बात पर रुकीं कि मिस्र का यह जनाक्रोश भूमंडलीकरण की पराजय का प्रारम्भ है। मुझे ऐसा नहीं लगता। मैं जनाक्रोश और उसके पीछे की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं से सहमत हूँ और मानता हूँ कि ऐसे जनांदोलन अभी तमाम देशों में होंगे। भारत में भी किसी न किसी रूप में होंगे। बुनियादी फर्क सिर्फ वैश्वीकरण की मूल अवधारणा को लेकर है।
आलेख के लेखक की निगाह में वैश्वीकरण अपने आप में समस्या है। मेरी निगाह में वैश्वीकरण समस्या नहीं एक अनिवार्य प्रक्रिया है। और उसमें ही अनेक समस्याओं के समाधान छिपे हैं। इससे तो गुज़रना ही है। वैश्वीकरण के बगैर तो समाजवाद भी नहीं आएगा। कार्ल मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद के लिए भी वैश्वीकरण अनिवार्य है। इस वैश्वीकरण को पूँजीवादी विकास और पूँजी का वैश्वीकरण लीड कर रहा है। पूँजीवाद और पूँजी के वैश्विक विस्तार पर आपत्ति समझ में आती है, पर संयोग से दुनिया में इस समय आर्थिक गतिविधियाँ पूँजी के मार्फत ही चल रहीं हैं। मिस्र में हुस्नी मुबारक की तानाशाही सरकार हटी भी तो जो व्यवस्था आएगी वह वर्तमान वैश्विक संरचना से अलग होगी यह मानने की बड़ी वजह दिखाई नहीं पड़ती।
आलेख के लेखक की निगाह में वैश्वीकरण अपने आप में समस्या है। मेरी निगाह में वैश्वीकरण समस्या नहीं एक अनिवार्य प्रक्रिया है। और उसमें ही अनेक समस्याओं के समाधान छिपे हैं। इससे तो गुज़रना ही है। वैश्वीकरण के बगैर तो समाजवाद भी नहीं आएगा। कार्ल मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद के लिए भी वैश्वीकरण अनिवार्य है। इस वैश्वीकरण को पूँजीवादी विकास और पूँजी का वैश्वीकरण लीड कर रहा है। पूँजीवाद और पूँजी के वैश्विक विस्तार पर आपत्ति समझ में आती है, पर संयोग से दुनिया में इस समय आर्थिक गतिविधियाँ पूँजी के मार्फत ही चल रहीं हैं। मिस्र में हुस्नी मुबारक की तानाशाही सरकार हटी भी तो जो व्यवस्था आएगी वह वर्तमान वैश्विक संरचना से अलग होगी यह मानने की बड़ी वजह दिखाई नहीं पड़ती।
Saturday, January 29, 2011
अरब देशों में लोकतांत्रिक क्रांति की बयार
ट्यूनीशिया ने दी प्रेरणा |
हाल में अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने क़तर में कहा कि जनता भ्रष्ट संस्थाओं और जड़ राजनैतिक व्यवस्था से आज़िज़ आ चुकी है। उन्होंने इशारा किया कि इस इलाके की ज़मीन हिल रही है। हिलेरी क्लिंटन ट्यूनीशिया के संदर्भ में बोल रहीं थीं. उनकी बात पूरी होने के कुछ दिन के भीतर ही मिस्र से बगावत की खबरें आने लगीं हैं। मिस्र में लोकतांत्रिक आंदोलन भड़क उठा है। राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक ने अपनी सरकार को बर्खास्त करके जिम्मेदारी अपने हाथ में ले ली है। पिछले दो-तीन हफ्तों से काहिरा और स्वेज में प्रदर्शन हो रहे थे. प्रधानमंत्री अहमद नज़ीफ ने हर तरह के प्रदर्शनों पर पाबंदी लगा दी थी, पर प्रदर्शन रुक नहीं रहे थे।
Sunday, October 17, 2010
पाकिस्तान में क्या हो रहा है?
पाकिस्तान के राष्ट्रपति भवन में बैठक |
चीफ जस्टिस की टिप्पणियाँ अखबारों में छपने के बाद सूचना मंत्री क़मर ज़मां कैड़ा और कानून मंत्री बाबर आवान ने अगले रोज़ स्पष्ट किया कि सरकार की ऐसी मंशा नहीं है। कानून मंत्री ने थोड़ा कड़ाई से कहा कि सरकार को गिराने की कोशिशें की जा रहीं हैं। सामने से सीधी-सादी नज़र आ रहीं चीज़ों के पीछे कुछ गहरी बातें दिखाई पड़ रही हैं। राष्ट्रपति ज़रदारी को हटाने की मुहिम चलरही है। इसमें अदालत भी सक्रिय है।
चीफ जस्टिस इफ्तिकार चौधरी इन दिनों जनता के छोटे-छोटे मामलों पर सुनवाई करके कभी किसी पुलिस अफसर की तो कभी किसी मंत्री की घिसाई कर रहे हैं। इससे वे लोकप्रिय भी हुए हैं। यह भी सच है कि उनकी बहाली मुस्लिम लीग(नवाज़) की अगुवाई में चले आंदोलन के बाद हुई थी।
पाकिस्तान को लोकतंत्र वैसा ही नहीं है जैसा भारत में है। वहाँ अभी राजनैतिक और संवैधानिक संस्थाएं जन्म ले रहीं हैं। राजनीति वहाँ बदनाम शब्द है, भारत की तरह। सेना की वहाँ राजनैतिक भूमिका है। चीफ जस्टिस की टिप्पणी के बाद राष्ट्रपति भवन में जो बैठक हुई उसमें सेनाध्यक्ष अशफाक परवेज़ कियानी भी शामिल थे। सेना की इस भूमिका पर हमें आश्चर्य हो सकता है, पर पाकिस्तान पहला देश नहीं है, जहाँ राजनीति में सेना की भूमिका है। इंडोनेशिया और बर्मा हमारे पड़ोसी हैं। वहाँ भी सेना की भूमिका है।
आसिफ अली ज़रदारी पर भ्रष्टाचार के अनेक मामले थे। परवेज़ मुशर्रफ ने उन मामलों को एक आदेश जारी कर खत्म कर दिया। इधर सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश को खत्म कर दिया। अब ज़रदारी की गर्दन नापने की कोशिश हो रही है। राष्ट्रपति होने के नाते अभी यह सम्भव नहीं है। किसी न किसी वजह से ऐसा माना जा रहा है कि इफ्तिखार चौधरी न्यायिक सक्रियता को या तो सीमा से ज्यादा खींच रहे हैं या राजनीति में शामिल हो रहे हैं।
आज यानी रविवार को प्रधानमंत्री सैयद युसुफ रज़ा गिलानी देश को संबोधित करने जा रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में कई बातें हुईं हैं। एक अंदेशा है कि सेना कहीं सत्ता न संभाल ले। उधर परवेज़ मुशर्रफ ने राजनीति में आने की घोषणा कर दी है। वे अभी विदेश में हैं। इफ्तिखार चौधरी उन्हें अपना दुश्मन मानते हैं। वहाँ की अदालतों में भी भ्रष्टाचार है। कट्टरपंथी लोग लोकप्रिय हैं। जिन्हें हम आतंकवादी कहते हैं, पाकिस्तान में वे सम्मानित राष्ट्रवादी हैं। उन्हें अदालतों से भी मदद मिलती है। हफीज़ सईद के मामले में आप देख चुके हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय प्रसारण के बाद मामला सुलट जाएगा, पर हालात को देते हुए लगता है कि कोई नया मसला उभरेगा। ज़रूरत इस बात की है कि यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करे और उसके बाद चुनाव हों और नई सरकार बने। लोकतंत्र की सारी प्रक्रियाएं कई बार सम्पन्न होती हैं तभी वह शक्ल लेता है। बहरहाल ताज़ा मामले पर डॉन का आज का सम्पादकीय पढ़ेः-
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