यह हफ्ता काफी
नाज़ुक साबित होने वाला है। कांग्रेस पार्टी ने देर से, लेकिन अपेक्षाकृत व्यवस्थित
तरीके से महीने की शुरूआत की है, पर 22 तारीख से शुरू हो रहे संसद के सत्र में साफ
हो जाएगा कि अगले लोकसभा चुनाव 2014 में होंगे या 2013 में। मनमोहन सिंह ने डिनर पर
मुलायम सिंह से और लंच पर मायावती से मुलाकात कर ली है। किसी को भी समझ में आता है
कि बात लोकसभा के फ्लोर मैनेजमेंट को लेकर हुई होगी। मतदान की नौबत आई तो क्या करेंगे? संगठन के स्तर पर भी बात हुई होगी। पर
प्रधानमंत्री की मुलाकात का मतलब समझ में आता है। उन्होंने सरकारी नीतियों को स्पष्ट
किया होगा या गलतफहमियों को दूर करने की कोशिश की होगी। सपा और बसपा पर दारोमदार है।
सहयोगी दलों के अलावा बीजेपी के साथ भी कांग्रेस का बैकरूम संवाद चल रहा है। आर्थिक
उदारीकरण के सवाल पर दोनों पार्टियों में वैचारिक सहमति है।
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Monday, November 19, 2012
Friday, November 2, 2012
ब्रेक के उस पार है रोचक तमाशा
कुछेक साल पुराना कार्टून जो हमेशा ताज़ा लगेगा |
संसद के पिछले सत्र में बीजेपी ने कोल ब्लॉक्स को लेकर प्रधानमंत्री के इस्तीफे की माँग की थी और सदन में कार्य नहीं होने दिया था। क्या इस बार यह पार्टी संसदीय कार्य में हिस्सा लेगी? तृणमूल कांग्रेस का कहना है कि सरकार अल्पमत में है, उसे सदन का विश्वास हासिल करना चाहिए। यह टेस्ट विधेयकों के पास होते समय भी किया जा सकता है। उस स्थिति में समाजवादी पार्टी और बसपा पर काफी कुछ निर्भर करेगा। दोनों पार्टियों ने फिलहाल सरकार गिराने का इरादा ज़ाहिर नहीं किया है। बसपा ने फैसला अपनी नेता पर छोड़ दिया है, जो बहुजन समाज के हित को देखते हुए उचित निर्णय करेंगी।
अन्ना हज़ारे और उनके साथ आए जनरल वीके सिंह संसद के घेराव की योजना बना रहे हैं। ममता बनर्जी भी कह रहीं हैं कि संसद भंग कर दो। कुछ लोगों को लगता है कि इस सत्र के दौरान सरकार की छुट्टी हो जाएगी, पर मुझे यह बात समझ में नहीं आती। कोई भी पार्टी अभी चुनाव के लिए तैयारदिखाई नहीं पड़ती। कोई सांसद यों भी अपनी सदस्यता डेढ़ साल पहले छोड़ना नहीं चाहेगा। अगले चुनाव में जीतने की कोई गारंटी नहीं है। संसद का कार्यक्रम घोषित होने के बाद पार्टियों के वक्तव्यों पर ध्यान देंगे तो राजनीति के अनेक रोचक अंतर्विरोध सामने आएंगे। तमाशा देखने लायक होगा।
Monday, October 29, 2012
संज़ीदगी के चक्कर में क़मेडी सर्कस बनती राजनीति
हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ, मगर चारे की ख़्वाहिश में/ बना हूँ मिम्बर-ए-कौंसिल
यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर
अकबर इलाहाबादी की सिफत थी कि वे अपने आसपास की दिखावटी दुनिया
पर पुरज़ोर वार करते थे। आज वे होते तो उन्हें लिखने का जो माहौल मिलता, वह उन्नीसवीं
सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के शुरुआती दो दशकों से बेहतर होता, जिस दौर में उन्होंने
लिखा। आज आप जिधर निगाहें उठाएं तमाम मिट्ठू मियाँ नज़र आएंगे। जसपाल भट्टी की उलट
बाँसियों में भी उसी किस्म का आनंद मिलता था। अपने दौर को किसी किस्म की छूट दिए बगैर
महीन किस्म की डाँट लगाने का फन हरेक के बस की बात नहीं। पर ज़माने की रफ्तार है कि
पहले से ज्यादा तेज़ हुई जा रही है। फेसबुक में किसी ने हाल के घोटालों की लिस्ट बनाकर
पेश की है। पढ़ते जाएं तो खत्म होने का नाम नहीं लेती। आलम यह है कि आज एक लिस्ट बनाओ,
कल चार नाम और जुड़े जाते हैं। भारतीय घोटाला-सेनानियों के खुश-खबरी यह है कि इधर दुनिया
के कुछ और नाम सुनाई पड़े हैं। पहले लगता था कि घोटालों में नाम जुड़ने से बदनामी होती
है, पर अब लगता है कि इससे एक किस्म की मान्यता मिलती है कि आदमी काम का है। संसद के
मॉनसून सत्र को सिर पर उठाने वाले भाजपाई नेताओं को अरविन्द केजरीवाल ने नितिन गडकरी
के नाम फूलों के गुलदस्ते भेजे तो सबने खुशी जताई कि इत्ती सा बात। हम तो ज्यादा बड़े
घोटालों की उम्मीद कर रहे थे। बहरहाल गडकरी जी के करिअर में गतिरोध आ रहा है। हालांकि
पार्टी के नेता साथ खड़े हैं, पर कहना मुश्किल है कि वे अगले सत्र के लिए अध्यक्ष चुने
जाएंगे या नहीं। उन्हें फिर से अध्यक्ष बनाने के लिए पार्टी ने संविधान में संशोधन
तक कर लिया था।
Friday, October 12, 2012
तोता राजनीति के मैंगो पीपुल
भारतीय राज-व्यवस्था के प्राण तोतों में बसने लगे हैं। एक तोता सीबीआई का है, जिसमें अनेक राजनेताओं के प्राण हैं। फिर मायावती, मुलायम सिंह, ममता और करुणानिधि के तोते हैं। उनमें यूपीए के प्राण बसते हैं। तू मेरे प्राण छोड़, मैं तेरे प्राण छोड़ूं का दौर है। ये सब तोते सात समंदर और सात पहाड़ों के पार सात परकोटों से घिरी मीनार की सातवीं मंजिल में सात राक्षसों के पहरे में रहते हैं। तोतों, पहाड़ों और राक्षसों की अनंत श्रृंखलाएं हैं, और राजकुमार लापता हैं। तिरछी गांधी टोपी सिर पर रखकर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में कटी बत्तियाँ जोड़ रहे हैं। हाल में उन्होंने गांधी के हिन्द स्वराज की तर्ज पर एक किताब लिखी है। टोपियाँ पहने आठ-दस लोगों ने एक नई पार्टी बनाने की घोषणा की है। पिछले 65 साल में भारतीय राजनीति में तमाम प्रतीक और रूपक बदले पर टोपियों और तोतों के रूपक नहीं बदले। इस दौरान हमने अपनी संस्थाओं, व्यवस्थाओं और नेताओं की खिल्ली उड़ानी शुरू कर दी है। आम आदमी ‘मैंगो पीपुल’ में तब्दील हो गया है। संज़ीदगी की जगह घटिया कॉमेडी ने ले ली है।
Monday, October 1, 2012
बीजेपी को चाहिए हाजमोला
लाल कृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में 15 सितम्बर को फ्रांसिस फुकुयामा की इतिहास का अंत अवधारणा का हवाला देते हुए भारतीय राजनीति के युगांतरकारी मोड़ का ज़िक्र किया है। उनके अनुसार 1989 भारत के राजनीतिक इतिहास का निर्णायक मोड़ रहा। इस वर्ष के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने एक लम्बी छलांग लगाते हुए 1984 की दयनीय दो सीटों के मुकाबले 86 सीटों का सम्मानजनक स्थान प्राप्त किया। भाजपा राष्ट्रीय राजनीति पर कांग्रेस पार्टी के एकाधिकार को चुनौती देने वाले मुख्य दल के रुप में उभरी। अगले दशक में भाजपा 1996 तक, तेजी से बढ़ती रही और कांग्रेस पार्टी सिकुड़ती गई, जब भाजपा लोक सभा में सर्वाधिक बड़े दल के रुप में उभरी, और 1998-1999 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने केंद्र सरकार का पूर्ण नियंत्रण संभाल लिया। आडवाणी जी ने लिखा, तब से, जब भी कोई मुझसे पूछता है: राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के मुख्य योगदान को आप कैसे निरूपित करेंगें; तो सदैव मेरा उत्तर रहता है: भारत की एकदलीय प्रभुत्व वाली राजनीति को द्विध्रुवीय राजनीति में परिवर्तित करना। यह उपलब्धि न केवल भाजपा अपितु कांग्रेस और निस्संदेह देश तथा इसके लोकतंत्र के लिए वरदान सिध्द हुई है। दुर्भाग्य से कांग्रेस पार्टी इसे इस रुप में नहीं लेती, भाजपा को एक मुख्य विपक्ष मानकर जिसके साथ सतत् सवांद करना शासन के लिए लाभकारी हो सकता है के बजाय इसे एक शत्रु के रुप में मानती है जिसे हटाना और किसी भी कीमत पर मिटाना उसका लक्ष्य है। प्रणव मुखर्जी अपवाद थे। नेता लोकसभा के रुप में यूपीए के अधिकांश कार्यकाल में उन्होंने मुख्य विपक्ष के नेतृत्व से निरंतर संवाद बनाए रखा।
Friday, September 28, 2012
चुनावी नगाड़े और महाराष्ट्र का शोर
ऐसा लगता है कि एनसीपी के ताज़ा विवाद में अजित पवार नुकसान उठाने जा रहे हैं। शरद पवार का कहना है कि यह विवाद सुलझ गया है। यानी अजित पवार का इस्तीफा मंज़ूर और बाकी मंत्रियों का इस्तीफा नामंज़ूर। आज शुक्रवार को मुम्बई में एनसीपी विधायकों की बैठक हो रही है, जिसमें स्थिति और साफ होगी।
नेपथ्य में चुनाव के नगाड़े बजने लगे हैं। तृणमूल कांग्रेस की विदाई के बाद एनसीपी के विवाद के शोर में नितिन गडकरी का संदेश भी शामिल हो गया है कि जल्द ही चुनाव के लिए तैयार हो जाइए। बीजेपी ने एफडीआई को मुद्दा बनाने का फैसला किया है। पिछले महीने कोल ब्लॉक पर बलिहारी पार्टी को यह मुद्दा यूपीए ने खुद आगे बढ़कर दे दिया है। पर व्यापक फलक पर असमंजस है। बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठकों के समांतर यूपीए समन्वय समिति की पहली बैठक गुरुवार को हुई। यह समन्वय समिति दो महीने पहले जुलाई के अंतिम सप्ताह में कांग्रेस और एनसीपी के बीच विवाद को निपटाने का कारण बनी थी। संयोग है कि उसकी पहली बैठक के लिए एक और विवाद खड़ा हो गया है। अब एनसीपी के टूटने का खतरा है और महाराष्ट्र में नए समीकरण बन रहे हैं। वास्तव में चुनाव करीब हैं। Monday, September 24, 2012
आर्थिक नहीं, संकट राजनीतिक है
बारहवीं योजना के दस्तावेज़ में से क्रोनी कैपीटलिज़्म शब्द हटाया जा रहा है। इसका ज़िक्र भारतीय आर्थिक व्यवस्था और हाल के घोटालों के संदर्भ में हुआ था। इस पर कुछ मंत्रियों का कहना था कि इस शब्द का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे क्रोनी कैपीटलिज़्म का भारतीय व्यवस्था में चलन साबित होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कई बार क्रोनी कैपीटलिज़्म के खतरों की ओर आगाह कर चुके हैं। इसी 12 सितम्बर को उन्होंने हाइवे प्रोजेक्ट्स में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को लेकर क्रोनी कैपीटलिज़्म के खतरों की ओर चेताया था। मनमोहन सिंह सन 2007 में इस प्रवृत्ति के खतरों की ओर चेता चुके हैं। आप कहेंगे वे खुद प्रधानमंत्री हैं और खुद सवाल उठा रहे हैं। पर सच यह है कि मनमोहन सिंह ने भारतीय पूँजी और राजनीति के रिश्तों पर कई बार ऐसी टिप्पणियाँ की हैं। हालांकि उदारीकरण का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर फूटता है, पर यह काजल की कोठरी है और इसमें बगैर दाग वाली कमीज़ किसी ने नहीं पहनी है। बहरहाल क्या हम योजना आयोग के दस्तावेज़ से यह शब्द हटाकर व्यवस्था को पारदर्शी बना सकते हैं? पिछले कुछ दिनों में यह बात बार-बार सामने आ रही है कि उदारीकरण का मतलब संसाधनों का कुछ परिवारों के नाम स्थानांतरण नहीं है। हमारा आर्थिक विकास रोज़गार पैदा करने में विफल रहा है। पर क्या ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, मायावती और बीजेपी व्यव्स्था को पारदर्शी बनाना चाहते हैं? क्या उनके विरोध के पीछे कोई आदर्श है? या यह सब ढोंग है?
Thursday, September 20, 2012
भारत बंद यानी अक्ल पर पड़ा ताला
जनता परेशान है। महंगाई की मार उसे जीने नहीं दे रही। इसलिए बंद। व्यापारियों को डर है कि खुदरा कारोबार में एफडीआई से उनके कारोबार पर खतरा है। बंद माने रेलगाड़ियाँ रोक दो। बसों को जला दो। दुकानें बंद करा दो भले ही दुकानदार उन्हें खोलना चाहे। भले ही जनता को ज़रूरी चीज़ें खरीदनी हों। देश का एक लोकप्रिय नारा है, माँग हमारी पूरी हो, चाहे जो मज़बूरी हो। जनता की परेशानियों को लेकर राजनीतिक दलों का विरोध समझ में आता है, पर रेलगाड़ियाँ रोकना क्या जनता की परेशानी बढ़ाना नहीं है? जिन प्रश्नों को लेकर पार्टियाँ बंद आयोजित करती हैं क्या उन्हें लेकर वे जनता को जागरूक बनाने का काम भी करती हैं?
इस बंद में भाजपा, सपा, वामपंथी दल, जेडीयू, जेडीएस, डीएमके और अन्ना डीएमके शामिल हैं। इन पार्टियों की जिन राज्यों में सरकार है वहाँ बंद को सफल होना ही है, क्योंकि वह सरकारी काम है। जिन सवालों पर बंद है उन्हें लेकर ये पार्टियाँ जनता के बीच कभी नहीं गईं। बीजेपी ने किसीको नहीं बताया कि सिंगिल ब्रांड रिटेल में एफडीआई तो हमारी देन है। इन पार्टियों में से सीपीएम और दो एक दूसरी पार्टियों को छोड़ दें तो प्रायः सबने दिल्ली की गद्दी पर बैठने का सुख प्राप्त किया है। कांग्रेस और बीजेपी के अलावा संयुक्त मोर्चा सरकार में ये सारी पार्टियाँ थीं, जिनके वित्तमंत्री पी चिदम्बरम हुआ करते थे। सबने उदारीकरण का समर्थन किया, उसे आगे बढ़ाया। पेंशन बिल भी तो बीजेपी की देन है। तब कांग्रेस ने उसका विरोध किया था। राजनीति का पाकंड ऐसे मौकों पर वीभत्स रूप में सामने आता है।
जनता के सवालों को उठाना राजनीति का काम है, पर क्या हमारी राजनीति जनता के सवालों को जानती है? राजनीतिक नेताओं का अहंकार बढ़ता जा रहा है। उनके आचरण में खराबी आती जा रही है। सबकी निगाहों अगले चुनाव पर हैं। सबको अपनी गोटी फिट करने की इच्छा है। आप सोचें क्या वास्तव में इस बंद से जनता सहमत है या थी?
इस बंद में भाजपा, सपा, वामपंथी दल, जेडीयू, जेडीएस, डीएमके और अन्ना डीएमके शामिल हैं। इन पार्टियों की जिन राज्यों में सरकार है वहाँ बंद को सफल होना ही है, क्योंकि वह सरकारी काम है। जिन सवालों पर बंद है उन्हें लेकर ये पार्टियाँ जनता के बीच कभी नहीं गईं। बीजेपी ने किसीको नहीं बताया कि सिंगिल ब्रांड रिटेल में एफडीआई तो हमारी देन है। इन पार्टियों में से सीपीएम और दो एक दूसरी पार्टियों को छोड़ दें तो प्रायः सबने दिल्ली की गद्दी पर बैठने का सुख प्राप्त किया है। कांग्रेस और बीजेपी के अलावा संयुक्त मोर्चा सरकार में ये सारी पार्टियाँ थीं, जिनके वित्तमंत्री पी चिदम्बरम हुआ करते थे। सबने उदारीकरण का समर्थन किया, उसे आगे बढ़ाया। पेंशन बिल भी तो बीजेपी की देन है। तब कांग्रेस ने उसका विरोध किया था। राजनीति का पाकंड ऐसे मौकों पर वीभत्स रूप में सामने आता है।
जनता के सवालों को उठाना राजनीति का काम है, पर क्या हमारी राजनीति जनता के सवालों को जानती है? राजनीतिक नेताओं का अहंकार बढ़ता जा रहा है। उनके आचरण में खराबी आती जा रही है। सबकी निगाहों अगले चुनाव पर हैं। सबको अपनी गोटी फिट करने की इच्छा है। आप सोचें क्या वास्तव में इस बंद से जनता सहमत है या थी?
Wednesday, September 19, 2012
ममता की वापसी के बाद
Monday, September 17, 2012
कहाँ से आ गई सरकार में इतनी हिम्मत?
ममता बनर्जी के रुख में बदलाव है और मुलायम सिंह की बातें गोलमोल हैं। लगता है आर्थिक उदारीकरण के सरकारी फैसलों के पहले गुपचुप कोई बात हो गई है।
पिछले साल सरकार आज के मुकाबले ज्यादा ताकतवर थी। 24 नवम्बर को मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश का फैसला करने के बाद सरकार ने नहीं, बंगाल की मुख्यमंत्री ने उस फैसले को वापस लेने की घोषणा की थी। इस साल रेलवे बजट में किराया बढ़ाने की घोषणा रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने की और वे भूतपूर्व हो गए। सरकार लगातार कमज़ोर होती जा रही है। ऐसे में आर्थिक सुधार की इन जबर्दस्त घोषणाओं का मतलब क्या निकाला जाए? पहला मतलब शेयर बाज़ार, मुद्रा बाज़ार और विदेश-व्यापार के मोर्चे पर दिखाई पड़ेगा। देश के बाहर बैठे निवेशकों की अच्छी प्रतिक्रियाएं मिलेंगी और साथ ही देश के राजनीतिक दलों का विरोध भी देखने को मिलेगा। यूपीए सरकार को विपक्ष से ज्यादा अपने बाड़े के भीतर से ही विरोध मिलेगा। ममता बनर्जी ने डीज़ल के दाम फौरन घटाने का सरकार से आह्वान भी कर दिया है। पर सवाल है सरकार में इतनी हिम्मत कहाँ से आ गई? इसका एक अर्थ यही है कि कांग्रेस पार्टी ने मन बना लिया है कि सरकार गिरती है तो गिरे। या फिर बैकरूम पॉलिटिक्स में फैसलों पर सहमतियाँ बन गईं हैं।
Sunday, September 2, 2012
रोचक राजनीति बैठी है इस काजल-द्वार के पार
कोल ब्लॉक्स के आबंटन पर सीएजी की रपट आने के बाद देश की राजनीति में जो लहरें आ रहीं हैं वे रोचक होने के साथ कुछ गम्भीर सवाल खड़े करती हैं। ये सवाल हमारी राजनीतिक और संवैधानिक व्यवस्था तथा मीडिया से ताल्लुक रखते हैं। कांग्रेस पार्टी का कहना है कि बीजेपी इस सवाल पर संसद में बहस होने नहीं दे रही है, जो अलोकतांत्रिक है। और बीजेपी कहती है कि संसद में दो-एक दिन की बहस के बाद मामला शांत हो जाता है। ऐसी बहस के क्या फायदा? कुछ तूफानी होना चाहिए।
भारतीय जनता पार्टी की यह बात अन्ना-मंडली एक अरसे से कहती रही है। तब क्या मान लिया जाए कि संसद की उपयोगिता खत्म हो चुकी है? जो कुछ होना है वह सड़कों पर होगा और बहस चैनलों पर होगी। कांग्रेस और बीजेपी दोनों पक्षों के लोग खुद और अपने समर्थक विशेषज्ञों के मार्फत बहस चलाना चाहते हैं। यह बहस भी अधूरी, अधकचरी और अक्सर तथ्यहीन होती है। हाल के वर्षों में संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद को अनेक तरीकों से ठेस लगी है। हंगामे और शोरगुल के कारण अनेक बिलों पर बहस ही नहीं हो पाती है। संसद का यह सत्र अब लगता है बगैर किसी बड़े काम के खत्म हो जाएगा। ह्विसिल ब्लोवर कानून, गैर-कानूनी गतिविधियाँ निवारण कानून, मनी लाउंडरिंग कानून, कम्पनी कानून, बैंकिंग कानून, पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी सीटों के आरक्षण का कानून जैसे तमाम कानून ठंडे बस्ते में रहेंगे। यह सूची काफी लम्बी है। क्या बीजेपी को संसदीय कर्म की चिंता नहीं है? और क्या कांग्रेस ईमानदारी के साथ संसद को चलाना चाहती है?
भारतीय जनता पार्टी की यह बात अन्ना-मंडली एक अरसे से कहती रही है। तब क्या मान लिया जाए कि संसद की उपयोगिता खत्म हो चुकी है? जो कुछ होना है वह सड़कों पर होगा और बहस चैनलों पर होगी। कांग्रेस और बीजेपी दोनों पक्षों के लोग खुद और अपने समर्थक विशेषज्ञों के मार्फत बहस चलाना चाहते हैं। यह बहस भी अधूरी, अधकचरी और अक्सर तथ्यहीन होती है। हाल के वर्षों में संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद को अनेक तरीकों से ठेस लगी है। हंगामे और शोरगुल के कारण अनेक बिलों पर बहस ही नहीं हो पाती है। संसद का यह सत्र अब लगता है बगैर किसी बड़े काम के खत्म हो जाएगा। ह्विसिल ब्लोवर कानून, गैर-कानूनी गतिविधियाँ निवारण कानून, मनी लाउंडरिंग कानून, कम्पनी कानून, बैंकिंग कानून, पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी सीटों के आरक्षण का कानून जैसे तमाम कानून ठंडे बस्ते में रहेंगे। यह सूची काफी लम्बी है। क्या बीजेपी को संसदीय कर्म की चिंता नहीं है? और क्या कांग्रेस ईमानदारी के साथ संसद को चलाना चाहती है?
Tuesday, August 28, 2012
देश चाहता है हर कालिख पर खुली बहस हो
लोकतंत्र के माने अराजकता, असमंजस, अनिश्चय और अस्थिरता है तो वह हमारे यहाँ सफल है। संसद के मौजूदा सत्र में प्रस्तावित 20 बैठकों में से आधी के आसपास गुज़र चुकीं हैं और काम-काज के नाम अ आ इ ई भी नहीं है। पहले असम और म्यामार से जुड़ी अफवाहों का बाज़ार गर्म था, फिर दक्षिण भारत के शहरों से भगदड़ की खबरें आईं। अब कोयले के काले धंधे की वजह से संसद ठप है। पिछले दो साल में तीसरी या चौथी बार संसद इस तरीके से ठप हुई है। सम्भव है आज की सर्वदलीय बैठक में कोई रास्ता निकल आए, पर हालात अच्छे नहीं हैं। देश पर सूखे की मार है। विकास-दर लगातार नीचे जा रही है। ऐसा चलता रहा तो रोजगार की स्थितियाँ बिगड़ जाएंगी। मुफलिसो-मज़लूम के सामने खड़ी मुश्किलों के पहाड़ बढ़ते ही जाएंगे।
Friday, July 20, 2012
राहुल को चाहिए एक जादू की छड़ी
राहुल ने नौ साल लगाए राजनीति में ज्यादा बड़ी भूमिका स्वीकार करने में। उनका यह विचार बेहतर था कि पहले ज़मीनी काम किया जाए, फिर सक्रिय भूमिका निभाई जाए। पर यह आदर्श बात है। हमारी राजनीति आदर्श पर नहीं चलती। और न राहुल किसी आदर्श के कारण महत्वपूर्ण हैं। वे तमाम राजनेताओं से बेहतर साबित होते बशर्ते वे उस कांग्रेस की उस संस्कृति से बाहर आ पाते जिसमें नेता को तमाम लोग घेर लेते हैं। बहरहाल अब राहुल सामने आ रहे हैं तो अच्छा है, पर काम मुश्किल है। नीचे पढ़ें जनवाणी में प्रकाशित मेरा लेख
हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून |
Tuesday, July 10, 2012
राष्ट्रपति-चुनाव से जुड़ी अटपटी-चटपटी राजनीति
भारतीय जनता पार्टी ने धमकी दी है कि प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत भी गए तो उनके खिलाफ चुनाव याचिका दायर की जाएगी। रिटर्निंग अफसर वीके अग्निहोत्री द्वारा विपक्ष की आपत्ति खारिज किए जाने के बाद अब सोमवार को जनता पार्टी के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी कुछ नए प्रमाणों के साथ एक नई शिकायत दर्ज कराएंगे। रिटर्निंग अफसर ने विपक्ष की इस आपत्ति को खारिज कर दिया था कि प्रणव मुखर्जी चूंकि भारतीय सांख्यिकी संस्थान के अध्यक्ष पद पर काम कर रहे हैं जो लाभ का पद है इसलिए उनका नामांकन खारिज कर दिया जाए। रिटर्निंग अफसर का कहना है कि प्रणव मुखर्जी ने 20 जून को यह पद छोड़ दिया था।
भाजपा नेता सुषमा स्वराज का कहना है कि प्रणव मुखर्जी नामांकन पत्र दाखिल करने के पहले इस्तीफा नहीं दे पाए थे। यह इस्तीफा बाद में बनाया गया, जिसमें प्रणव मुखर्जी के दस्तखत भी जाली हैं। यह इस्तीफा संस्थान के रिकॉर्ड में दर्ज नहीं है। यह 20 जून को लिखा गया, उसी रोज कोलकाता भेजा गया, उसी रोज स्वीकार होकर वापस आ गया। यह फर्जी है। बहरहाल इस मामले में जो भी हो, देखने की बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी इतने तकनीकी आधार पर इस मामले को क्यों उठा रही है? इससे क्या उसे कोई राजनीतिक लाभ मिल पाएगा? दो महीने पहले लगता था कि इस बार कांग्रेस के लिए राष्ट्रपति चुनाव भारी पड़ेगा और एनडीए उसे अर्दब में ले लेगा, पर ऐसा हुआ नहीं। एनडीए ने एक ओर तो अपना प्रत्याशी तय करने में देरी की, फिर अपने दो घटक दलों शिव सेना और जनता दल युनाइटेड को यूपीए प्रत्याशी के समर्थन में जाने से रोक नहीं पाया। और अब यह तकनीकी विरोध बचकाना लगता है। शुरू में सुषमा स्वराज ने कहा था कि हम कांग्रेस प्रत्याशी का समर्थन नहीं करेंगे, क्योंकि 2014 के चुनाव में हम यूपीए से सीधे मुकाबले में हैं। यह हमारे लिए राजनीतिक प्रश्न है।
भाजपा नेता सुषमा स्वराज का कहना है कि प्रणव मुखर्जी नामांकन पत्र दाखिल करने के पहले इस्तीफा नहीं दे पाए थे। यह इस्तीफा बाद में बनाया गया, जिसमें प्रणव मुखर्जी के दस्तखत भी जाली हैं। यह इस्तीफा संस्थान के रिकॉर्ड में दर्ज नहीं है। यह 20 जून को लिखा गया, उसी रोज कोलकाता भेजा गया, उसी रोज स्वीकार होकर वापस आ गया। यह फर्जी है। बहरहाल इस मामले में जो भी हो, देखने की बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी इतने तकनीकी आधार पर इस मामले को क्यों उठा रही है? इससे क्या उसे कोई राजनीतिक लाभ मिल पाएगा? दो महीने पहले लगता था कि इस बार कांग्रेस के लिए राष्ट्रपति चुनाव भारी पड़ेगा और एनडीए उसे अर्दब में ले लेगा, पर ऐसा हुआ नहीं। एनडीए ने एक ओर तो अपना प्रत्याशी तय करने में देरी की, फिर अपने दो घटक दलों शिव सेना और जनता दल युनाइटेड को यूपीए प्रत्याशी के समर्थन में जाने से रोक नहीं पाया। और अब यह तकनीकी विरोध बचकाना लगता है। शुरू में सुषमा स्वराज ने कहा था कि हम कांग्रेस प्रत्याशी का समर्थन नहीं करेंगे, क्योंकि 2014 के चुनाव में हम यूपीए से सीधे मुकाबले में हैं। यह हमारे लिए राजनीतिक प्रश्न है।
Monday, July 2, 2012
सुधारों के लिए चाहिए साहस
इस हफ्ते शेयर बाज़ार, मुद्रा बाज़ार और विदेश-व्यापार के मोर्चे से कुछ अच्छी खबरें मिल सकती हैं। शायद मॉनसून भी इस हफ्ते तेजी पकड़े, पर बड़े स्तर पर बदलाव के लिए सरकार और मोटे तौर पर पूरी राजनीति को हिम्मत दिखानी होगी।
Monday, June 18, 2012
समय से सबक सीखो ममता दी
पिछले बुधवार सोनिया गांधी के साथ मुलाकात करने के बाद ममता बनर्जी जितनी ताकतवर नज़र आ रहीं थीं, उतनी ही कमज़ोर आज लग रहीं हैं। राजनीति में इस किस्म के उतार-चढ़ाव अक्सर आते हैं, पर पिछले एक अरसे से ममता बनर्जी का जो ग्राफ क्रमशः ऊपर जा रहा था, वह ठहर गया है। एक झटके में उनकी सीमाएं भी सामने आ गईं। अभी तक कांग्रेस मुलायम सिंह के मुकाबले ममता को ज्यादा महत्व दे रही थी, क्योंकि उसे पता है कि मुलायम सिंह अपनी कीमत वसूलना जानते हैं। ममता बनर्जी ने जो बाज़ी चली वह कमजोर थी। जिन एपीजे अब्दुल कलाम को वे प्रत्याशी बनाना चाहती थीं उनकी रज़ामंदी उनके पास नहीं थी। बहरहाल वे अब अकेली और मुख्यधारा की राजनीति से कटी नज़र आती हैं। बेशक उनके पास विकल्प खुले हैं। पर एक साल के मुख्यमंत्री पद और पिछले छह महीने में राष्ट्रीय राजनीति से प्राप्त अनुभवों का लाभ उन्हें उठाना चाहिए। वे देश की उन कुछ नेताओं में से एक हैं जो सिर्फ अपने दम पर राजनीति की राह बदल सकते हैं। देखना यह है कि बदलते वक्त से वे कोई सबक सीखती हैं या नहीं।
चुनौतियाँ शुरू होंगी राष्ट्रपति चुनाव के बाद
हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून |
Friday, June 15, 2012
यह राजनीतिक समुद्र मंथन है
हिन्दू सें सुरेन्द्र का कार्टून |
Monday, June 11, 2012
यह अतुल्य भारत का अंत नहीं है
यह भारत की विकास कथा का अंत है। एक वामपंथी पत्रिका की कवर स्टोरी का शीर्षक है। आवरण कथा के लेखक की मान्यता है कि आर्थिक विकास में लगे ब्रेक का कारण यूरोपीय आर्थिक संकट नहीं देश की नीतियाँ हैं। उधर खुले बाजार की समर्थक पत्रिका इकोनॉमिस्ट की रिपोर्ट का शीर्षक है ‘फेयरवैल टु इनक्रेडिबल इंडिया’ अतुल्य भारत को विदा। वामपंथी और दक्षिणपंथी एक साथ मिलकर सरकार को कोस रहे हैं। देश की विकास दर सन 2011-12 की अंतिम तिहाई में 5.3 फीसदी हो गई। पिछले सात साल में ऐसा पहली बार हुआ। पूरे वित्त वर्ष में यह 7 फीसदी से नीचे थी। निर्माण क्षेत्र में यह 3 फीसदी थी जो इसके एक साल पहले 9 फीसदी हुआ करती थी। राष्ट्रीय उपभोक्ता मूल्य सूचकांक अप्रेल में 10.4 प्रतिशत हो गया, जो मार्च में 8.8 और फरवरी में 7.7 था। विदेश व्यापार में घाटा एक साल में 56 फीसदी बढ़ गया। विदेशी मुद्रा कोष में लगातार गिरावट हो रही है। जो कोष 300 से काफी ऊपर होता था, वह 25 मई को 290 अरब डॉलर रह गया है। रुपए की कीमत लगातार गिर रही है।
Saturday, June 9, 2012
न इधर और न उधर की राजनीति
मंजुल का कार्टून साभार |
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