संसद का शीत सत्र कल से शुरू हो रहा है
और कल ही देश पहली बार अपना संविधान दिवस मनाएगा. सन 1949 में 26 नवम्बर को
हमारा संविधान स्वीकार किया गया था, जिसे 26 जनवरी 1950 से लागू किया गया था. इस
साल हम देश भर में संविधान से जुड़े कार्यों को देखेंगे. इस साल डॉ भीमराव अंबेडकर
की 125वीं जयंती भी मनायी जा रही है. इन दिवसों की औपचारिकताओं के साथ यह देखने की
जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है हमारे लोकतंत्र के सिद्धांत और व्यवहार में
किस तरह की विसंगतियाँ हैं. समाज के श्रेष्ठ और निकृष्ट दोनों इसी राजनीति में है.
इसकी एक परीक्षा संसद के सत्रों में होती है. इसमें दो राय नहीं कि भारतीय संसद
समय की कसौटी पर खरी उतरी है, पर अफसोस के मौके भी आए. इस साल संसद का शीत सत्र
शोर-शराबे का शिकार रहा. उससे हमारे लोकतंत्र के आलोचकों को मौका मिला. चुनौती यह
साबित करने की है कि राजनीति घटिया काम नहीं है.
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Wednesday, November 25, 2015
Thursday, October 29, 2015
गीता क्या रोशनी की किरण बनेगी?
पिछले साल केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से विदेश नीति से जुड़े मामलों में उन्हें सफलता मिली है, पर पाकिस्तान के साथ रिश्तों में सुधार होने के बजाय तल्खी बढ़ी है. भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में एक-दूसरे के प्रति कड़वाहट है. दोनों तरफ का मीडिया इसमें तड़का लगाता है. ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब नकारात्मक खबर न होती हो. इधर भारत से भटक कर पाकिस्तान चली गई गीता की कहानी से कुछ सकारात्मक पहलू सामने आए हैं. पर पाकिस्तान के उर्दू मीडिया में इसके नकारात्मक पहलू को ज्यादा जगह मिली है.
पाकिस्तान में खबर सुर्खियों में है कि उनके ईधी फाउंडेशन ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दी गई एक करोड़ की धनराशि ठुकरा दी. ईधी फाउंडेशन ने गीता को अपने यहाँ रखा था. उसके स्थापक अब्दुल सत्तार ईधी ने प्रधानमंत्री को उनकी सहृदयता के लिए धन्यवाद देते हुए वित्तीय सहायता अस्वीकार कर दिया. साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि हम किसी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं लेते. इस खबर को पाकिस्तान में राष्ट्रवादी स्वाभिमान के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जबकि ईधी फाउंडेशन ने ऐसा नहीं कहा.
पाकिस्तान में खबर सुर्खियों में है कि उनके ईधी फाउंडेशन ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दी गई एक करोड़ की धनराशि ठुकरा दी. ईधी फाउंडेशन ने गीता को अपने यहाँ रखा था. उसके स्थापक अब्दुल सत्तार ईधी ने प्रधानमंत्री को उनकी सहृदयता के लिए धन्यवाद देते हुए वित्तीय सहायता अस्वीकार कर दिया. साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि हम किसी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं लेते. इस खबर को पाकिस्तान में राष्ट्रवादी स्वाभिमान के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जबकि ईधी फाउंडेशन ने ऐसा नहीं कहा.
Thursday, October 15, 2015
प्रो डीटन को नोबेल और भारत की गरीबी
आर्थिक विकास, व्यक्तिगत उपभोग और गरीबी उन्मूलन के बीच क्या कोई सूत्र है? यह इक्कीसवीं सदी के अर्थशास्त्रियों के सामने महत्वपूर्ण सैद्धांतिक प्रश्न है. पिछले डेढ़-दो सौ साल में दुनिया की समृद्धि बढ़ी, पर असमानता कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी. ऐसा क्यों हुआ और रास्ता क्या है? इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार प्रिंसटन विश्वविद्यालय के माइक्रोइकोनॉमिस्ट प्रोफेसर एंगस डीटन को देने की घोषणा की गई है. वे लम्बे अरसे से इस सवाल से जूझ रहे हैं. भारत उनकी प्रयोगशाला रहा है. उनके ज्यादातर अध्ययन पत्र भारत की गरीबी और कुपोषण की समस्या से जुड़े हैं. उनकी धारणा है कि आर्थिक विकास की परिणति विषमता भी है, पर यदि यह काफी बड़े तबके को गरीबी के फंदे से बाहर निकाल रहा है, तो उसे रोका नहीं जा सकता. इसके लिए जनता और शासन के बीच में एक प्रकार की सहमति होनी चाहिए.
Friday, October 9, 2015
पुरस्कार वापसी और उससे जुड़ी राजनीति
तीन लेखकों की पुरस्कार-वापसी के बाद स्वाभाविक रूप से कुछ
बुनियादी सवाल उठे हैं. क्या इन लेखकों की अपील सरकार तक पहुँचेगी? क्या उनके पाठकों तक इस बात का कोई
संदेश जाएगा? एक
सवाल उन लेखकों के सामने भी है जो अतीत में सम्मानित हो चुके हैं या होने वाले है. क्या उन्हें भी सम्मान लौटाने चाहिए? नहीं लौटाएंगे तो क्या मोदी सरकार के
समर्थक माने जाएंगे? पुरस्कार
वापसी ने इस मसले को महत्वपूर्ण बना दिया है. लगातार बिगड़ते सामाजिक माहौल की तरफ
किसी ने तो निगाह डाली. किसी ने विरोध व्यक्त करने की हिम्मत की. दुर्भाग्य है कि
इस दौरान गुलाम अली के कार्यक्रम के खिलाफ शिवसेना ने हंगामा खड़ा कर रखा है. इस तरह की बातों
का विरोध होना ही चाहिए. डर यह भी है कि यह इनाम वापसी संकीर्ण राजनीति का हिस्सा बनकर
न रह जाए, क्योंकि इसे उसी राजनीतिक कसौटी पर रखा जा रहा है जिसने ऐसे हालात पैदा किए हैं.
Wednesday, September 30, 2015
विदेश में रहने वाले भारतवंशी मोदी के दीवाने क्यों?
नरेंद्र मोदी अच्छे सेल्समैन की तरह विदेशी जमीन पर भारत का जादू जगाने में कामयाब रहे हैं. पिछले साल सितंबर में अमेरिका की यात्रा से उन्होंने जो जादू बिखेरना शुरू किया था, वह अभी तक हवा में है. उनकी राष्ट्रीय नीतियों को लेकर तमाम सवाल हैं, बावजूद इसके भारत के बाहर वे जहाँ भी गए गहरी छाप छोड़कर आए. यह बात पड़ोस के देश नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश और श्रीलंका से शुरू होकर जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, चीन, रूस, मध्य एशिया, संयुक्त अरब अमीरात से लेकर आयरलैंड तक साबित हुई.
मोदी की ज्यादातर यात्राओं के दो हिस्से होते हैं. विदेशी सरकारों से मुलाकात और वहाँ के भारतवंशियों से बातें. भारतवंशियों के बीच जाकर वे सपनों के शीशमहल बनाते हैं साथ ही देशी राजनीति पर चुटकियाँ लेते हैं, जिससे उनके विरोधी तिलमिलाता जाते हैं. उनका यह इंद्रजाल तकरीबन हरेक यात्रा के दौरान देखने को मिला है. उनकी हर कोशिश को लफ्फाजी मानने वाले भी अभी हार मानने को तैयार नहीं हैंं. पर दोनों बातें सच नहीं हो सकतीं. सच इनके बीच में है, पर कितना बीच में?
Wednesday, September 16, 2015
नेपाल के बहाने सेक्युलर-संवाद
नेपाल में संविधान सभा की पुष्टि के बाद धर्म-निरपेक्षता
शब्द चर्चा का विषय बन गया है. खासतौर से भारत में जहाँ यह एक राजनीतिक अवधारणा के
रूप में सामने आ रहा है. उदार, अनुदार, प्रगतिशील, प्रतिक्रियावादी जैसे शब्द हमारे
यहाँ पश्चिम से आए हैं. इनमें धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा भी शामिल है, जिसे लेकर
समूचे दक्षिण एशिया में भ्रम की स्थिति है. भारतीय राजनीति में इसे गैर-हिंदू (गैर-सांप्रदायिक)
अवधारणा के रूप में पेश किया जाता है, वहीं दूसरी ओर इसे मुस्लिम परस्त, छद्म विचार
के रूप में पेश किया जाता है. कुछ लोग मानते हैं कि भारत की धार्मिक बहुलता को
देखते हुए धर्म-निरपेक्षता अनिवार्यता है. पर धर्म-निरपेक्षता को केवल सामाजिक
संतुलनकारी विचार मानने से उसका मतलब अधूरा रह जाता है. इसे सर्वधर्म-समभाव तक
सीमित करना इसके अर्थ को संकुचित बनाता है.
भारत के मुसलमान धर्म-निरपेक्ष राजनीति के पक्षधर हैं, वहीं
पाकिस्तान और बांग्लादेश में धर्म-निरपेक्षता को नास्तिकता का समानार्थी साबित
किया जा रहा है. भारतीय जनता पार्टी इसे ‘छद्म धर्म-निरपेक्षता’ कहती है. नेपाल की
संविधान सभा ने तकरीबन सर्वानुमति से देश को धर्म-निरपेक्ष घोषित कर तो दिया है,
पर लगता है कि वहाँ के राजनीतिक दल जनता को इसका मर्म समझाने में नाकामयाब रहे हैं.
वहाँ की राजनीति एक हद तक भारतीय राजनीति के
प्रभाव में रहती है. इसीलिए वहाँ के मुख्य राजनीतिक दलों ने धर्मनिरपेक्ष राज्य-व्यवस्था
का समर्थन किया है. यदि वहाँ के संविधान में धर्म-निरपेक्षता शब्द नहीं होता तो
क्या होता?
Thursday, September 3, 2015
इस गलीज संस्कृति के खतरे
अकल्पनीय
मानवीय रिश्तों की कहानियाँ गढ़ना फिल्म निर्माता महेश भट्ट का शौक है. उनमें
कल्पनाशीलता का पुट होता है, यानी जो नहीं है फिर भी रोचक है. पर हाल में शीना
हत्याकांड की खबर सुनने के बाद वे भी विस्मय में पड़ गए. उनका कहना है, मैं तकरीबन
इसी प्लॉट पर कहानी तैयार कर रहा था. उसका शीर्षक है ‘अब रात गुजरने वाली है.’ अक्सर फिल्मी कहानियां जिंदगी के पीछे
चलती हैं, परंतु
इस मामले में घटनाक्रम कहानी से आगे चल रहा है.
Wednesday, August 19, 2015
यूएई और भारत, दोनों के लिए मौका
संसदीय
गतिरोध और राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के गिरते ग्राफ की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की यूएई यात्रा क्या मददगार साबित होगी? इस यात्रा से भारत में बेहतर
पूँजी निवेश, इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में निर्माण की सम्भावनाओं और खाड़ी के
देशों में रहने वाले भारतीयों के लिए सेवा के अवसर बढ़ेंगे. पर केवल इतना ही नहीं.
पश्चिम एशिया में शक्ति संतुलन बदल रहा है, जिसके बरक्स भारत को अपनी भूमिका में
भी बदलाव लाना होगा. सवाल है कि अचानक हुई इस यात्रा का मकसद क्या था.
Thursday, August 6, 2015
पूर्वोत्तर का महत्त्व बढ़ेगा
नगालैंड का शांति समझौता ऐसे समय में हुआ है, जब दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ भारत अपने रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है. उधर का रास्ता पूर्वोत्तर से होकर गुजरता है, जो देश का सबसे संवेदनशील इलाका है. सब ठीक रहा तो यह समझौता केवल नगालैंड की ही नहीं पूरे पूर्वोत्तर की कहानी बदल सकता है. एनएससीएन (आईएम) के साथ समझौते की जिस रूपरेखा पर दस्तखत किए गए हैं, उसकी शर्तों की जानकारी अभी नहीं है। उम्मीद है कि 18 साल के विचार-विमर्श ने इस समझौते की बुनियाद पक्की बना दी होगी.
सरकार ने इस मामले में काफी सावधानी से कदम रखे हैं. समझौते पर दस्तखत से पहले प्रधानमंत्री ने सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, मल्लिकार्जुन खड़गे, मुलायम सिंह यादव, मायावती, शरद पवार, सीताराम येचुरी, ममता बनर्जी, जे जयललिता, नगालैंड के मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग और दूसरे राजनेताओं के साथ बात की थी. इसलिए समझौते को लेकर आंतरिक राजनीति में विवाद का अंदेशा नहीं है. अलबत्ता इसके पूरी तरह लागू होने से पहले कुछ सवाल जरूर हैं.
सरकार ने इस मामले में काफी सावधानी से कदम रखे हैं. समझौते पर दस्तखत से पहले प्रधानमंत्री ने सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, मल्लिकार्जुन खड़गे, मुलायम सिंह यादव, मायावती, शरद पवार, सीताराम येचुरी, ममता बनर्जी, जे जयललिता, नगालैंड के मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग और दूसरे राजनेताओं के साथ बात की थी. इसलिए समझौते को लेकर आंतरिक राजनीति में विवाद का अंदेशा नहीं है. अलबत्ता इसके पूरी तरह लागू होने से पहले कुछ सवाल जरूर हैं.
Wednesday, July 22, 2015
अभी कितनी दूर है अंतरिक्ष का जीव?
नासा की मुख्य वैज्ञानिक एलेन स्टोफन
ने इस साल अप्रैल में एक सम्मेलन में कहा, मुझे लगता है कि एक दशक के भीतर हमारे पास
पृथ्वी से दूर अन्य ग्रहों पर भी जीवन के बारे में ठोस प्रमाण होंगे. हम जानते हैं कि कहां और कैसे खोज करनी है.
उनकी बात का मतलब यह नहीं कि अगले दस साल में हम विचित्र शक्लों वाले जीवधारियों
से बातें कर रहे होंगे. उन्होंने कहा था, हम एलियन के बारे में नहीं, छोटे-छोटे
जीवाणुओं ज़िक्र कर रहे हैं.
आपने फिल्म ईटी देखी होगी. नहीं तो
टीवी सीरियल देखे होंगे जिनमें सुदूर अंतरिक्ष में रहने वाले जीवों की कल्पना की
गई है. परग्रही प्राणियों से मुलाकात की कल्पना हमारे समाज, लेखकों, फिल्मकारों
और पत्रकारों को रोमांचित करते रही है. अखबारों में, टीवी में उड़न-तश्तरियों की खबरें
अक्सर दिखाई पड़ती हैं. हॉलीवुड से बॉलीवुड तक फिल्में बनी हैं. परग्रही जीवन के
संदर्भ में वैज्ञानिक अब नए प्रश्न पूछ रहे हैं. परग्रही जीवन कैसा होता होगा? कितने
समय में उसका पता चलेगा और हम इसे कैसे पहचानेंगे? हाल के निष्कर्ष हैं कि यह जीवन हमारे
काफी करीब है. वह धरती के आसपास के ग्रहों या उनके उपग्रहों में हो सकता है.
ब्रिटिश भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग
ने सोमवार को 10 करोड़ डॉलर की जिस परियोजना का सूत्रपात किया है वह मनुष्य जाति
के इतिहास के सबसे रोमांचक अध्याय पर से पर्दा उठा सकती है. यह परियोजना रूसी मूल के अमेरिकी
उद्यमी और सिलिकॉन वैली तकनीकी निवेशक यूरी मिलनर ने की है. मिलनर सैद्धांतिक
भौतिक-विज्ञानी भी हैं. इस परियोजना में कारोबार कम एडवेंचर ज्यादा है. कोई
वैज्ञानिक विश्वास के साथ नहीं कह सकता कि अंतरिक्ष में जीवन है. किसी के पास
प्रमाण नहीं है. पर कार्ल सागां जैसे अमेरिकी वैज्ञानिक मानते रहे हैं कि अंतरिक्ष
की विशालता और इनसान की जानकारी की सीमाओं को देखते हुए यह भी नहीं कहा जा सकता कि
जीवन नहीं है.
Thursday, July 9, 2015
अमेरिका के बाद अब रूस-चीन दोस्ती
आज उफा में भारत और पाकिस्तान के एकसाथ शंघाई सहयोग संगठन में शामिल होने की घोषणा होगी. रूस और चीन दोनों का आग्रह और समर्थन इनकी सदस्यता को लेकर है. मई की चीन यात्रा के बाद से घटनाक्रम काफी बदला है. खासतौर से पाकिस्तान के बरक्स चीन और रूस दोनों के रिश्तों में बदलाव आया है. शायद वैश्विक राजनीति की धारा बदल रही है, पर देखना यह है कि भारत एक ओर अमेरिका और जापान के साथ और दूसरी ओर रूस-चीन के साथ रिश्तों का मेल किस तरह बैठाएगा. हालांकि अभी काफी बातें साफ नहीं हैं, पर लगता है कि रूस और चीन की धुरी बन रही है. देखते ही देखते चीन का रूस से पेट्रोलियम आयात कहाँ से कहाँ पहुँच गया है. दोनों देश अब मध्य एशिया में सक्रिय हो रहे हैं. अफगानिस्तान में भी दोनों की दिलचस्पी है. शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के बाद उफा में ब्रिक्स देशों का सातवाँ शिखर सम्मेलन होने जा रहा है. यह संगठन वैश्विक आर्थिक-राजनीतिक गतिविधियों का नया केंद्र बनेगा. इसे पूरी तरह रूस-चीन धुरी का केंद्र नहीं कह सकते, पर इसके तत्वावधान में बन रहा विकास बैंक एक नई समांतर व्यवस्था के रूप में जरूर उभरेगा. उधर चीन ने एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) की आधारशिला डालकर एशिया विकास बैंक और अमेरिकी-जापानी प्रभुत्व को चुनौती दे दी है. इन व्यवस्थाओं से लाभ यह होगा कि विकासशील देशों में पूँजी निवेश बढ़ेगा और खासतौर से आधार ढाँचा मजबूत होगा, पर सामरिक टकराव भी बढ़ेंगे. भारतीय विदेश नीति में 'एक्ट ईस्ट' के बाद 'कनेक्ट सेंट्रल एशिया' की योजना भी नरेंद्र मोदी की इस विदेश-यात्रा के दौरान सामने आई है.
वैश्विक राजनीति और अर्थ-व्यवस्था में तेजी से बदलाव आ रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मध्य एशिया और रूस की इस यात्रा पर गौर करें तो इस बदलाव की झलक देखने को मिलेगी. इस यात्रा के तीन अलग-अलग पहलू हैं, जिनका एक-दूसरे से सहयोग का रिश्ता है और आंतरिक टकराव भी हैं. इसका सबसे बड़ा प्रमाण आज 9 जुलाई को रूस के उफा शहर में देखने को मिलेगा, जहाँ शंघाई (शांगहाई) सहयोग संगठन (एससीओ) का शिखर सम्मेलन है. इसमें भारत और पाकिस्तान को पूर्ण सदस्य का दर्जा मिलने वाला है. यह राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक सहयोग का संगठन है. इसमें भारत और पाकिस्तान का एकसाथ शामिल होना निराली बात है. इसके बाद उफा में ब्रिक्स देशों का सातवाँ शिखर सम्मेलन है. ब्रिक्स देश एक नई वैश्विक संरचना बनाने में लगे हैं, जो पश्चिमी देशों की व्यवस्था के समांतर है.
विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के समांतर एक नई व्यवस्था कायम होने जा रही है. यह व्यवस्था ऐसे देश कायम करने जा रहे हैं, जिनकी राजनीतिक और आर्थिक संरचना एक जैसी नहीं है और सामरिक हित भी एक जैसे नहीं हैं, फिर भी वे सहयोग का सामान इकट्ठा कर रहे हैं. यह व्यवस्था पश्चिमी देशों के नियंत्रण वाली व्यवस्था के समांतर है, बावजूद इसके यह उसके विरोध में नहीं है. ब्रिक्स में भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका की राजनीतिक व्यवस्था पश्चिमी देशों के तर्ज पर उदार है, वहीं चीन और रूस की व्यवस्था अधिनायकवादी है. बावजूद इसके सहयोग के नए सूत्र तैयार हो रहे हैं. इससे जुड़े कुछ संशय भी सामने हैं.
वैश्विक राजनीति और अर्थ-व्यवस्था में तेजी से बदलाव आ रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मध्य एशिया और रूस की इस यात्रा पर गौर करें तो इस बदलाव की झलक देखने को मिलेगी. इस यात्रा के तीन अलग-अलग पहलू हैं, जिनका एक-दूसरे से सहयोग का रिश्ता है और आंतरिक टकराव भी हैं. इसका सबसे बड़ा प्रमाण आज 9 जुलाई को रूस के उफा शहर में देखने को मिलेगा, जहाँ शंघाई (शांगहाई) सहयोग संगठन (एससीओ) का शिखर सम्मेलन है. इसमें भारत और पाकिस्तान को पूर्ण सदस्य का दर्जा मिलने वाला है. यह राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक सहयोग का संगठन है. इसमें भारत और पाकिस्तान का एकसाथ शामिल होना निराली बात है. इसके बाद उफा में ब्रिक्स देशों का सातवाँ शिखर सम्मेलन है. ब्रिक्स देश एक नई वैश्विक संरचना बनाने में लगे हैं, जो पश्चिमी देशों की व्यवस्था के समांतर है.
विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के समांतर एक नई व्यवस्था कायम होने जा रही है. यह व्यवस्था ऐसे देश कायम करने जा रहे हैं, जिनकी राजनीतिक और आर्थिक संरचना एक जैसी नहीं है और सामरिक हित भी एक जैसे नहीं हैं, फिर भी वे सहयोग का सामान इकट्ठा कर रहे हैं. यह व्यवस्था पश्चिमी देशों के नियंत्रण वाली व्यवस्था के समांतर है, बावजूद इसके यह उसके विरोध में नहीं है. ब्रिक्स में भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका की राजनीतिक व्यवस्था पश्चिमी देशों के तर्ज पर उदार है, वहीं चीन और रूस की व्यवस्था अधिनायकवादी है. बावजूद इसके सहयोग के नए सूत्र तैयार हो रहे हैं. इससे जुड़े कुछ संशय भी सामने हैं.
Friday, July 3, 2015
‘व्यापम’ यानी भ्रष्टाचार का नंगा नाच
जिस तरह सन 2010 में टू-जी मामले ने यूपीए सरकार की अलोकप्रियता की बुनियाद डाली थी, लगभग उसी तरह मध्य प्रदेश का व्यापम घोटाला भारतीय जनता पार्टी के गले की हड्डी बनेगा. लगता यह है कि अगले कुछ दिनों में शिवराज सिंह चौहान सरकार के लिए यह खतरे का संदेश लेकर आ रहा है. इसमें व्यक्तिगत रूप से वे भी घिरे हैं. और अब जितना इस मामले को दबाने की कोशिश होगी, उतना ही यह उभर कर आएगा. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों इसे राजनीतिक समस्या मानकर चल रहे हैं, जबकि यह केस देश की सड़ती प्रशासनिक व्यवस्था और भ्रष्ट राजनीति की पोल खोल रहा है. हैरत है कि हमारा हाहाकारी मीडिया अभी तक इस हल्के ढंग से ले रहा है. यह मामला दूसरी बार सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर आया है और लगता है कि यहाँ से यह निर्णायक मोड़ लेगा.
Wednesday, June 24, 2015
दक्षिण एशिया में उप-क्षेत्रीय सहयोग के नए द्वार
सोमवार को चीन ने नाथूला होकर कैलाश मानसरोवर तक जाने का दूसरा रास्ता खोल दिया गया. चीन ने भारत के साथ विश्वास बहाली के उपायों के तहत यह रास्ता खोला है. इस रास्ते से भारतीय तीर्थ यात्रियों को आसानी होगी. धार्मिक पर्यटन के अलावा यहाँ आधुनिक पर्यटन की भी अपार सम्भावनाएं हैं. पर सिद्धांततः यह आर्थिक विकास के नए रास्तों को खोलने की कोशिश है.
Wednesday, June 10, 2015
दिल्ली में सियासी नौटंकी
दिल्ली में केंद्र और राज्य
सरकार के बीच टकराव मर्यादा की सीमाएं तोड़ रहा है. स्थिति हास्यास्पद हो चुकी है.
सरकार का कानून मंत्री फर्जी डिग्री के आरोप में गिरफ्तार है. सवाल उठ रहे हैं कि
गिरफ्तारी की इतनी जल्दी क्या थी? इस मामले में अदालती फैसले
का इंतज़ार क्यों नहीं किया गया? मंत्री के खिलाफ एफआईआर
करने वाली दिल्ली बार काउंसिल से भी सवाल किया जा रहा है कि उसके पंजीकरण की
व्यवस्था कैसी है, जिसमें बगैर कागज़ों की पक्की पड़ताल के वकालत का लाइसेंस मिल
गया? प्रदेश सरकार अपने ही उप-राज्यपाल के खिलाफ
कानूनी कार्रवाई की धमकी दे रही है. उप-राज्यपाल ने एंटी करप्शन ब्रांच के प्रमुख
पद पर एक पुलिस अधिकारी की नियुक्ति कर दी. सरकार ने उस नियुक्ति को खारिज कर
दिया, फिर भी उस अधिकारी ने नए पद पर काम शुरू करके अपने अधीनस्थों के साथ बैठक कर
ली. कहाँ है दिल्ली की गवर्नेंस? यह सब कैसा नाटक है? आम आदमी पार्टी इसे केजरीवाल बनाम मोदी की लड़ाई के रूप
में पेश कर रही है. क्या है इसके पीछे की सियासत?
Wednesday, May 27, 2015
कहाँ ले जाएगा शिक्षा का ‘मार्क्सवाद’?
सीबीएसई की 12वीं कक्षा की परीक्षा में
इस साल टॉप करने वाली दिल्ली एम गायत्री ने कॉमर्स विषयों में 500 में से 496 अंक (अथवा 99.2 प्रतिशत) हासिल देशभर
में टॉप किया. यानी पाँच विषयों में उनके कुल जमा चार अंक कटे. नोएडा की मैथिली
मिश्रा और तिरुअनंतपुरम के बी अर्जुन संयुक्त रूप से दूसरे स्थान पर रहे. इन दोनों
को 500 में 495 अंक (99 प्रतिशत) प्राप्त हुए.
इसके पहले सीबीएसई की 10 वें दर्जे की परीक्षा के परिणाम आए
थे. आईसीएसई तथा देश के अलग-अलग राज्यों की बोर्ड परीक्षा के परिणाम आ रहे हैं या
आने वाले हैं. बच्चे उन ऊँचाइयों को छू रहे हैं, जिनसे ऊँचा पैमाना ही नहीं है. हर
साल तमाम विषयों में बच्चे 100 में से 100 अंक हासिल कर रहे हैं. इन बच्चों की
तस्वीरें इन दिनों मीडिया में छाई हैं. बधाइयों और मिठाइयों का बाज़ार गर्म है. इन
परिणामों के साथ इंजीनियरी, मेडिकल और दूसरे व्यावसायिक कोर्सों की प्रवेश
परीक्षाओं के परिणाम आ रहे हैं.
Wednesday, May 20, 2015
दिल्ली का अस्पष्ट प्रशासनिक विभाजन, ऊपर से राजनीति का तड़का
जिस बात का
अंदेशा था वह सच होती नज़र आ रही है. दिल्ली में मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल के
बीच अधिकारों का विवाद संवैधानिक संकट के रूप में सामने आ रहा है. अंदेशा यह भी है
कि यह लड़ाई राष्ट्रीय शक्ल ले सकती है. उप-राज्यपाल के साथ यदि केवल अहं की लड़ाई
होती तो उसे निपटा लिया जाता. विवाद के कारण ज्यादा गहराई में छिपे हैं. इसमें
केंद्र सरकार को फौरन हस्तक्षेप करना चाहिए. दूसरी ओर इसे राजनीतिक रंग देना भी
गलत है. रविवार की शाम तक कांग्रेस के नेता केजरीवाल पर आरोप लगा रहे थे. टीवी
चैनलों पर बैठे कांग्रेसी प्रतिनिधियों का रुख केजरीवाल सरकार के खिलाफ था. उसी
शाम पार्टी के वरिष्ठ नेता अजय माकन ने इस संदर्भ में भारतीय जनता पार्टी पर आरोप
लगाकर इसका रुख बदल दिया है. सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने केजरीवाल का समर्थन
किया. लगता है कि सम्पूर्ण विपक्ष एक साथ आ रहा है.
एक तो अस्पष्ट प्रशासनिक व्यवस्था ऊपर से अधकचरी राजनीति। इसमें नौकरशाही के लिपट जाने के बाद सारी बात का रुख बदल गया है. खुली बयानबाज़ी से मामला सबसे ज्यादा बिगड़ा है. अरविन्द केजरीवाल को विवाद भाते हैं. सवाल यह भी है कि क्या वे अपने आप को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए नए विवादों को जन्म दे रहे हैं? विवाद की आड़ में राजनीतिक गोलबंदी हो रही है. क्या यह बिहार में होने वाले विवाद की पूर्व-पीठिका है? विपक्षी एकता कायम करने का भी यह मौका है. पर यह सवाल कम महत्वपूर्ण नहीं है कि राज्य सरकार को क्या अपने अफसरों की नियुक्तियों का अधिकार भी नहीं होना चाहिए? क्या उसके हाथ बंधे होने चाहिए? चुनी हुई सरकार को अधिकार नहीं होगा तो उसकी प्रशासनिक जवाबदेही कैसे तय होगी? मौजूदा विवाद पुलिस या ज़मीन से ताल्लुक नहीं रखता, जो विषय केंद्र के अधीन हैं.
Thursday, May 14, 2015
चीनी जादूनगरी से क्या लाएंगे मोदी?
अपनी सरकार की पहली
वर्षगाँठ के समांतर हो रही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के अनेक
निहितार्थ हैं. सरकार महंगाई, किसानों की आत्महत्याओं और बेरोजगारी की वजह से दबाव
में है वहीं वह विदेशी मोर्चे पर अपेक्षाकृत सफल है. चीन यात्रा को वह अपनी पहली
वर्षगाँठ पर शोकेस करेगी. देश के आर्थिक रूपांतरण में भी यह यात्रा मील का पत्थर
साबित हो सकती है. वैश्विक राजनीति तेजी से करवटें ले रही है. हमें एक तरफ पश्चिमी
देशों के साथ अपने रिश्तों को परिभाषित करना है वहीं चीन और रूस की विकसित होती
धुरी को भी ध्यान में रखना है.
Wednesday, April 29, 2015
अफगानिस्तान में बदलता पैराडाइम
अफगानिस्तान पिछले तकरीबन पैंतीस साल के खूनी इतिहास के बाद एक नए दौर में प्रवेश करने जा रहा है. वह है अपनी सामर्थ्य पर अपने मुस्तकबिल को हासिल करना. इसका मतलब यह नहीं कि वहाँ आतंकी और कट्टरपंथी मार-काट के खत्म होने का समय आ गया है. ऐसा सम्भव नहीं, बल्कि अब एक नया संधिकाल शुरू हो रहा है, जिसमें तय होगा कि यह देश किस राह जाएगा. एक राह मध्ययुग की ओर जाती है और दूसरी भविष्य की आधुनिकता की ओर. इस अंतर्विरोध के साथ तमाम पेच जुड़े हैं, जिनका हल उसके निवासी ही खोजेंगे. अब जब वहाँ से अमेरिकी सेनाओं की पूरी तरह वापसी हो रही है रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए नई ताकतें सामने आ रही हैं. यहाँ भारत की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. उस भूमिका को समझने के लिए हमें कुछ वास्तविकताओं को समझना होगा.
अफगानिस्तान के
राष्ट्रपति डॉ अशरफ ग़नी की भारत यात्रा के वक्त संयोग से दो बातें ऐसी हुईं हैं
जो ध्यान खींचती हैं. उन्हें सोमवार को दिन में एक बजे के आसपास भारत यात्रा के
लिए रवाना होना था. उसके कुछ समय पहले ही खबरें आईं कि सैकड़ों तालिबानियों उत्तरी
प्रांत कुंदुज में फौजी चौकियों पर हमला बोल दिया. काफी बड़ी संख्या में तालिबानी
और सरकारी सैनिक मारे गए. वहाँ अतिरिक्त सेना भेजी गई है. इस अफरातफरी में
राष्ट्रपति की यात्रा कुछ घंटे देर से शुरू हो पाई. दूसरी ओर यह यात्रा नेपाल में
आए भूकम्प की पृष्ठभूमि में हो रही ही है. नेपाल के भूकम्प का अफगानिस्तान से सीधा
सम्बंध नहीं है, पर पुनर्निर्माण से है. खासतौर से भारत और चीन की भूमिका को लेकर.
यह भूमिका अफगानिस्तान में भी है.
Thursday, April 16, 2015
‘लुक ईस्ट’ के बाद ‘लुक वेस्ट’
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की यूरोप और कनाडा यात्रा के राजनीतिक और आर्थिक महत्व के बरक्स
तकनीकी, वैज्ञानिक और सामरिक महत्व भी कम नहीं है. इन
देशों के पास भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं की कुंजी भी है. इस यात्रा के दौरान ‘मेक
इन इंडिया’ अभियान, स्मार्ट सिटी और ऊर्जा सहयोग सबसे ज्यादा
महत्वपूर्ण विषय बनकर उभरे हैं. न्यूक्लियर ऊर्जा में फ्रांस और सोलर इनर्जी में
जर्मनी की बढ़त है. इन सब बातों के अलावा अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद इन सभी देशों की
चिंता का विषय है.
आज कनाडा में प्रधानमंत्री
की यात्रा का अंतिम दिन है. कनाडा की आबादी में भारतीय मूल के नागरिकों का प्रतिशत
काफी बड़ा है. अस्सी के दशक में खालिस्तानी आंदोलन को वहाँ से काफी हवा मिली थी.
सन 1985 में एयर इंडिया के यात्री विमान को कनाडा में
बसे आतंकवादियों ने विस्फोट से उड़ाया था, जिसकी यादें आज भी ताज़ा
हैं. सामरिक दृष्टि से हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में भारत-अमेरिका-जापान और
ऑस्ट्रेलिया की पहलकदमी में कनाडा की भी महत्वपूर्ण भूमिका है.
Wednesday, April 1, 2015
‘आप’ को 'आधा तीतर-आधा बटेर' मनोदशा से बाहर आना होगा
दिल्ली के
विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत भारतीय राजनीति में नई ‘सम्भावनाओं की शुरुआत’ थी. पर नेतृत्व
की नासमझी ने उन सम्भावनाओं का अंत कर दिया. अभी यह कहना गलत होगा कि इस विचार का
मृत्युलेख लिख दिया गया है. पर इसे जीवित मानना भी गलत होगा. इसकी वापसी के लिए अब
हमें कुछ घटनाओं का इंतज़ार करना होगा. यह त्रासद कथा पहले भी कई बार दोहराई गई है.
अब इसका भविष्य उन ताकतों पर निर्भर करेगा, जो इसकी रचना का कारण बनी थीं. भविष्य
में उनकी भूमिका क्या होने वाली अभी कहना मुश्किल है. अंतिम रूप से सफलता या
विफलता के तमाम टेस्ट अभी बाकी हैं. इतना साफ हो रहा है कि संकट के पीछे
सैद्धांतिक मतभेद नहीं व्यक्तिगत राग-द्वेष हैं. यह बात इसके खिलाफ जाती है.
दिल्ली में 49
दिन बाद ही इस्तीफा देने के बाद पार्टी की साख कम हो गई थी. वोटर ने लोकसभा चुनाव
में उसे जोरदार थप्पड़ लगाया. पर माफी माँगने के बाद पार्टी दुबारा मैदान में आई
तो सफल बना दिया? दिल्ली में उसे मिली
सफलता के दो कारण थे. एक तो जनता इस प्रयोग को तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहती थी.
दूसरे भाजपा के विजय रथ को भी रोकना चाहती थी. पर जनता बार-बार उसकी नादानियों को
सहन नहीं करेगी. खासतौर से तब जब एक के बजाय दो ‘आप’ सामने होंगी? फिलहाल दोनों निष्प्राण
हैं. और यह नहीं लगता कि दिल्ली की प्रयोगशाला से निकला जादू आसानी से देश के सिर
पर चढ़कर बोलेगा.
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