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Thursday, May 20, 2010

साहित्य और मीडिया की डांड़ामेड़ी

साहित्य और मीडिया में क्या कोई टकराव है ? दोनों के उद्देश्य अलग-अलग हैं ? दोनों के संरक्षक अलग-अलग हैं ? संरक्षक माने पाठक और प्रकाशक। मुझे लगता है, हम अंतर्विरोधों को देखते वक्त चीजों को बहुत संकीर्ण दृष्टि से देखते हैं। जहाँ तक अभिव्यक्ति, रचना और विचार के माध्यम का सवाल है, साहित्य का स्थान सबसे ऊपर है। पर साहित्य माने सिर्फ लिखना नहीं है। वैसे ही पत्रकारिता माने सिर्फ लिखना, रिपोर्ट करना या फोटो लेना नहीं है। इसके मर्म को समझना चाहिए।

मीडिया में भटकाव की गुंजाइश ज्यादा है, क्योंकि उसे कारोबार चलता है। उसकी ज़रूरत संदेशवाहक के रूप में है। संदेश में तमाम उचित-अनुचित छिपे हैं। कई प्रकार के स्वार्थ हैं। राग-द्वेष हैं। संदेश को पाठक या दर्शक तक आने के पहले कुछ प्रक्रियाओं से गुज़रना होता है। इन प्रक्रियाओं के अंदर ही स्वार्थ के सूत्र बैठे हैं। उनकी प्राथमिकता में साहित्य नहीं है या साहित्य को अनदेखा करने की चाहत है, इतना मान लेते हैं। पर क्या पाठक या दर्शक मीडिया का ही मोहताज है ? साहित्य की लोकप्रियता का स्तर क्या है ? साहित्य अपेक्षाकृत कारोबारी व्यवस्था से मुक्त है। मैं पूरी तरह मुक्त नहीं कहता। वहाँ भी प्रकाशन मूल्य है। पूँजी की ज़रूरत है। पर यदि पाठक पढ़ने को तैयार है तो प्रकाशक क्यों नहीं छापेगा ?

यह भी यही है कि मीडिया ने पाठकों-दर्शकों की रुचि बिगाड़ दी है, पर साहित्यकार तो समाज के शिखर पर होता है या होना चाहिए। ऐसा नहीं है। साहित्यकार का हमने सम्मान कम किया है। इसमें साहित्यकार की क्या भूमिका है ? साहित्यकार समाज का नेतृत्व करता है और करता रहेगा। यदि हिन्दी समाज में ऐसा नहीं है, तो उसके कारण खोजने चाहिए। साहित्य के अनेक स्तर होते हैं। लोकप्रिय साहित्य उत्कृष्ट हो ऐसा ज़रूरी नहीं। पर उत्कृष्ट साहित्य अलोकप्रिय होगा, ऐसा भी नहीं मानना चाहिए। दो दशक पहले तक घरों में साहित्यिक पुस्तकें आतीं थीं। अब कम हो गईं हैं। लाइब्रेरी नाम की संस्था खत्म हो गई है। उसे लेकर किसी का आग्रह या दबाव नहीं है। ऐसा देश की सभी भाषाओं में होगा, पर हिन्दी में कुछ ज्यादा है।

ब्लॉग लिखने को लेकर भी चर्चा जोरों पर है। ब्लॉग लिखा जा सकता है तो लिखना चाहिए। कम से कम लेखक किसी के आसरे पर नहीं है। बड़ी संख्या में ब्लॉग लिखे जा रहे हैं। स्वाभाविक है कि इनमें काफी आत्मश्लाघा या  प्रचार से जुड़े हैं। बदमज़गी भी है। इसके िवपरीत कुछ ऐसे भी हैं जो चीजों को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। या जो समझते हैं कि ऐसे नहीं दूसरे तरह के ब्लॉग होने चाहिए, उन्हें वैसे व्लॉग लिखने चाहिए। कोई किसी को रोक नहीं रहा। आपके पास लिखने का विकल्प है। यह बेहतर व्यवस्था है। साख बनाने और समझदार लोगों तक अपनी बात पहुँचाने में समय लग सकता है। लगने दीजिए।

Monday, May 17, 2010

कैसे होता है हिन्दी पत्रकारों का मूल्यांकन
प्रमोद जोशी
जब से अखबारों ने खुद को वेजबोर्ड के सैलरी स्ट्रक्चर से अलग किया है, अप्रेल-मई के महीने सालाना वेतन संशोधन के लिहाज से महत्वपूर्ण होते हैं। दफ्तरों में इंक्रीमेंट्स और प्रमोशन चर्चा के विषय होते हैं। चैनलों में भी ऐसा ही होता होगा। पत्रकारों की भरती, उनके प्रशिक्षण और मूल्यांकन की पद्धति के बारे में आमतौर पर चर्चा नहीं होती। सहयोगियों की संख्या छोटी हो तो कोई सम्पादक आमने-सामने की रोज़मर्रा मुलाकात से अपने साथी के गुण-दोष को समझ सकते हैं, पर अब सम्पादकीय विभाग बड़े होते जा रहे हैं। किसी एक व्यक्ति के लिए आसान काम नहीं है कि वह अपने साथियों के बारे में राय कायम करे। हालांकि यह मसला एचआर विभाग का है, पर एचआर के पास तमाम विभागों के लिए दशा-निर्देश हो सकते हैं, सम्पादकीय विभाग के लिए नहीं होते। किसी एचआर विभाग ने कोशिश भी की है तो उसे सम्पादकीय विभाग की मदद लेनी पड़ी होगी। परफॉर्मेंस इवैल्यूएशन सिस्टम किसी भी विभाग की सफलता या विफलता का बड़ा कारण बन सकता है।
इसे हम परफॉर्मेंस इवैल्यूएशन से तब जोड़ते हैं, जब व्यक्ति सम्पादकीय विभाग में काम कर रहा हो। पर जब उसे सम्पादकीय विभाग में शामिल करना होता है तभी मानक तैयार हो जाते हैं। हमें कैसा व्यक्ति पत्रकार के रूप में चाहिए? ऐसा जो बहुत दूर से खबर को सूंघ सकता हो। खबर के तमाम पहलुओं को समझ सकता हो। खेल पत्रकार हो तो खेल की बारीकियाँ और बिजनेस पत्रकार हो तो बिजनेस को समझता हो। उसके सामान्य ज्ञान, आईक्यू, व्यक्तित्व, इनीशिएटव की परख अलग होती है। हमारे पास भी कई तरह के काम हैं। रिपोर्टिंग के लिए अलग और डेस्क के लिए अलग तरह के गुण चाहिए। ग्रैफिक प्रेज़ेंटेशन और विज़ुएलाइज़ेशन नई ब्रांच है। रिसर्च और रेफरेंस के लिए अलग तरह के लोग चाहिए। दुर्भाग्य से हिन्दी अखबार इसमें काफी पिछड़े हैं। लिखने की शैली और भाषा के मामले में हाल में गिरावट आई है। रिपोर्टिंग में क्राइम की कवरेज के लिए अलग किस्म का व्यक्ति चाहिए और पॉलिटिक्स के लिए अलग किस्म का। यह सूची लम्बी हो जाएगी। मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ कि अखबार की गुणवत्ता को स्थापित करने के लिए ज़रूरी मानक क्या हों, इसकी सूची बनाने की कोशिश होनी चाहिए।
सम्पादकीय विभागों में पद आमतौर पर काम को व्यक्त नहीं करते, रुतबे को बताते हैं। एक ज़माने में चीफ सब एडीटर अखबार का सबसे मुख्य कार्यकर्ता होता था। वह एडीशन का इंचार्ज होता था। सम्पादक और समाचार सम्पादक की अनुपस्थिति में सबसे ज़िम्मेदार व्यक्ति। समय के साथ नए पद बने हैं। इन पदों के नाम अनेक हैं। भूमिकाएं किसी की स्पष्ट नहीं हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से इनपुट और आउटपुट शब्द लेकर उन्हें अखबारों पर लागू करने का क्रांतिकारी काम भी कर लिया, दोनों मीडिया के फर्क को समझे बगैर। ऐसा अंग्रेज़ी अखबारों के मुकाबले हिन्दी अखबारों में ज़्यादा है। काम की प्रोसेस और वर्कफ्लो का भ्रम देश में विकसित हो रहे एडीटोरियल सॉफ्टवेयर्स में नज़र आता है। हिन्दी अखबार बड़ी गहराई तक मल्टिपल एडीशन पर काम करते हैं। उन्हें एक ओर अखबार की केन्द्रीय परिभाषा चाहिए वहीं, जबर्दस्त स्थानीयता। चंडीगढ़ और राँची के पाठक में ज़मीन-आसमान का फर्क है। इस एकता और भिन्नता को साफ-साफ परिभाषित करने की ज़रूरत है। उसके अनुरूप ही सहयोगियों के सिलेक्शन, ट्रेनिंग और एप्रेज़ल के नियम बनेंगे।
एप्रेज़ल के लिए आमतौर पर अंक देने की पद्धति विकसित की गई है। यह जिस सिद्धांत पर बनी है, वह सम्पादकीय विभाग पर पूरी तरह लागू नहीं होता। इसमें मूलतः पहले पूरे बिजनेस के, फिर विभाग के, फिर सेक्शन और व्यक्ति के सालाना लक्ष्य निर्धारित होते हैं। ये लक्ष्य यदि विज्ञापन के लिए हैं तो रुपए में और यदि सेल्स के हैं तो उसकी फिगर में होंगे। सम्पादकीय विभाग के लक्ष्य क्या होंगे। जो संख्यात्मक लक्ष्य हैं, उन्हें टैंजिबल कह सकते हैं। उन्हें संख्या में दर्शाया जा सकता है। सम्पादकीय विभाग के अनेक काम नॉन टैंजिबल हैं। उन्हें टैंजिबल कैसे बनाया जाय इसपर विचार की ज़रूरत है। यों दुनिया में पुस्तकों, लेखन यहाँ तक कि पत्रकारिता के पुरस्कार दिए जाते हैं। उसके लिए कोई पद्धति अपनाई जाती है। जिम्नास्टिक और कुश्ती की प्रतियोगिताओं में एक से ज्यादा जज अंक देते हैं, जिनका औसत निकालकर अंकों पर फैसले करते हैं। हम इसी प्रकार के क्षेत्रों से मूल्यांकन पद्धतियों को ले सकते हैं। मूल्यांकन पद्धति को पारदर्शी बनाने की ज़रूरत भी होगी। जिस व्यक्ति का मूलायंकन किया जा रहा है, उसे पता होना चाहिए कि उसका गुण क्या है और दोष क्या। यह बात साफ और यथा सम्भव लिखत रूप में बताई जानी चाहिए।
पत्रकार के चुनाव के पहले पता होना चाहिए कि हमें किस प्रकार का व्यक्ति चाहिए। उसे प्रशिक्षण की ज़रूरत है तो इन-हाउस प्रशिक्षण का प्रबंध भी होना चाहिए। प्रशिक्षण के मॉड्यूल अखबार की वास्तविक नीतियों और स्टाइल के तहत होगे। ये नीतियाँ क्या हैं, यह भी स्पष्ट होना चाहिए। कुछ अखबार रिसर्च कराते हैं। यह रिसर्च आमतौर पर मार्केटिंग विभाग के नेतृत्व में होती है। निश्चित रूप से यह उपयोगी होगी, पर यह सम्पादकीय विभाग की रिसर्च नहीं हो सकती। एक उदाहरण के लिए मैं हाल में हिन्दी अखबारों की भाषा का देना चाहूँगा। दिल्ली के जिस अखबार ने इसकी शुरूआत की वह मार्केटिंग रिसर्च कराता ही नहीं। इसे पाठक ने स्वीकार कर लिया, क्योंकि उसके पास विकल्प नहीं। बाकी अखबारों ने इसका अंधानुकरण शुरू कर दिया। भाषा को आसान बनाने पर किसी को आपत्ति नहीं होगी, पर मेरा विचार है कि आम पाठक अपनी भाषा के विद्रूप को पसंद नहीं करेगा। कुछ अखबारों ने ट्रेनीज़ की भरती का काम शुरू किया है। इस भरती को कैसे संचालित किया जाय और उसके पर्चे कैसे बनें यह वचार का विषय है। 1983 में जब जनसत्ता शुरू हुआ था प्रभाष जोशी ने पत्रकारों की भर्ती की एक छलनी बनाई थी। जनसत्ता के साथ उसी वक्त लखनऊ में नवभारत टाइम्स शुरू हुआ था। राजेन्द्र माथुर ने वहाँ खुद भरती की थी। उनका और जनसत्ता का लिखित परीक्षण फर्क था, पर दोनों की इच्छा अच्छे पत्रकारों को सामने लाने की थी। अब तो हिन्दी अखबार काफी बड़े हैं। उन्हें पहल करनी चाहिए। यह प्रफेशनल काम है।
पत्रकारों की भरती के तीन-चार तरीके हैं। एक तो पत्रकारिता विद्यालय के प्लेसमेंट सैल अपने छात्रों को इंट्रोड्यूस करते हैं। दूसरे पत्रकार इंटर्नशिप के दौरान सम्पर्क बनाकर अपने लिए रास्ता बनाते हैं। तीसरे सम्पादकीय विभाग के किसी सीनियर सहयोगी के परिचितों का आना। इससे ऊपर है राजनेताओं और रसूख वालों की पैरवी। सीनियर पत्रकारों का आवागमन व्यक्तिगत रिश्तों के आधार पर ज्यादातर होता है। इधर भास्कर समूह के बारे में खबर है कि वे टेलेंट हंट चलाते हैं और नए लोगों को ट्रेनिंग भी देते हैं। दरअसल जो उद्यमी अपने अखबार को भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं, उन्हें अपनी ह्यूमन रिसोर्स के बारे में सोचना चाहे। सच यह है कि हिन्दी में अच्छे पत्रकारों का टोटा है। उन्हें तैयार करना चाहिए। इससे अखबारों की शक्ल बदलेगी। यारी-दोस्ती, व्यक्तिगत पसंद-नापसंद और किसी लॉबी से जुड़ा होना माने नहीं रखता। सिर्फ परफॉर्मेंस माने रखता है। पर यह बात तब तक बेमानी है जब तक परफॉर्मेंस की परख करने वाली पारदर्शी व्यवस्था नहीं होगी।

समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित

Tuesday, May 11, 2010

खबरों की गलाई, ढलाई और मरम्मत यानी पत्रकारिता

 

समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम पर प्रकाशित तीन पुरानी पोस्ट भी मैं यहाँ रख रहा हूं। मैं अपने विचार को तराश कर साफ करना चाहता हूँ। यदि आपको मेरी धारणा में अंतर्विरोध नज़र आए तो मुझे ज़रूर बताएं।

बदलाव माने कचरा-कल्चर नहीं

सोमवार, 3 मई 2010
प्रमोद जोशी

अखबार में काम करना अनोखा अनुभव है। सामाजिक संरचना में किसी ने तय नहीं किया था कि अखबार की क्या भूमिका होगी, पर वह अपनी जगह बनाता गया। दुनिया की संसदों और संविधानों ने उसे जगह दी। हमारे घरों का हिस्सा बनाता गया। मुझे अखबार की नौकरी के शुरुआती दिन याद आते हैं। वह हॉट मेटल का दौर था। पायनियर लिमिटेड, 20, स्टेशन रोड, लखनऊ के गेट पर रात के दो बजे मजमा लगता था। बेनी की चाय- दुकान बंद हो चुकी होती थी और उसकी जगह राजकुमार की दुकान रात के दो बजे शुरू होती थी। पहले ग्राहक होते थे एक- दो चीफ सब एडिटर, सब एडिटर, प्रूफ रीडर , फोरमैन , मेकअपमैन, लाइनो, मोनो ऑपरेटर, करैक्टर, डिस्टीब्यूटर वगैरह। वे लोग जो अखबार छोड़कर बाहर निकलते थे। इसके बाद प्रिंटरों, सेल्समैनों और हॉकरों वगैरह का काम शुरू होता था।
शीशे के गिलास में चाय लेकर सूनी सड़क के बीचो-बीच डिवाइडर पर बैठकर पन्द्रह-बीस मिनट की उस कांफ्रेस में गम्भीर मसलों से लेकर हल्की-फुल्की गॉसिप तक हो जाती थी। कई तरह के लोगों को डायरेक्ट या इनडायरेक्ट रोजगार देता था अखबार। इमर्जेंसी खत्म होने के बाद 1977 में जिस रात चुनाव परिणाम आ रहे थे, पायनियर के गेट पर जैसे आधा लखनऊ उमड़ पड़ा था। तब अखबार में छपे हर्फं ध्रुव सत्य माने जाते थे। अखबार का हर कर्मचारी खास होता था। जेब में पैसा नहीं, पर बाहर इज्जत थी। पत्रकारों के तीन-चार ठीए होते थे। विधानसभा की कैंटीन, कॉफी हाउस, रवीन्द्रालय और अमीनाबाद का कंचना रेस्त्रां। जेब में पैसा होता तो बेनबोजमें बैठ जाते। राजनीति, रंगमंच, कला और साहित्य के इर्द-गिर्द जिंदगी चलती थी। यह सब बड़ा पर्सनल है और जो लखनऊ के नहीं है, उनके लिए बोरिंग भी होगा। दिल्ली में भी ऐसा ही कुछ होता रहा होगा। इन्दौर, कोलकाता, चेन्नई और मुम्बई में भी।
सन 1450 में जब गुटेनबर्ग ने पहला मूवेबल टाइप बनाया, तो वह अजूबा था। किसी ने सोचा नहीं था कि यह इन्वेंशन दुनिया के लिए क्रांतिकारी होने वाला है। इस टाइप की बदौलत छपी बाइबल की प्रतियां जब पहली बार पेरिस पहुंचीं तब लोग डर गए। उन्हें लगा, जरूर यह प्रेत विद्या हैं। इतने साफ-सुथरे एक समान अक्षरों वाली किताब कैसे संभव है। पर छपाई का आविष्कार उस बाइबिल के लिए नहीं हुआ था। ज्ञान और सूचना की वह क्रांति नहीं होती, तो दुनिया ऐसी न होती । सन 1470 के दौर के किसी यूरोपियन के मन को पढ़ने का मौका मिले तो हम उस रोमांच से परिचित हो सकेंगे। शुरुआती न्यूजबुक्स आज के मुकाबले बदरंग, अनगढ़ और निहायत बोर थीं, पर वह उस दौर की नई चीज थी। उनमें एक-दूसरे से चोरी करके चीजें छापीं जाती थीं। वह चोरी न होती तो पत्रकारिता का विकास शायद सुस्त होता। जोनाथन स्विफ्ट और डेनियल डैफो जैसे लेखक उसी दौर में निकले। उस दौर की खासियत थी लेखकों का शासकों से टकराव। इसके अगले सौ-दो सौ साल यूरोप में वैचारिक क्रांति के नाम थे। गांव-गांव, गली-गली के लेखक एनसायक्लोपीडिया लिखने में जुट गए। पाठकों के भीतर ज्ञान की प्यास थी। राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन को बांधने वाला यह धागा, खुद-ब-खुद मजबूत होता चला गया।
अखबार सिर्फ खबर या सूचना नहीं देता। वह अपना प्रभाव या असर बेचता है। उसकी साख उसका संबल है। वह कारोबार भी है, पर सिर्फ कारोबार नहीं। कागज के रूप में वह बिकता है, पर उसका सामाजिक प्रभाव बिकाऊ नहीं होता, कारोबारी असर ही बिकाऊ होता है, इसीलिए अखबार में विज्ञापन की जगह अलग होती है। जब खबरों के बीच विज्ञापन के आईलैंड पहली बार लगे तब झटका लगा था। बगैर पूंजी के वह निकल नहीं सकता। पूंजी लगाने वाला रिटर्न मांगता है, वह सामाजिक जिम्मेदारी नहीं जानता। इसीलिए अखबार के कारोबार के बारे में सोचने का वक्त है। बाजार की छुट्टा पूँजी उसे जीने नहीं देगी। उसे उसका पाठक ही बचा सकता है।
पूंजी लगाने वाले और उसे मैनेज करने वाले अपने प्रोडक्ट और पाठक के रिश्तों को नहीं जानते। उधर इस कर्म से जुड़े लोग बदलते बाजार को नहीं देख पा रहे हैं। वे बिजनेस को कोसते है। यह पत्रकारिता कारोबार भी है, पर साबुन और तेल-फुलेल बेचने जैसा धंधा भी नहीं है। प्योर न्यूज ऑर्डियेंस कम हुआ है। नया पाठक मजेदार खबरें चाहता है। ऑरकुट, ट्विटर और फेसबुक के पाठक अखबार के पाठक से अलग हैं। एनडीटीवी का अंग्रेजी न्यूज चैनल तक यू ट्यूब और नेट से रोचक खबरें उठाकर पाठकों को दिखा रहा है। बाजार की उपेक्षा करके बाजार में कैसे बना रह सकता है। पर यह नई बात नहीं है। एक जमाने तक अखबार बेहद उबाऊ होते थे। उनमें रोचक कविताएं, कहानियां, चुटकुले, कार्टून और कॉमिक्स कालांतर से जुड़े। रंगीन छपाई तो कुछ और देर की बात है। रोचक होना क्या सचाई, जागरूकता और जिम्मेदारी को भुलाना है, जो पत्रकारिता की बुनियादी जरूरत है?
समाचारफॉरमीडिया में प्रकाशित आलेखों को पढ़ते वक्त मैंने पाया कि अधिकतर लेखक मानते हैं कि मीडिया क्रमश: गैर जिम्मेदार होता गया है। खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। अखबारों में भी ह्रास हुआ है। मैं यहां दो टिप्पणियों का उल्लेख करना चाहता हूं। मेरा उद्देश्य लेखकों के विचारों पर टिप्पणी करना नहीं है।, केवल उनकी उठाई बातों को हाइलाइट करना है। राजकिशोर ने पाठकों से पूछा है कि क्या आप जनसत्तापढ़ते हैं? उन्होंने लिखा है कि पत्रकारिता की दुनिया से साहित्य और संस्कृति पर चर्चा जिस तरह से नदारद हुई है, उस पर आंसू बहाने वाले भी नहीं मिलते।... शायद पत्रकारिता की प्रोफेशनल परिभाषा में साहित्य के लिए कोई स्थान नहीं है। राजकिशोर मानते हैं कि जनसत्ताके पराभव के अपने कारण हैं, पर आज भी युवा पत्रकार अपनी राय बनाने के लिए उसे पढ़ते हैं।
स्टार न्यूज के सीईओ उदय शंकर ने अपने आलेख में विवेचन करने के बजाय स्टार न्यूज की कवरेज को डिफेंड किया है। उनके शब्दों में खासकर बुद्धिजीवी किस्म केअखबार वाले खामखां चिंता व्यक्त कर रहे हैं। बदलते वक्त के साथ न्यूज चैनलों में बदलाव आ रहा है। तो गलत क्या है? उनके अनुसार न्यूज चैनल ही आज की तारीख में बेईमान, भ्रष्ट, अपराधी और दलाल किस्म के लोगों पर सबसे अधिक हमला कर रहे हैं। चैनल न होते तो क्या प्रिंस गढ्ढे से वापस आ सकता था? लब्बो-लुवाब यह कि हमें सिर्फ दर्शक की चिंता है। दर्शक फलां-फलां चीजें देखता है तो हम दिखाते हैं। अखबार में अश्लील फोटो छापते हैं। उदय शंकर का सवाल है- अगर मास गायब कर देंगे। तो मीडिया किस काम का?
जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, तहलका, एमपीलैड, संसद में सवाल पूछने के लिए पैसा जैसे मामले उठाने में इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। पर जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था, तब भी तो ये मामले उठते थे। अखबारों की उस परम्परा ने ही देश में प्राइवेट चैनलों का रास्ता खोला। बल्कि इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों की खबरों पर चैनलों की फॉलोअप खबरे बनती हैं। तात्तकालिकता और विजुअल इस मीडिया की ताकत है। अखबार वालों और चैनल वालों का यह झगड़ा यही नहीं है। मीडिया में सनसनी नकारात्मक वैल्यू है। चैनल संचालक सनसनी को बढ़ावा देते हैं। दर्शक देखना चाहता है तो आप जरूर दिखाएं, कौन रोकेगा आपको? पर दर्शक की सुरुचि और कुरुचि बनाने में भी हमारी भूमिका है। विजुअल का असर क्या होता है, यह हम अस्सी के दशक में आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान एक युवा छात्र के आत्मदाह के प्रयास की तस्वीरों से देख चुके हैं। गनीमत है, उस समय चैनल नहीं थे। बाबरी आंदोलन के वक्त नहीं थे। होते तो क्या होता? खबर की प्राथमिकता सनसनी से तय होती है। दावतों में सारी भीड़ चटपटी चीजों पर टूटती है। काफी देर बाद पता लगता है कि जंक फूड नुकसानदेह है। यह समझदारी देर से बनती है। हमारे यहां भी बनेगी। पर जो समझदार लोग हैं, उनसे उम्मीद की जाती है वे आग न भड़काएं। धंधे के उसूल बनाएं।
बीबीसी को देखें तो लगेगा कि वह भारतीय न्यूज चैनलों से काफी पीछे है। हमने न्यूज चैनल और एंटरटेनमेंट चैनल का अंतर खत्म कर दिया है। हम समझते थे कि खबरों का ट्रीटमेंट खबर की तरह होना चाहिए। माधुरी गुप्ता प्रकरण पर एक हिंदी न्यूज चैनल ने बाकायदा अभिनय करके माधुरी गुप्ता की कहानी को पेश की। यह तब है जब हम इस मामले की तमाम ज़रूरी बातें नहीं जानते। उदय शंकर कहते है कि मासगायब कर देंगें तो ’मीडियाकिस काम का? टीआरपी के पैमाने में सारी आईबॉल्स की वैल्यू बराबर होती है। मार्केटिंग कहती है, हमें आईबॉल्स लाकर दो। क्वालिटी व्यूअर का नम्बर छोटा है।
हिंदी में श्रेष्ट अखबार की जरूरत है, जो आर्थिक रूप से सफल हों। अपने पाठक के लिए विश्वविद्यालय का काम करें। जो हिंदी के बौद्धिक जगत को स्वीकार हो और आम जनता को भी। आनन्द बाजार पत्रिकाऔर ‘मलयालम मनोरमाजैसे, बल्कि उनसे बेहतर अखबार हम क्यों नहीं निकाल सकते? जिनमें गहराई, गंभीरता और समझदारी हो। हिंदी में अभी तक कम से कम दस साल तक अखबार बढते रहेंगे। मास और क्लास के मुहावरों में थोड़ा अंतर होगा, पर यह धारणा गलत है कि मास मीडिया माने कुरुचि है। अच्छा अखबार क्लास और मास दोनों को पंसद होगा। फिर भी हमें एक क्लास के अखबार की जरूरत है। उदयशंकर ने ‘बुद्धिजीवी किस्म केलोगों पर फिकरा कसा है। इधर ऐसे लोगों की खिल्ली उड़ाने का चलन बढ़ा है, जो बहस करते हैं।
बदलती टेक्नॉलजी और संस्कृति के साथ सूचना के माध्यम जरूर बदल रहे हैं। पर ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर, एफएम या टीवी के मुकाबले अखबार आज भी ज्यादा असरदार है। समय के साथ बदलना चाहिए। अखबार को भी। पर बदलाव माने क्या? कौन से संपादक इस बदलाव के प्रणेता हैं? इस बदलाव के ड्राइवर संपादक नहीं मैनेजर हैं। खबर लिखने के शिल्प, उसे पेश करने की स्टाइल और छपाई की टेक्नॉलजी बदलना स्वाभाविक है। पर क्या हमारे मसले भी बदले जाने चाहिए? क्या न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट और लंदन टाइम्स ने खबरें छापना बंद कर दिया है? सारी आफत हम पर ही आकर क्यों पड़ी है? दर्शक या पाठक तक जाकर कौन पूछता है कि तुम्हें क्या चाहिए? किसी अखबार के पास रीडरशिप रिसर्च की व्यवस्था नहीं है।
रात के दो-तीन बजे जब पत्रकार अपने घर पहंचते हैं अखबार बांटने वाले अपने घर से निकलते हैं। वे होते हैं हमारे सबसे पहले पाठक। गांवों और कस्बों में अक्सर वे संवाददाता भी होते हैं। अखबार की अपनी व्यवस्था है। उससे जुड़े लोग इसे अपने घर और परिवार जैसा मानते हैं। कुछ परिवारों की दो-दो, तीन-तीन पीढियां किसी खास अखबार के साथ जुड़ी रहीं। यह मामूली कारोबार नहीं है। ये परिवार अखबार विक्रताओं के हैं, संवाददाताओं के और पाठकों के भी। अखबारों के परंपरागत मैनेजर भी अलग होते थे। अब मैनेजर भी बाहर से आ रहे हैं। कोई बूट पॉलिश बेचता था, तो कोई कुरकुरे। इस बाहरी मनोदशा ने कहा, सब बदलो। पाठक भी बदलो। कारोबारी लोग पाठकों की भी नयी पीढ़ी तैयार करना चाहते हैं। उन्हें बूढ़े पाठक नहीं चाहिए, भले ही वे लॉयल हों। वे पाठक को रिटायर कर देंगे। हाल में नवभारत टाइम्स में सीरीज चल रही थी, डोंट प्रीच डैडी। इस अखबार का नया नाम एनबीटी-यंग इंडिया-यंग पेपर है। हिंदी के नए मार्केटिंग मैनेजर भारतीय युवा वर्ग को बेहतर जानते हों, पर माता-पिता से वह उस तरह नहीं कटा है, जैसी आपकी मनोकामना है। नए की चमक-दमक जरूर है। कुछ नौजवान ज्यादा लम्बे डग भरना चाहते हैं। पर वही समूचा युवा वर्ग नहीं है।
हिंदी इलाके में लगातार साक्षरता बढ़ रही है। नए पाठक बढ़ रहे हैं। हमें नए लेखकों की जरूरत है, जो विश्वकोष लिखें। अपने इलाके का अध्ययन करें। आर्थिक-सामाजिक वास्तविकताओं को समझें। साहित्य-संस्कृति से जुड़ें। बिजनेस, सांइस और वैश्विक घटनाचक्र को समझने और समझा सकने में समर्थ पत्रकारों का हिंदी में टोटा है। संपादकीय पेज के लिए मैनेजरों को सेलेब्रिटी चाहिए। जहां-जहां बौद्धिक उत्कृष्टता की जरूरत है, वहां कचरा भरने का प्रयास हो रहा है। इन लटके-झटकों से कुछ देर के लिए ध्यान बंट जाएगा, पर आने वाले वक्त का हिंदी पाठक का कचरा-कल्चर को मंजूर नहीं करेगा। उसे वास्तव में एक अच्छे और पूर्ण अखबार की जरूरत है। बिजनेस नहीं कंटेंट की सफलता ही अखबार की सफलता का पैमाना है। ऐसा अखबार शायद कोई विदेशी उद्यमी लेकर आएगा।     

कमाई में आगे क्वालिटी में पीछे

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

प्रमोद जोशी
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल का पिछले साल अगस्त में जब नया सेशन शुरू हो रहा था, तब मुझे वहां जाने और नए पुराने छात्रों से संवाद करने का मौका मिला। मैने छात्रों से पूछा- आप पत्रकार क्यों बनना चाहते हैं?  ज्यादातर छात्रों का जवाब था- सामाजिक जरूरत के लिए। अपने ज्ञान का इस्तेमाल सबकी भलाई के लिए। सामाजिक बदलाव के लिए। पाठकों को सही जानकारी देने के लिए वगैरह।
एक छात्र ने खड़े होकर कहा, “ मैं पैसे, पहचान और ऊंची पहुंच के लिए पत्रकार बनना चाहता हूं। पूरे हाउस में ठहाका लगा। पता नहीं उस छात्र ने वह बात गंभीरता में कही या मजाक में, पर यह महत्वपूर्ण बात थी। सभी को न सही कुछ पत्रकारों को अपने जीवन में सेलिब्रिटी बनने का मौका मिलता है। पैसे पद औऱ पहचान के मामले में वे टाप पर आ जाते हैं। पर किस कीमत पर। और यह कीमत कौन देता है ?
पत्रकार महात्मा गांधी थे, तिलक भी। महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर राजेंद्र माथुर तक तमाम नाम हैं। मुझे लगता है उस छात्र का आशय यह नहीं था। वह ताकतवर बनना चाहता है, जिससे लोग डरें। ऐसे पत्रकार हुए हैं, जिन्हें सत्ताधारियों, सरमाएदारों, और माफिया तक ने सिर पर बिठाया। एक पत्रकार को अपने जीवन में शासन, कारोबार और अंडरवर्ल्ड की अंधेरी गुफाओं से गुज़रने का मौका मिलता है। उसे ईमानदार और बेईमान बनने के मौके मिलते हैं। बेशक पत्रकारिता उत्तम कर्म है, नोबल प्रोफेशन। वह हमें धवल छवि के साथ सेलेब्रेटी बनने का मौका देती है। और अनैतिकता के कीचड़ में उतरने का भी। फिक्सर, दलाल, बिचौलिए और ठेकेदार भी पत्रकार बनना चाहते हैं। और बनते हैं।
पत्रकारिता से मेरा आशय प्रिंट, टीवी-रेडियो या इंटरनेट तक सीमित माध्यमों से नहीं है। ये टूल हैं, जो आने वाले समय में बदल जाएंगे। इन सब माध्यमों के मर्म में उस कर्म की जरुरत है, जो हमें महत्वपूर्ण बनाता है। उसका रिश्ता लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकास से जुड़ा है। पूंजी के मुक्त प्रवाह ने भी कुछ संदेह खड़े किए हैं। इन दिनों का चर्चित पेड न्यूज़ प्रकरण मूल्यों और कारोबार के अंतर्विरोधों की कहानी है। सवाल अखबारों के बचने या तबाह होने का नहीं है। सवाल है सूचना की ऑनरशिप किसकी है? क्या बिजनेस जिस रेट पर चाहेगा उसे बेचेगा?  सूचना महत्वपूर्ण है। वह हमारा वोटिंग व्यवहार तय करती है। हमें यह मानने को आश्वस्त करती है कि सद्दाम हुसैन के पास एटम बम था। वह बताती है कि सानिया मिर्जा के कपड़ों का डिजाइन किसने बनाया।
शायद मीडिया संसार में इस वक्त सबसे तेज ग्रोथ हिन्दी मीडिया की है। किसी के पास ठहर कर सोचने का मौका ही नहीं है। इस दौरान भाषा, कथ्य-शिल्प, स्टाइल, डिजाइन, शोध, तथ्य, मूल्यों संवेदनाओं के तमाम मसले हर रोज़ खड़े हो रहे हैं। मीडिया कारोबार भी है। उसके विस्तार के लिए पूंजी चाहिए। पूंजी लगाने वाले को मुनाफा चाहिए। पैसा फूंककर सामाजिक जिम्मेदारियां निभाने का दौर भी गया। ज्यादातर मीडिया हाउस शेयर बाजार में उतर रहे हैं। शेयर होल्डर को अपनी पूंजी पर रिटर्न चाहिए।
हिंदी का पहला साप्ताहिक 1826 में निकला। उसके बाद 1947 तक छिटपुट अखबार निकलते रहे। पर वह पत्रकारिता आंदोलनकारी, सुधारवादी और एक हद तक धार्मिक थी। मुनाफा कमाने वाली अखबारनबीसी वह नहीं थी। 1947 के बाद भी हिन्दी के अखबार या तो किसी बड़े उद्योग की छत्रछाया में शौकिया निकाले गए या फिर एकदम छोटे शहरो में लोकल उद्यमियों ने कुछ बिजनेस और कुछ सामाजिक संपर्क के लिए निकाले। जून 1975 से फरवरी 1977 के बीच यानी इमर्जेंसी के दौरान हिन्दी प्रेस की नई ताकत के रुप में जरुरत महसूस हुई। आज बाज़ार में मौजूद ज्यादातर हिन्दी अखबारों ने 1977 के बाद से ही विस्तार शुरु किया है। उन्हें प्रादेशिक राजनेताओं ने संरक्षण दिया और बदले में अखबारों ने राजनेता को प्रतिष्ठा दी। इस बार्टर ने पत्रकारों की एक पीढ़ी तैयार कर दी।
कारोबार पहले है या गुणवत्ता?  मेरे विचार से दोनों में रिश्ता है। बेहतर कारोबार होने पर अखबार को अपनी गुणवत्ता सुधारने का मौका मिलता है। गुणवत्ता और बेहतर कारोबार का रास्ता खोलती है। अंग्रेज़ी के मुकाबले हिन्दी अखबार कारोबार में पीछे हैं। पर यह कमजोरी अगले कुछ साल की है। उसके बाद कहानी बदलनी चाहिए। दिल्ली को छोड़ दें, तो राजनैतिक ताकत में अंग्रेजी के अखबार कहीं नहीं टिकते। लखनऊ, पटना, रांची, भोपाल, जयपुर, रायपुर, देहरादून और चंडीगढ़ समेत तमाम हिन्दी शहरों में सत्ता और संस्कृति का एजेंडा हिन्दी अखबार तय करते है। उनके संस्करणों की संख्या और लोकल कवरेज में कोई तुलना ही नहीं है। पर कहानी यहीं तक है।
हिन्दी संपादकों को अपनी तारीफ करनी होती है। तो वे कहते है कि हमारा मुकाबला अंग्रेज़ी अखबारों से है। पर हिन्दी के अखबार अपनी गुणवत्ता सुधारने के प्रयास में नज़र नहीं आते। ग्रैफिक डिजाइन पर अत्यधिक जोर देते हुए उन्होंने खबरों और उनके लेखन से हाथ खींच लिया है। वे नहीं देख पा रहे हैं कि सादगी और सामान्य खबरों के सहारे जागरणहिन्दी का नम्बर एक अखबार है। साइंस-टेकनॉलजी, बिजनेस और विदेशी मामलों पर हिन्दी के ज्यादातर अखबार शुद्ध चोरी और नकल के सहारे हैं। एक धारणा है कि ‘गुगलमें सब कुछ मिलता है। हिन्दी अखबार आज इस स्थिति में हैं कि वे मार्केट में उपलब्ध बेहतर लेखकों या रिसोर्सेज का हायर कर सकें। बेहतर कारोबार का फायदा पाठक को नहीं मिलता।
भारतीय अखबारों में बदलाव की शुरुआत हालांकि आनन्द बाजार ग्रुप ने की थी, पर हिन्दी अखबारों के कॉरपोरेट या प्राइवेट नियंता टाइम्स ऑफ इंडियाके समीर जैन से प्रभावित हैं। टाइम्स हाउस ने पिछले तीन दशक में कई तरह के प्रयोग किए, जिनमें मिश्रित सफलता मिली है। समीर जैन ने अखबार के परंपरागत साँचे को नहीं तोड़ा। टाइम्स ऑफ इंडियाने डिजाइन, कलर और बाजारु लटकों का सहारा नहीं लिया, बल्कि अपने प्रतिद्वंदियों को उसमें उलझा दिया। दूसरों के पास मौलिकता थी नहीं, वे रंग-रोगन के टोटकों में ही लगे रह गए। दिल्ली में क्रेस्ट की शुरुआत करके लंबी खबरें देने का सिलसिला भी टाइम्स ने शुरु किया है। हिन्दी अखबार का कोई मानक टाइम्स ने नहीं बनाया। हिन्दी इलाकों में उसकी उपस्थिति है ही नहीं।
मेरा मानना है कि हिन्दी प्रिंट मीडिया में इस वक्त 15 हजार से ज्यादा फुल टाइम और लगभग 60 हजार पार्ट टाइम पत्रकार हैं। जरुरत तेजी से बढ़ रही है। ट्रेनिंग की वाजिब व्यवस्था नहीं है। किसी भी अखबार के पन्नों को सावधानी से पलटें तो उसमें कई तरह की खामियां नजर आएंगी। चूंकि विस्तार तेज़ है और तैयार पत्रकार कम हैं इसलिए यह संभव है, पर गुणात्मक सुधार के लिए कदम उठाने की जरुरत है। हिन्दी अखबार के नए मैनेजर इस भाषा के लिए एक हद तक परदेसी होते हैं। खबर और विज्ञापन का फर्क अब मिट गया है। दोनों में बुनियादी फर्क है। अखबार सूचना से ज्यादा अपनी साख बेचता है। पाठक पहले उसपर भरोसा करना चाहेगा, फिर उसके बताए प्रोडक्ट खरीदने के बारे में सोचेगा। क्रेडिबिलिटीऔर क्वालिटीदो बेहद संवेदनशील मसले हैं। उन्हें हासिल कीजिए। पाधक आपको हाथों- हाथ लेगा। सेलेब्रिटी भी बना देगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

यहां खबरों की गलाई, ढलाई और मरम्मत की जाती है

सोमवार, 26 अप्रैल 2010
प्रमोद जोशी
पत्रकारिता विद्यालय का सेशन शुरू होने के बाद पहली बार जुटी कक्षा में अध्यापक सवाल उठाता है, ‘व्हाट इज़ न्यूज ’? खबर क्या है? खबर की परिभाषा पर चर्चा करने के पहले अध्यापक छात्रों का ध्यान एकाग्र करते हैं।
एक-दूसरे से मुलाकात होने पर हम अक्सर पूछते हैं, और क्या खबर ? कोई नयी-ताजी ?
न्यूइज़ द न्यूज। न्यूका बहुवचन है न्यूज । समझे।
नया तो बहुत कुछ है। सैकड़ों बातें हर रोज़ हरेक के साथ गुजरती हैं। सब कुछ तो खबर नहीं है।
अध्यापक बताते हैं, ‘कुत्ता आदमी को काटे तो खबर नहीं है, पर आदमी कुत्ते को काटे तो खबर है। जो सच है, बेहद रोचक या त्रासद है, जो काफी बड़े तबके को अपील करे, वह खबर है।धीरे-धीरे खबर की परिभाषा खड़ी होती जाती है। छात्र के कान उंडेले जाते हैं कुछ शब्द-एक्यूरेसी, ऑब्जेक्टिविटी, फेयरनेस, जर्नलिस्टिक्स एथिक्स वगैरह-वगैरह। जब क्लासरूम से सीखकर वह बाहर आता है, तब उसका परिचय जीवन के यथार्थ से होता है।
कोई जुगाड़ है यार आजतकमें इंटर्नशिप का? एनडीटीवी में कोई पूछता नहीं, टोटल टीवी में जान- पहचान है? ज़ी, पी-10, डी-9, सी-4, नया सवेरा, हिंद स्वराज वगैरह में धक्के खाता वह कहीं घुसता है। फिर नजर आता है पत्रकारिता का व्यवहारिक रूप। हर न्यूज रूम का संदेश है-खेलो प्यारे खेलो।वह कुत्तों को काटने वाले आदमी की तलाश में निकल पड़ता है। कुत्तों को काटने वाले आदमियों की भी फौज तैयार है, पर उसमें नयापन नहीं रहा। कुछ और करो। वर्ना कहानियां गढ़ो। दूसरी ओर संपादक जी उदात्त विचारों वाले सम्पादकीय लिखते है – ‘इस पिछड़े क्षेत्र में हम विकास का संदेश लेकर आए हैं।चैनल के प्रोमों आते हैं – ‘ खबर धार-दार, ज़िदगी के आर-पार। सबसे पहले हम निकल जाए चाहे दम्म। झाँय-झाँय झम्म। निडर, निर्भय- निष्पक्ष...........इसके आगे हमें नहीं आता।
हाल में एडिटर्स गिल्ड के एक पदाधिकारी आन्नद बाला ने गिल्ड के अध्यक्ष राजदीप सरदेसाई को एक ओपेन लेटर लिखा – ‘क्या मुख्यधार के मीडिया ने सामूहिक रूप से उस प्राकृतिक विपदा की उपेक्षा करने का फैसला किया था, जिसमें पश्चिम बंगाल के 120 लोगों की जान चली गई थी ?.....बीबीसी तक ने हमारे राष्ट्रीय दैनिकों और चैनलों से ज्यादा कवरेज दी।.....मैं नहीं कहता कि आईपीएल के कंकालों और एंटरटेनमेंट की कवरेज न की जाए, पर इतना जानता चाहता हूं कि इतनी बड़ी प्राकृतिक आपदा को उस कवरेज के मुकाबले को टुच्ची सी भी जगह क्यों नहीं मिल पाई ?’ यह पत्र एक वेबसाइट में छापा और इसके जबाव में राजदीप ने लिखा – ‘आपने एक राष्ट्रीय महत्व का उठाया है। निश्चित रूप से हम संपादक के अंदर चेतना जागाने का कार्य करेंगे।शायद वे चेतना जगाएं, पर क्या हमें मालूम है कि एडिटर्स गिल्ड में कितने सदस्य आज सक्रिय संपादक है ? और क्या वे इन बातों को सुनते हैं ? क्या वे कवरेज के इस अंतर को नहीं जानते हैं? क्या वे वास्तव मे अपने चैनल या अखबार की कवरेज तय करते हैं ? मुझे इतना समझ में आता है कि मीडिया हाउसों में परिभाषाएं बदल रहीं हैं। खबर की भी और संपादक की भी। संपादक ट्रैक्टिकल फैसले भी करते होंगे, पर कहानी बदल रही है। ट्रैक्टिकल और स्ट्रैटजिक क्या है, इस पर कभी और चर्चा करेंगे, अभी केवल खबर के प्रति बदलते दृष्टिकोण पर ध्यान दें।
तीन दशक पहले अखबार तक अखबार अपमार्केट और डाउनमार्केट खबरों से ज्यादा फर्क नहीं करता था। गरीब आदमी की हत्या की खबरों का फर्क तब भी था, पर पत्रकार ने उसे बहुत परिभाषित नहीं किया था। आज का पत्रकार सायास फर्क करता है। दिल्ली में आपातकाल में जब चोपड़ा बच्चों की अपहरण के बाद हत्या हुई तो उसकी कवरेज पर चर्चा भी हुई तो उसकी कवरेज पर चर्चा भी हुई। उस वक्त तक पत्रकार पनीला ही सही, पर नैतिक दायित्व महसूस करता था। आज वह एसईसी-ए(सोशियो-इकोनमिक इंडीकेटर-ए) बी और सी का फर्क जानता है। वह जानता है कि हमारा विज्ञापन विभाग एसईसी-ए की रीडरशिप चाहता है। यह काफी हद तक सच है। बात सिर्फ नंबर की होती तो अंग्रेजी अखबारों का जुलूस कब का निकल चुका होता। दिल्ली को छोड़ किसी भी शहर में अंग्रेजी अखबार बारह पेज से ज्यादा के नहीं होते, क्योंकि उसका नंबर ही नहीं है। हमारे अंग्रेजीदां प्रभुओं के साथ मीडिया मैनेजरों की ऐसी सैटिंग है कि अंग्रेजी का बिजनेस हिंदी का कई गुना है।
यही मीडिया प्लानर हिंदी अखबार का कंटेंट और भाषा तय कर रहा है। कस्बों के अपवर्डली मोबाइल यूथ के नाम पर पाठकों को देश की वास्तविक समस्याओं से अलग करने की कोशिश हो रही है। ऐसा करते हुए खबर की परिभाषा ही उल्टी कर दी गई है। न्यूज एंड एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट एज न्यूज के जोड़ से एक शब्द बना इनफोटेनमेंट। प्रेमचंद की कहानी है शतरंज के खिलाड़ी। इसमें लखनऊ के दो नवाब शतरंज में मशरूफ रहते हैं। इनका मनोरंजन चलता रहा और फिरंगरियों ने अवध पर कब्ज कर लिया। मनोरंजन आनंद और आह्लाद निर्थक शब्द नहीं और न ही गंभीर, सीरियस या संजीदा होना वाजिब है। जीवन रसहीन नहीं है। पर यह कोई बात नहीं। बात इतनी है कि जीवन में सारी बातों का संतुलन चाहिए। पत्रकारिता के ओल्ड स्कूल और न्यू स्कूल के जुमले उन्होंने गढ़े हैं, जो या तो नएपन से घबराते हैं या पुराने को सहन नहीं कर पाते। हजारों साल में मानवीय मूल्य नहीं बदलते, शिल्प और मुहावरों के फर्क कोई बुनियादी सत्य नहीं है। अक्सर पुराना फैशन नया बनकर लौटता है।
इधर एक चलन है , घटियापन को स्थापित करने का । इसकी बुनियाद में पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों को आउटडेटेड साबित करने की उतावली है। कारोबार को बेहतर बनाने की जल्दबाजी में प्रोफेशन के बुनियादी मूल्यों को लोग भूल रहे हैं। पेड न्यूज और एडवर्टोरियल जैसे विचार किसी भी काल में पत्रकारिता को कबूल नहीं होंगे। और यदि किसी अखबार में संपादक की चलती हैं, तो पेड न्यूज उस अखबार में चल ही नहीं सकती। पर वह अनेक अखबारों में प्रकट हुई। इसका साफ साफ अर्थ है कि उन अखबारों में संपादक नही थे भले ही प्रिंट लाइन में संपादक का कोई नाम जाता हो। मूल्यविहीनता पहले भी थी, पर उसे प्रैक्टिस करने वाले अगली कतार में नही थे। अब वे बेहतर प्लेस्ड हैं।
हाल के दिनों में आईपीएल की खबरें छाने के पहले शोएब-सानिया खबरों पर छाए थे। अचानक वे खबरों से गायब हो गए। आईपीएल में खबर के तमाम तत्व हैं। उसमें मनोरंजन हैं, खेल और राजनीति भी। गवर्नेंस के गम्भीर मसले भी इसमें शामिल हैं। इसमें सार्वकालिक महत्व के तमाम सवाल शामिल हैं। इनवेस्टिगेशन के अनेक सूत्र इसमें छिपे है। ये सारे सूत्र दो साल पहले भी थे। तब किसी ने पड़ताल नहीं की। आईपीएल बड़ा बिजनेस भी हैं। उसके साथ देश के तमाम कारोबारी और राजनेता जुड़े हैं। इनकी असलियत सामने लाने के लिए निर्भीक और निष्पक्ष मीडिया की जरूरत है। वह मीडिया फिलहाल अनुपस्थित है। जो बातें सामने आ रही हैं, वे कोई किसी को लीक कर रहा है। अच्छी खबर तभी बनती है जब पत्रकार फेयरऔर ऑब्जेक्टिवहो । यह पत्रकारिता का मर्म है। यह विचार किसी न्यू स्कूल का नहीं हैं। और न यह कभी पुराना होगा। इसे प्रैक्टिस करने वाले कम हुये हैं। अब जब झूठी और शुद्ध कपोल-कल्पित बातें खबर बताकर पेश की जा रहीं हैं, यह नहीं मान लेना चाहिए कि खबर की परिभाषा बदल गई। यह सब ज्यादा देर तक नही चलेगा। जिस मायाजाल का पर्दाफाश करने के लिए पत्रकारिता ने जन्म लिया था, वह पहले से ज्यादा जटिल हुआ है। इसे आगे बढ़ाने के लिए न तो पत्रकारों की कमी है और न जनता के समर्थन की। आप देखते रहिए इसी के बीच से उभरेगी नई पत्रकारिता ।  
साभार http://samachar4media.com/