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Friday, October 7, 2022

कितनी मजबूत है कांग्रेस की धुरी?


नाटकीयता भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा गुण है। नरेंद्र मोदी की सफलता के पीछे नाटकीयता की बड़ी भूमिका है। मुलायम सिंह के बाद अखिलेश के ताकतवर बनने का मौका नाटकीय घटनाक्रम से भरा रहा। इस राजनीतिक-नाटकीयता के जन्म का श्रेय भी कांग्रेस को ही जाता है। स्वतंत्रता के पहले गांधी और सुभाष, स्वतंत्रता के बाद नेहरू और टंडन, फिर 1969 के राष्ट्रपति चुनाव में नाटकीयता चरम पर थी। 1998 में सीताराम केसरी को नाटकीय परिस्थितियों में हटाकर ही सोनिया गांधी आई थीं।
 

अब कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के मौके पर परिस्थितियों ने नाटकीय मोड़ ले लिया। शुरुआत अशोक गहलोत के प्रत्याशी बनने की संभावनाओं और फिर उनके समर्थकों की बगावत से हुई। पार्टी हाईकमान और अशोक गहलोत दोनों एक तीर से दो निशाने लगा रहे थे। हाईकमान को लगा कि गहलोत को जयपुर से हटाकर दिल्ली बैठाने से सचिन पायलट को काम मिल जाएगा। गहलोत की योजना थी कि दिल्ली जाएंगे, पर जयपुर में अपना कोई बंदा बैठाएंगे। सचिन पायलट की कहानी शुरू नहीं होने देंगे।

गहलोत प्रकरण फिलहाल पृष्ठभूमि में चला गया है, पर यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि वह खत्म हो गया है। इसका दूसरा अध्याय पार्टी अध्यक्ष के चुनाव के बाद शुरू होगा। फिलहाल देखें कि नए अध्यक्ष के चुने जाने की औपचारिक घोषणा होने के पहले या बाद में नाटकीय परिस्थितियों की गुंजाइश है या नहीं?  पर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह समझना है कि नया पार्टी अध्यक्ष 2024 के चुनाव में पार्टी की संभावनाओं को बेहतर करने में मददगार होगा या नहीं

Sunday, September 11, 2022

‘मिशन 24’ की राजनीतिक यात्राएं


राष्ट्रीय-राजनीति का चुनाव-विमर्श अचानक तेज हो गया है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जिस दिन शुरू हो रही थी, उसके एक दिन पहले नीतीश कुमार दिल्ली में 2024 के चुनाव की संभावनाओं को लेकर मुलाकातें कर रहे थे। उन्होंने राहुल गांधी और राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल के अलावा शरद पवार, एचडी कुमारस्वामी, ओम प्रकाश चौटाला, सीताराम येचुरी और दूसरे कुछ नेताओं से भी मुलाकात की। पार्टी उन्हें पीएम-उम्मीदवार के तौर पर पेश कर रही है, वहीं नीतीश कुमार ने दिल्ली में कहा कि मैं दावेदार नहीं बनना चाहता। सिर्फ विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास कर रहा हूँ। 4 सितंबर को रामलीला मैदान में हुई रैली में राहुल गांधी ने कहा कि नरेंद्र मोदी का मुकाबला सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस ही कर सकती है। यानी कि बीजेपी को हराना है तो उन्हें कांग्रेस के नेतृत्व में ही आना होगा। पर विरोधी-खिचड़ियाँ अलग-अलग बर्तनों में पक रही हैं। विपक्ष बिखरा हुआ है, लेकिन एकजुटता की कोशिशें जारी है। इस एकता का एक प्रदर्शन 25 सितंबर को हरियाणा में हिसार के नजदीक विपक्ष की रैली में देखने को मिलेगा।

एकता के प्रयास

विरोधी राजनीति के नजरिए से बिहार में हुए राजनीतिक बदलाव के बाद संभावनाएं बेहतर हुई हैं। इसका संकेत ममता बनर्जी के ताजा बयान से मिलता है। उन्होंने कहा, नीतीश जी, अखिलेश, हेमंत और मेरा वादा है कि ये चार मिलकर बीजेपी को 2024 लोकसभा चुनाव में 100 सीटों पर रोक देंगे। इनमें से पश्चिम बंगाल में 42, बिहार में 40, उत्तर प्रदेश में 80 और झारखंड में 14 लोकसभा सीटे हैं। भाजपा कहती है कि उनके पास 300 सीटें हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि राजीव गांधी के पास 400 सीटें थीं लेकिन अगले चुनाव में कांग्रेस हार गई। बीजेपी भी हारेगी। इन राज्यों में उसे 100 सीटों का नुकसान होगा। देश के अन्य हिस्सों की पार्टियां भी जल्द ही हमारे साथ आएंगी। क्या बीजेपी को 100 सीटों पर रोका जा सकता है?

कांग्रेस से परहेज

ध्यान देने वाली बात है कि ममता बनर्जी ने राहुल गांधी, केजरीवाल, शरद पवार और चंद्रशेखर राव के नामों का उल्लेख नहीं किया है। क्या इस बयान को भविष्य के राजनीतिक गठजोड़ का संकेत मानें? या सिर्फ बयान मानें, जो माहौल बनाने के लिए है? सवाल तीन हैं। नंबर एक, क्या राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी एकता है? दो, क्या इस एकता में कांग्रेस भी शामिल है? और तीन, बीजेपी के पास इसकी काट की रणनीति क्या है? इन सवालों के आगे-पीछे अनेक किंतु-परंतु हैं। इंडियन नेशनल लोकदल अपने संस्थापक देवीलाल की जयंती पर 25 सितंबर को रैली का आयोजन कर रहा है। इसमें कांग्रेस को छोड़कर विपक्षी दलों के कई नेताओं को निमंत्रण भेजा गया है। दूसरी तरफ हालांकि ममता बनर्जी विरोधी-एकता की समर्थक हैं, पर उनकी पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के योग्य उम्मीदवार माना है। कोलकाता में आयोजित पार्टी की बैठक के दौरान उन्होंने जिन दलों के नाम लिए उनमें कांग्रेस का नाम गायब था। यह भी साफ है कि बीजेपी को हराने के लिए लेफ्ट के साथ भी उनका गठबंधन नहीं होने वाला है।

भारत जोड़ो यात्रा

राहुल गांधी की यात्रा का उद्देश्य क्या है? कन्याकुमारी से यात्रा शुरू करते हुए राहुल गांधी ने दो तरह की बातें कहीं, यह मार्च राष्ट्रीय ध्वज के मूल्यों के तले सभी भारतीयों को एकजुट करने की कोशिश है, जिसका मूल सिद्धांत विविधता है। साथ ही यह भी कहा कि हिंदुत्व की विचारधारा के साए में ये मूल्य अब खतरे में हैं। ज़ाहिर है कि यह कांग्रेस को बचाने की कोशिश है और 2024 के चुनाव के पहले की राजनीतिक गतिविधि। यह यात्रा पार्टी के झंडे के पीछे नहीं चल रही है, बल्कि तिरंगे के पीछे है, पर संदेश राजनीतिक है और कांग्रेस के नेतृत्व में बनी योजना भी राजनीतिक है। अब इसे विरोधी एकता के लिए किए जा रहे प्रयासों के साथ जोड़कर देखें।

धुरी या परिधि?

विरोधी दलों की एकता में कांग्रेस कहाँ है? धुरी में या परिधि में? कांग्रेस साबित करना चाहती है कि यह एकता उसके नेतृत्व में ही संभव है, जबकि क्षेत्रीय स्तर पर दूसरे नेताओं को लगता है कि कांग्रेस अब नेतृत्व के लायक नहीं रही। डीएमके, राकांपा और शिवसेना जैसे दल कहते रहे हैं कि कांग्रेस के बिना विरोधी एकता संभव नहीं है, पर जल्द ही होने वाले बृहन्मुंबई म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनाव में राकांपा और शिवसेना मिलकर लड़ेंगे। कांग्रेस उसमें शामिल नहीं होगी। महाराष्ट्र में सरकार गिरने के बाद महा विकास अघाड़ी (एमवीए) की पहली बैठक में तीनों सहयोगी पार्टियों ने फैसला किया कि शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनाव एक साथ लड़ेंगी, जबकि स्थानीय निकाय चुनावों को साथ लड़ने पर कोई सहमति नहीं बनी।

यात्रा की राजनीति

राहुल गांधी खुद को हिंदुत्व का सबसे मुखर आलोचक, संघवाद और उदारवाद का प्रवर्तक मानते हैं। पर चुनाव परिणामों को देखें, तो लगता है कि वे पर्याप्त जन समर्थन जुटाने की स्थिति में नहीं हैं। कांग्रेस ने हिंदू-जनाधार को खो दिया है, जबकि बीजेपी ने गहरी जड़ें जमा ली हैं। राहुल गांधी अब यात्रा के फॉर्मूले का इस्तेमाल करना चाहते हैं। अतीत में महात्मा गांधी, चंद्रशेखर, मुरली मनोहर जोशी से लेकर लालकृष्ण आडवाणी तक ने इसका लाभ लिया है। क्या राहुल गांधी को इसका लाभ मिलेगा? आंशिक-परिणाम सामने आने में कुछ महीने लगेंगे और अंतिम-परिणाम 2024 के चुनाव के बाद आएंगे।  

Saturday, September 3, 2022

कांग्रेस की ‘सफाई’ या ‘सफाए’ की घड़ी

गुलाम नबी आज़ाद ने इस्तीफा ऐसे मौके पर दिया है, जब कांग्रेस पार्टी बड़े जनांदोलन की तैयारी कर रही है। 4 सितंबर को दिल्ली में महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ रैली है। 7 सितंबर से राहुल गांधी भारत-जोड़ो यात्रा पर निकलने वाले हैं। यह यात्रा महात्मा गांधी की यात्राओं की याद दिला रही हैं। क्या गांधी की तरह राहुल भी इस देश का मन जीतने में समर्थ होंगे?  

इस दौरान पार्टी अध्यक्ष का चुनाव होगा, जिसका कार्यक्रम घोषित कर दिया गया है। यह तय है कि नया अध्यक्ष गैर-गांधी होगा, पर एकछत्र नेता राहुल गांधी ही होंगे। नया अध्यक्ष चरण-पादुका धरे भरत की भूमिका में होगा। लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी की परीक्षा गुजरात, हिमाचल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों में होगी।

पार्टी के तीन मसले हैं। नेतृत्व, संगठन और विचारधारा या नैरेटिव। तीनों का अब एक स्रोत होगा, सर्वोच्च नेता। 1969 के बाद पार्टी का यह एक और रूपांतरण है। वह कैसा होगा, इसका अभी केवल अनुमान लगाया जा सकता है। मई 2014 में चुनाव हारने के बाद कार्यसमिति की बैठक में बाउंसबैक की उम्मीद जाहिर की गई थी। उस बात को आठ साल से ज्यादा समय हो चुका है और पार्टी लड़खड़ा रही है।

इस साल फरवरी में पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार ने पार्टी छोड़ते हुए कहा था कि जल्द ही दूसरे कई नेता कांग्रेस छोड़ेंगे और सोनिया गांधी जानती हैं कि क्यों छोड़ेंगे। पलायन का यह सिलसिला पिछले कई वर्षों से चल रहा है, पर किसी ने अपनी बात को ऐसी कड़वाहट के साथ नहीं कहा, जैसा गुलाम नबी आजाद ने कहा है। जयराम रमेश ने उन्हें मोदी-फाइड बताया है।

Sunday, August 28, 2022

आज़ाद ने खोले कांग्रेसी अंतर्विरोध


गुलाम नबी आजाद के इस्तीफे की चिट्ठी हाल के वर्षों में कांग्रेस के अंतर्विरोधों का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इसलिए महत्वपूर्ण यह देखना है कि इस पत्र पर कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया क्या है। उस प्रतिक्रिया से ही पता लगेगा कि पत्र में जो लिखा गया है, वह किस हद तक सही है और किस हद तक एक दिलजले की भड़ास। यह पत्र सोनिया गांधी को लिखा गया है और इसमें राहुल गांधी को निशाना बनाया गया है। उन्होंने लिखा है, ‘पार्टी के सभी वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं को किनारे कर दिया गया है, अब अनुभवहीन चाटुकारों की मंडली पार्टी चला रही है।’ दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि गुलाम नबी को कांग्रेस ने हीरो बनाया। संगठन-सरकार में कई पदों से नवाजा। दो बार लोकसभा सांसद बनाया, जम्मू-कश्मीर का सीएम बनाया। चुनाव की हार से बचाकर पाँच बार राज्यसभा सांसद बनाया। उन्होंने मलाई काटी, आज दगाबाजी कर रहे हैं। पार्टी नेतृत्व को इस बात पर विचार करना चाहिए कि इतना सीनियर नेता पार्टी क्यों छोड़ रहा है। क्या इसलिए कि उसे राज्यसभा की सीट नहीं मिली और दिल्ली में रहने के लिए उसे बंगला चाहिए? राज्यसभा की सीट तो अब की बात है, गुलाम नबी कम से कम तीन साल से तो अपनी बात कह ही रहे हैं। यह बात उन्होंने पार्टी के फोरम पर ही की है। वे अपने विचार पार्टी अध्यक्ष को लिखे पत्रों में व्यक्त करते रहे हैं। उनकी बात सुनने के बजाय उनपर आरोपों की बौछार क्यों लगी?

परिवार खामोश

सोनिया, राहुल और प्रियंका की कोई प्रतिक्रिया इन पंक्तियों के लिखे जाने तक नहीं आई है। बाकी सीनियर नेताओं के स्वर वैसे ही हैं, जैसे 1969 में इंदिरा कांग्रेस बनने के बाद से रहे हैं। शुक्रवार को दिन में पार्टी ने अजय माकन की एक प्रेस कांफ्रेंस रखी थी, पर उसका एजेंडा दिल्ली की आम आदमी पार्टी को निशाना बनाने का था। गुलाब नबी के इस्तीफे की खबर आने के बाद वह प्रेस कांफ्रेंस रद्द कर दी गई, क्योंकि स्वाभाविक रूप से सवाल इस इस्तीफे को लेकर ही होते। आज 28 अगस्त को कार्यसमिति की बैठक बुलाई गई है। इस बैठक का विषय पार्टी अध्यक्ष के चुनाव के कार्यक्रम को तय करना है। क्या उसमें कांग्रेस के आंतरिक प्रश्नों पर खुलकर विचार-विमर्श होगा? इस बैठक के विमर्श से भी आपको पार्टी की सोच-समझ का अंदाज लगेगा।

संकट या नया दौर?

कांग्रेस के लिए यह संकट की घड़ी है या नहीं है, यह अलग-अलग दृष्टिकोणों पर निर्भर करता है। पिछले नौ वर्षों में, यानी मोदी के आने के बाद, काफी लोग पार्टी छोड़कर गए हैं। हरबार कहा जाता है कि अच्छा हुआ, गंध गई। यानी कि अब ताजगी का नया दौर शुरू होगा। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि गुलाम नबी का जाना, अच्छा ही हुआ। अब पार्टी का नया दौर शुरू होगा। पार्टी को अगले तीन हफ्तों में अपने अध्यक्ष का चुनाव करना है। साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने वले हैं। 

अगले साल कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव हैं। दूसरे कई राज्यों में भी चुनाव हैं, पर पाँच में पहले चार राज्यों में कांग्रेस के महत्वपूर्ण हित जुड़े हुए हैं। राजनीति की निगाहें इससे आगे हैं, वह 2024 और 2029 के चुनावों तक देख रही है। गुलाम नबी के रहने या जाने से कांग्रेस की सेहत पर भले ही बड़ा फर्क पड़ने वाला नहीं हो, फिर भी उनके इस्तीफे से धक्का जरूर लगेगा। ऐसी परिघटनाओं से कार्यकर्ता का मनोबल गिरता है। उनके इस्तीफे के पहले पार्टी-प्रवक्ता जयवीर शेरगिल ने इस्तीफा दिया है। दोनों ने बदहाली के लिए राहुल गांधी को जिम्मेदार माना है। इसके पहले भी जो लोग पार्टी छोड़कर गए हैं, सबका निशाने पर राहुल गांधी रहे हैं।

वरिष्ठों की उपेक्षा

पाँच पेज के पत्र में गुलाम नबी आजाद ने सोनिया गांधी की तारीफ़ की है और कहा है कि उन्होंने यूपीए-1 और यूपीए-2 को शानदार तरीके से चलाया जिसकी वजह थी कि तब वरिष्ठ और अनुभवी लोगों की सलाह मानी जाती थी। उनके अनुसार पार्टी के शीर्ष पर एक ऐसा आदमी थोपा गया जो गंभीर नहीं है। राहुल गांधी का रवैया 2014 में कांग्रेस पार्टी की पराजय का कारण बना। अब पार्टी के अहम फ़ैसले राहुल गांधी की चाटुकार मंडली कर रही है और अनुभवी नेताओं को दरकिनार कर दिया गया है। फ़ैसले राहुल गांधी के सिक्योरिटी गार्ड और पीए कर रहे हैं। इसी चाटुकार मंडली के इशारे पर जम्मू में मेरा जनाज़ा निकाला गया। जिन्होंने यह हरकत की उनकी तारीफ़ पार्टी के महासचिवों और राहुल गांधी ने की। इसी मंडली ने कपिल सिब्बल पर भी हमला किया, जबकि आपको और आपके परिवार को बचाने के लिए वे क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे थे। उन्होंने राहुल गांधी के अध्यादेश फाड़ने के कृत्य को बचकाना बताया। पार्टी अब इस हाल में पहुँच गई है कि वहाँ से वापस नहीं लौट सकती।

Friday, August 26, 2022

गुलाम नबी का इस्तीफा और नाज़ुक घड़ी में कांग्रेस


इसे कांग्रेस के लिए संकट का समय न भी कहें, तो बहुत नाजुक समय जरूर कहेंगे। पार्टी को अगले तीन हफ्तों में अपने अध्यक्ष का चुनाव करना है। साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने वले हैं। अगले साल कर्नाटक
, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव हैं।

दूसरे कई राज्यों में भी चुनाव हैं, पर पाँच में पहले चार राज्यों में कांग्रेस के महत्वपूर्ण हित जुड़े हुए हैं। तेलंगाना में उसकी स्थिति फिलहाल अच्छी नहीं है, पर कांग्रेस की राष्ट्रीय स्थिति को बनाए रखने में तेलंगाना की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। पर राजनीति की निगाहें इससे आगे हैं, वह 2024 और 2029 के चुनावों तक देख रही है।

गुलाम नबी के रहने या जाने से कांग्रेस की सेहत पर भले ही बड़ा फर्क पड़ने वाला नहीं हो, फिर भी उनके इस्तीफे से धक्का जरूर लगेगा। ऐसी परिघटनाओं से कार्यकर्ता का मनोबल गिरता है। उनके इस्तीफे के पहले पार्टी-प्रवक्ता जयवीर शेरगिल ने इस्तीफा दिया है। दोनों ने बदहाली के लिए राहुल गांधी को जिम्मेदार माना है। इसके पहले भी जो लोग पार्टी छोड़कर गए हैं, सबका निशाना राहुल गांधी रहे हैं।

चुनाव-कार्यक्रम

घोषित कार्यक्रम के अनुसार कांग्रेस के अध्यक्ष पद की चुनाव प्रक्रिया 21 अगस्त से 20 सितंबर के बीच पूरी की जानी है। चुनाव की तारीख कार्यसमिति तय करेगी, जिसकी बैठक 28 को होने जा रही है। इस चुनाव में सभी राज्यों के 9,000 से अधिक प्रतिनिधि मतदाता होंगे। मधुसूदन मिस्त्री की अध्यक्षता में पार्टी की चुनाव-समिति ने कहा है कि हम समय पर चुनाव के लिए तैयार हैं।

वर्तमान स्थितियों में लगता है कि इस प्रक्रिया को पूरा करने में 20 सितंबर की समय सीमा का उल्लंघन हो सकता है। पार्टी के संगठन महामंत्री केसी वेणुगोपाल ने स्पष्ट किया है कि चुनाव टाले नहीं जा रहे हैं। अलबत्ता कुछ तकनीकी कारणों से उनमें देरी हो रही है। कहा यह भी जा रहा है कि बीच में पितृ-पक्ष पड़ने के कारण पार्टी देरी कर रही है। राज्यों के अध्यक्षों का चुनाव भी 20 अगस्त तक होना था, लेकिन यह प्रक्रिया किसी भी राज्य में पूरी नहीं हुई है।

Saturday, August 20, 2022

कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर असमंजस जारी


घोषित कार्यक्रम के अनुसार कांग्रेस के अध्यक्ष पद की चुनाव प्रक्रिया 21 अगस्त से 20 सितंबर के बीच पूरी की जानी है। चुनाव की तारीख कार्यसमिति तय करेगी। अभी तक कार्यसमिति की बैठक का कार्यक्रम तय नहीं है। इस चुनाव में सभी राज्यों के 9,000 से अधिक प्रतिनिधि मतदाता होंगे। मधुसूदन मिस्त्री की अध्यक्षता में पार्टी की चुनाव-समिति ने कहा है कि हम समय पर चुनाव के लिए तैयार हैं। फिर भी लगता नहीं कि चुनाव हो पाएंगे। राज्यों के अध्यक्षों का चुनाव भी 20 अगस्त तक होना था, लेकिन यह प्रक्रिया किसी भी राज्य में पूरी नहीं हुई है।

चुनाव टलते जाने की सबसे बड़ी वजह यह है कि राहुल गांधी फिर से इस पद पर वापसी के लिए तैयार नहीं हैं और पार्टी किसी दूसरे व्यक्ति के नाम को लेकर मन बना नहीं पाई है। पार्टी के वरिष्ठ नेता चाहते हैं कि राहुल गांधी ही इस पद पर आएं या फिर परिवार का कोई दूसरा सदस्य इस पद पर आए। पर राहुल और सोनिया गांधी कई बार कह चुके हैं कि गांधी परिवार से अब कोई अध्यक्ष नहीं बनेगा।

अब सुना जा रहा है कि किसी ऐसे नेता को पार्टी की कमान सौंपने की तैयारी की जा रही है, जो परिवार का विश्वस्त हो। शायद कुछ नेता खुद को दावेदार मानते हैं, पर वे खुलकर नहीं कहते। चुनाव की खुली घोषणा हो, तो नाम सामने आ भी सकते हैं। पर परिवार किसी एक नाम का इशारा करेगा, तो उसपर सहमति बन जाएगी। इस बीच जो नाम निकल कर आ रहे हैं, उनमें अशोक गहलोत, मल्लिकार्जुन खड़गे, मुकुल वासनिक, सुशील कुमार शिंदे, मीरा कुमार, कुमारी शैलजा और केसी वेणुगोपाल शामिल हैं। पर ज्यादातर कयास हैं।  

Sunday, May 1, 2022

गर्म लू की लपेट में कांग्रेस

सतीश आचार्य का कार्टून साभार

पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद देश की निगाहें अब गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों पर हैं। पर राजनीति की निगाहें इससे आगे हैं। यानी कि 2024 और 2029 के लोकसभा चुनावों और भविष्य के गठबंधनों के बारे में सोचने लगी हैं। इस सिलसिले में रणनीतिकार प्रशांत किशोर और कांग्रेस के संवाद का एक दौर हाल में हुआ है और अब 13-15 मई को उदयपुर में होने वाले चिंतन शिविर का इंतजार है। दूसरी तरफ प्रशांत किशोर की ही सलाह से तैयार हो रहे एक ऐसे विरोधी गठबंधन की बुनियाद भी पड़ रही है, जिसके केंद्र में कांग्रेस नहीं है। इसकी शुरुआत वे हैदराबाद में टीआरएस के नेता के चंद्रशेखर राव से समझौता करके कर चुके हैं। इस बीच भारतीय जनता पार्टी के उत्तर-मोदी स्वरूप को लेकर भी पर्यवेक्षकों के बीच विमर्श शुरू है, पर यह इस आलेख का विषय नहीं है।

पीके का प्रेज़ेंटेशन

प्रशांत किशोर के प्रेज़ेंटेशन के पहले अटकलें थीं कि शायद वे पार्टी में शामिल होंगे, पर ऐसा हुआ नहीं। मीडिया में इस आशय की अटकलें जरूर हैं कि उन्होंने पार्टी को सलाह क्या दी थी। इस बीच बीबीसी हिंदी के साथ एक विशेष बातचीत में प्रशांत किशोर ने कहा कि मजबूत कांग्रेस देश के हित में है, पर कांग्रेस की कमान किसके हाथ में हो, इस पर उनकी राय 'लोकप्रिय धारणा' से अलग है। राहुल गांधी या उनकी बहन प्रियंका गांधी उनकी पहली पसंद नहीं हैं। उनका सुझाव सोनिया गांधी को ही अध्यक्ष बनाए रखने का है। दूसरी तरफ खबरें यह भी हैं कि प्रशांत किशोर को शामिल करने में सोनिया गांधी की ही दिलचस्पी थी, राहुल और प्रियंका की नहीं।

दूसरी ताकत?

कई सवाल हैं। प्रशांत कुमार के पास क्या कोई जादू की पुड़िया है? क्या राजनीतिक दलों ने अपने तरीके से सोचना और काम करना बंद कर दिया है और उन्हें सेल्समैन की जरूरत पड़ रही है? ऐसा है, तो बीजेपी कैसे अपने संगठन के सहारे जीतती जा रही है और कांग्रेस पिटती जा रही है? प्रशांत किशोर का यह भी कहना है कि बीजेपी एक मजबूत राजनीतिक शक्ति के रूप में इस देश में रहेगी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे 2024 या 29 जीत जाएंगे। साथ ही वे यह भी जोड़ते हैं कि कोई थर्ड फ्रंट बीजेपी को चुनौती नहीं दे सकता। जिसे भी चुनाव जीतना है, उसे सेकंड फ्रंट बनना होगा। जो भी फ्रंट बीजेपी को हराने की मंशा रख रहा है, उसे 'सेकंड फ्रंट' होना होगा। कांग्रेस देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन बीजेपी को चुनौती देने वाला 'सेकंड फ्रंट' नहीं है।

Thursday, March 17, 2022

कांग्रेस में फिर चिंतन का दौर


जैसी कि उम्मीद थी, पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद, तीन तरह की गतिविधियाँ शुरू हुई हैं। भारतीय जनता पार्टी ने चार राज्यों में सरकारें बनाने का काम शुरू किया है और साथ ही इस साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों की तैयारियाँ शुरू कर दी हैं। आम आदमी पार्टी ने पंजाब की विजय के सहारे अपने विस्तार की योजनाएं बनानी शुरू की हैं। वहीं कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने अपनी भविष्य की रणनीतियों पर विचार करना शुरू कर दिया है।

राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की गतिविधियों के फर्क को आसानी से देखा जा सकता है। जहाँ 10 मार्च को नरेंद्र मोदी गुजरात में अपने चुनाव अभियान की शुरुआत कर रहे थे, वहीं कांग्रेस किंकर्तव्यविमूढ़ थी। रविवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के पहले अफवाह थी कि गांधी परिवार के सदस्य अपने पद छोड़ने जा रहे हैं। अलबत्ता पार्टी ने इन खबरों का खंडन किया हैजिसमें कहा गया था कि गांधी परिवार के सदस्य संगठनात्मक पदों से इस्तीफा दे देंगे। हालांकि पार्टी ने पाँचों राज्यों के पार्टी अध्यक्षों से इस्तीफे ले लिए हैं, साथ ही तरफ पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने कहा है कि यह हार गांधी परिवार के कारण नहीं हुई है।

बैठक में सोनिया गांधी के अलावा, पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा, वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मल्लिकार्जुन खड़गे, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और कई अन्य नेता शामिल हुए। इस बैठक के दो निष्कर्ष थे। एक, गांधी परिवार जरूरी है। और दूसरा यह कि पार्टी की फिर से वापसी के प्रयास होने चाहिए। इनमें एक सुझाव चिंतन-शिविर का भी है।

ताजा खबर है कि यह राष्ट्रीय चिंतन शिविर अगले महीने राजस्थान में हो सकता है। दो दिवसीय चिंतन शिविर में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य, विधायक दल के नेता, प्रदेश कांग्रेस कमेटियों के अध्यक्ष, अग्रिम संगठनों के राष्ट्रीय अध्यक्ष और वरिष्ठ नेता शामिल किए जाने का प्रस्ताव है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी से चिंतन शिविर राजस्थान में आयोजित करने का प्रस्ताव रखा है। सोनिया और राहुल गांधी की लगभग सहमति मिल गई है। अधिकारिक रूप से अगले कुछ दिनों में चिंतन शिविर राजस्थान में करने की घोषणा की जाएगी। गहलोत की इस संबंध में पार्टी के संगठन महामंत्री केसी वेणुगोपाल से भी चर्चा हुई है। सूत्रों के अनुसार, चिंतन शिविर के दौरान अशोक गहलोत राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने का प्रस्ताव रख सकते हैं। वहीं, कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य और उदयपुर के पूर्व सांसद रघुवीर मीणा इस प्रस्ताव का समर्थन करने को तैयार हैं।

चिंतन माने क्या?

पता नहीं चिंतन-शिविर से कांग्रेस का तात्पर्य क्या है, पर हाल के वर्षों का अनुभव है कि पार्टी ने अपनी संगठनात्मक-क्षमता में सुधार के बजाय इस बात को समझने पर ज्यादा ध्यान दिया है कि परिवार के प्रति वफादार कौन लोग हैं। पार्टी का पिछला चिंतन-शिविर जनवरी 2013 में जयपुर में लगा था। उसमें राहुल गांधी को जिम्मेदारी देने पर ही विचार होता रहा। पार्टी ने राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बना दिया था। उनकी सदारत में पार्टी पुराने संगठन, पुराने नारों और पुराने तौर-तरीकों को नए अंदाज़ में आजमाने की कोशिश करती नज़र आ रही थी। उसके पहले 4 नवम्बर, 2012 को दिल्ली के रामलीला मैदान में अपनी संगठनात्मक शक्ति का प्रदर्शन करने और 9 नवंबर को सूरजकुंड में पार्टी की संवाद बैठक के बाद सोनिया गांधी ने 2014 के चुनाव के लिए समन्वय समिति बनाने का संकेत किया और फिर राहुल गांधी को समन्वय समिति का प्रमुख बनाकर एक औपचारिकता को पूरा किया। जयपुर शिविर में ऐसा नहीं लगा कि पार्टी आसन्न संकट देख पा रही है। संयोग है कि उस समय तक भारतीय जनता पार्टी केंद्रीय सत्ता पाने के प्रयास में दिखाई नहीं पड़ रही थी और न उसके भीतर उसके प्रति आत्मविश्वास नजर आ रहा था। अलबत्ता नरेन्द्र मोदी अपना दावा पेश कर रहे थे और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उसे स्वीकार करने में आनाकानी कर रहा था।

Sunday, March 13, 2022

‘फूल-झाड़ू’ की सफलता के निहितार्थ


घरों की सफाई में काम आने वाली ‘फूल-झाड़ू’ राजनीतिक रूपक बनकर उभरी है। पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों से तीन बातें दिखाई पड़ रही हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं थी। वहीं, कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है, जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। तीसरे, पंजाब में आम आदमी पार्टी की असाधारण सफलता ने ध्यान खींचा है। चार राज्यों में भाजपा की असाधारण सफलता साल के अंत में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को भी प्रभावित और अंततः 2024 के लोकसभा चुनाव को भी। इस परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा सकता है, खासतौर से उत्तर प्रदेश में। पंजाब में आम आदमी पार्टी के पक्ष में आए इतने बड़े जनादेश के कारण राष्ट्रीय राजनीति में उसकी भूमिका बढ़ेगी। वहीं पुराने राजनीतिक दलों से निराश जनता के सामने उपलब्ध विकल्पों का सवाल खड़ा हुआ है। पंजाब में तमाम दिग्गजों की हार की अनदेखी नहीं की जा सकती। पर आम आदमी पार्टी अपेक्षाकृत नई पार्टी है। क्या वह पंजाब के जटिल प्रश्नों का जवाब दे पाएगी

उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण

हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश की सफलता इन सब पर भारी है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। उसे यह जीत तब मिली है, जब भाजपा-विरोधी राजनीति ने पूरी तरह कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, बीजेपी की सफलता है। महामारी की तीन लहरों, शाहीनबाग की तर्ज पर उत्तर प्रदेश के शहरों में चले नागरिकता-कानून विरोधी आंदोलन, किसान आंदोलन, लखीमपुर-हिंसा और आर्थिक-कठिनाइयों से जुड़ी नकारात्मकता के बावजूद योगी आदित्यनाथ सरकार को लगातार दूसरी बार फिर से गद्दी पर बैठाने का फैसला वोटर ने किया है। पिछले तीन-चार दशक में ऐसा पहली बार हुआ है। बीजेपी को मिली सीटों की संख्या में पिछली बार की तुलना में करीब 50 की कमी आई है। बावजूद इसके कि वोट प्रतिशत बढ़ा है। 2017 में भाजपा को जो वोट प्रतिशत 39.67 था, वह इसबार 41.3 है। समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत भी बढ़ा है। उसे 32.1 प्रतिशत वोट मिले हैं, जो 2017 में 21.82 प्रतिशत थे। यह उसके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसकी कीमत बीएसपी और कांग्रेस ने दी है। कांग्रेस का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 2.33 प्रतिशत है, जो 2017 में 6.25 प्रतिशत था। बसपा का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 12.8 है, जो 2017 में 22 से ज्यादा था। राष्ट्रीय लोकदल का प्रतिशत 3.36 प्रतिशत है, जो 2017 में 1.78 प्रतिशत था। ध्रुवीकरण का लाभ सपा+ को मिला जरूर, पर वह इतना नहीं है कि उसे बहुमत दिला सके।

पंजाब का गुस्सा

उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड में भी बीजेपी को लगातार दूसरी बार सफलता मिली है, जो इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ सीधे दो दलों के बीच मुकाबला होता है। इसे कांग्रेस के पराभव के रूप में भी देखना होगा, क्योंकि पिछले साल केरल में वाम मोर्चा ने कांग्रेस को हराकर लगातार दूसरी बार जीत हासिल की थी। इसी क्रम में पंजाब, मणिपुर और गोवा में कांग्रेस की पराजय को देखना चाहिए, जहाँ वह या तो सत्ताच्युत हुई है या उसने सबसे बड़े दल की हैसियत को खोया है। आम आदमी पार्टी ने पंजाब की 117 सीटों में से 92 पर जीत हासिल की है। कांग्रेस 18 सीट के साथ दूसरे स्थान पर रही। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दो सीटों से लड़े थे। दोनों में हार गए। उनके प्रतिस्पर्धी नवजोत सिंह सिद्धू भी हार गए। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, अमरिंदर सिंह और राजिंदर कौर भट्टल को भी हार का सामना करना पड़ा। लगता है कि पंजाब की जनता परम्परागत राजनीति को फिर से देखना नहीं चाहती। आम आदमी पार्टी नई पार्टी है। फिलहाल उसकी स्लेट साफ है, पर अब उसकी परख होगी। 

Friday, March 11, 2022

राजनीतिक-व्यवहार के सामाजिक-संदेशों को पढ़िए


चुनाव परिणामों से दो निष्कर्ष आसानी से निकाले जा सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं रही होगी। साथ ही कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है, जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। भारतीय जनता पार्टी को चार राज्यों में मिली असाधारण सफलता इस साल होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को भी प्रभावित करेगी। उत्तर प्रदेश के परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा सकता है। पंजाब में भारतीय जनता पार्टी का न तो कोई बड़ा दावा था और किसी ने उससे बड़े प्रदर्शन की अपेक्षा भी नहीं की थी। अब सवाल कांग्रेस के भविष्य का है। उसके शासित राज्यों की सूची में एक राज्य और कम हुआ। इन परिणामों में भाजपा-विरोधी राजनीति या महागठबंधन के सूत्रधारों के विचार के लिए कुछ सूत्र भी हैं। 

उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण

हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश की अकेली सफलता इन सब पर भारी है। देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण इस राज्य का महत्व है। माना जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। इसी वजह से भाजपा-विरोधी राजनीति ने इसबार पूरी तरह कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, बीजेपी की सफलता है।

भारतीय और विदेशी-मीडिया और विदेशी-विश्वविद्यालयों से जुड़े अध्येताओं का एक बड़ा तबका महीनों पहले से घोषणा कर रहा था, अबकी बार अखिलेश सरकार। अब लगता है कि यह विश्लेषण नहीं, मनोकामना थी। बेशक जमीन पर तमाम परिस्थितियाँ ऐसी थीं, जिनसे एंटी-इनकम्बैंसी सिद्ध हो सकती है, पर भारतीय राजनीति का यह दौर कुछ और भी बता रहा है। आप इसे साम्प्रदायिकता कहें, फासिज्म, हिन्दू-राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक-भावनाएं, पिछले 75 वर्ष की राजनीतिक-दिशा पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। केवल हिन्दू-राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को ही नहीं मुस्लिम-दृष्टिकोण और कथित प्रगतिशील-वामपंथी दृष्टिकोण पर नजर डालने की जरूरत है।

इस चुनाव के ठीक पहले कर्नाटक के हिजाब-विवाद के पीछे भारतीय जनता पार्टी की रणनीति सम्भव है, पर जिस तरह से देश के प्रगतिशील-वर्ग ने हिजाब का समर्थन किया, उससे उसके अंतर्विरोध सामने आए। प्रगतिशीलता यदि हिन्दू और मुस्लिम समाज के कोर में नहीं होगी, तब उसका कोई मतलब नहीं है।

इन परिणामों के राजनीतिक संदेशों क पढ़ने के लिए मतदान के रुझान, वोट प्रतिशत और अलग-अलग चुनाव-क्षेत्रों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना होगा। खासतौर से उत्तर प्रदेश में, जहाँ जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से जुड़े कुछ जटिल सवालों का जवाब इस चुनाव में मिला है। इसके लिए हमें चुनाव के बाद विश्लेषणों के लिए समय देना होगा।

Thursday, January 6, 2022

पंजाब में कांग्रेस का सिरदर्द बने सिद्धू


पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू अपनी ही पार्टी की सरकार के लिए समस्या बन गए हैं। राज्य में कांग्रेस की सरकार अपने ही प्रदेश अध्यक्ष के जुबानी हमलों का सामना कर रही है।

 नवजोत सिंह सिद्धू को जब से पंजाब कांग्रेस का प्रमुख बनाया गया है, तब से पार्टी के भीतर का विवाद बढ़ता ही जा रहा है। पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए मुश्किल स्थिति हो गई है कि वे अपनी वफ़ादारी मुख्यमंत्री के नेतृत्व के साथ रखें या प्रदेश अध्यक्ष के साथ।

 अंग्रेज़ी अख़बार हिन्दू ने इस ख़बर को प्रमुखता से जगह दी है। अख़बार ने लिखा है कि मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी लगातार मज़बूती से कांग्रेस का एजेंडा रख रहे हैं, जबकि सिद्धू लगातार अलग-अलग मुद्दों पर सरकार को कोस रहे हैं। सिद्धू 2015 में 'गुरु ग्रंथ साहिब' के अपमान और उससे जुड़ी हिंसा के साथ ड्रग्स के मुद्दे पर अपनी सरकार को लगातार घेर रहे हैं।

 अख़बार ने में लिखा है कि सिद्धू लगातार उन मुद्दों को उठा रहे हैं, जिनसे सिख वोटों को लामबंद किया जा सके। पार्टी के भीतर आमराय यह बन रही है कि सिख मुद्दों को हद से ज़्यादा उठाने के कारण कांग्रेस हिन्दू वोट बैंक के ठोस समर्थन को खो सकती है।

Friday, December 3, 2021

कांग्रेस के बगैर क्या ममता सफल होंगी?

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बुधवार 1 दिसंबर को मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता शरद पवार से मुलाक़ात के बाद पत्रकारों से कहा, "यूपीए क्या है? कोई यूपीए नहीं है।" पत्रकारों ने उनसे पूछा था कि क्या शरद पवार को यूपीए का नेतृत्व करना चाहिए? इसके जवाब में ममता बनर्जी ने यूपीए पर ही सवाल उठा दिया। साथ ही कांग्रेस को लगभग खारिज करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि सभी क्षेत्रीय पार्टियां साथ आ जाएं तो बीजेपी को आसानी से हराया जा सकता है। हालांकि तृणमूल कांग्रेस 2012 में ही यूपीए से अलग हो चुकी थी, पर यूपीए का अस्तित्व आज भी बना हुआ है, पर उससे जुड़े कई सवाल हैं। मसलन महाराष्ट्र में महाराष्ट्र विकास अघाड़ी की सरकार है यूपीए की नहीं।

तृणमूल नेताओं का कहना है पार्टी के विस्तार को कांग्रेस के खिलाफ कदम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। पर ममता बनर्जी ने बयान दिया कि बीजेपी से लड़ने की इच्छा रखने वाले हर नेता का वह स्वागत करेंगी। साफ है कि पार्टी की रणनीति में यह नया बदलाव है। अलबत्ता ममता बनर्जी ने महाराष्ट्र में जो आक्रामक मुद्रा अपनाई उससे बीजेपी के बजाय विरोधी दलों में तिलमिलाहट नजर आ रही है।

राहुल पर हमला

कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व पर सीधा हमला बोलते हुए ममता ने कहा कि ज्यादातर समय विदेश में बिताते हुए आप राजनीति नहीं कर सकते। उनका इशारा राहुल गांधी की तरफ था। ममता ने कहा, "आज जो परिस्थिति चल रही है देश में, जैसा फासिज्म चल रहा है, इसके ख़िलाफ़ एक मज़बूत वैकल्पिक ताक़त बनानी पड़ेगी, अकेला कोई नहीं कर सकता है, जो मज़बूत है उसे लेकर करना पड़ेगा।"

ममता बनर्जी इन दिनों पश्चिम बंगाल के बाहर राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा ले रही हैं। उन्होंने स्वयं बाहर के कई दौरे किए हैं और विरोधी दलों के नेताओं से मुलाक़ात की है। राजनीतिक विश्लेषक इसे ममता बनर्जी की विपक्ष की राजनीति में कांग्रेस की जगह लेने की कोशिश के रूप में देखते हैं। साथ ही यह भी कि ममता बनर्जी अपनी स्थिति को मजबूत बना रही हैं, ताकि आने वाले समय में उन्हें कांग्रेस के साथ सौदेबाजी करनी पड़े, तो अच्छी शर्तों पर हो। 

ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस यूपीए का हिस्सा रही है, लेकिन साल 2012 में वे इससे अलग हो गईं। पर कांग्रेस के साथ मनमुटाव उसके भी काफी पहले से शुरू हो चुका था। सन 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में यह साफ नजर आने लगा, जब ममता बनर्जी और मुलायम सिंह ने मिलकर एपीजे अब्दुल कलाम का नाम आगे कर दिया था। 2014 और फिर 2019 चुनावों में बीजेपी की जीत के बाद ये गठबंधन सिमट गया है.

क्या है यूपीए?

2004 में बनीं राजनीतिक परिस्थितियों के जवाब में कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए बना था। चार वामदलों- सीपीएम, सीपीआई, आरएसपी और फॉरवर्ड ब्लॉक ने गठबंधन का समर्थन तो किया लेकिन सरकार में शामिल नहीं हुए. वामदलों ने सरकार का समर्थन करने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम-सीएमपी) पर हस्ताक्षर किए। यह समझौता 14 मई 2004 को हुआ था।

Saturday, November 27, 2021

ममता अब राष्ट्रीय-राजनीति में उतरेंगी, कांग्रेस और बीजेपी दोनों का विकल्प बनेंगी?


ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने पिछले कुछ वर्षों में जो गतिविधियाँ की उन्हें देखते हुए उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं की भनक लगती थी, पर पिछले एक हफ्ते की गतिविधियों से लगता है कि वे अब खुलकर इस मैदान में हैं और भारतीय जनता पार्टी के विकल्प के रूप में कांग्रेस के बजाय खुद को पेश करने जा रही हैं। यह बात उनकी पार्टी के हित में जरूर है, पर कांग्रेस के लिए चिंता का विषय है।

जानकारों का यह भी कहना है कि ममता बनर्जी ने कांग्रेस के नेताओं को तोड़ा है, कुछ समय बाद बीजेपी के भी कई क्षुब्ध नेताओं को भी तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने का रास्ता नजर आ सकता है। यशवंत सिन्हा पहले ही शामिल हो चुके हैं, जबकि तृणमूल कांग्रेस कई अन्य 'क्षुब्ध' बीजेपी नेताओं से संपर्क बना रही है. हाल में ममता बनर्जी ने अपने दिल्ली दौरे के दौरान भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी से मुलाकात की। टीएमसी सांसद अभिषेक बनर्जी के दिल्ली आवास पर हुई बैठक के बाद राजनीतिक गलियारों में अटकलें लगाई जाने लगी कि भाजपा नेता स्वामी टीएमसी में शामिल होने वाले हैं। अलबत्ता स्वामी ने इन आरोपों को नकार दिया।

ममता बनर्जी ने भविष्य में मुम्बई यात्रा का कार्यक्रम भी बनाया है। वहाँ शरद पवार और शिवसेना के उद्धव ठाकरे के साथ वे एक लंबे अर्से से संपर्क में हैं। शरद पवार वर्षों से यह बात कह रहे हैं कि कांग्रेस से टूटी पार्टियों को एकसाथ आना चाहिए। तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अलावा आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस भी ऐसी ही एक पार्टी है।

मेघालय में बगावत

हाल में अपने दो दिन के दौरे पर आई ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी से मुलाकात नहीं की, तो पत्रकारों ने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों हुआ। उन्होंने जो जवाब दिया, उससे लगता है कि वे कांग्रेस से टकराव मोल लेने को तैयार हैं। उन्होंने कहा कि सोनिया गांधी से मुलाकात करने की कोई सांविधानिक जिम्मेदारी नहीं है। मुलाकात न होने की तुलना में दोनों के रिश्तों में कड़वाहट के ज्यादा बड़े कारण मेघालय में पैदा हुए हैं, जहाँ पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा समेत कांग्रेस पार्टी के 17 में 12 विधायक तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए हैं।

Wednesday, November 3, 2021

अमरिंदर ने कांग्रेस छोड़ी और पंजाब लोक कांग्रेस नाम से नई पार्टी बनाई


पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अंततः औपचारिक रूप से कांग्रेस पार्टी को छोड़ दिया है। मंगलवार को उन्होंने औपचारिक तौर पर कांग्रेस को छोड़ने और नई पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस को बनाने की घोषणा की। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भेजे 7 पन्नों के इस्तीफे में उन्होंने अपने पूरे सियासी सफर का जिक्र किया है। अमरिंदर ने कांग्रेस हाईकमान के साथ नवजोत सिद्धू पर भी सवाल खड़े किए। दूसरी तरफ नवजोत सिंह सिद्धू और नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के बीच तनातनी बढ़ती जा रही है।

अमरिंदर ने 18 सितंबर को पंजाब के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। इसके बाद ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ने की घोषणा कर दी थी। मंगलवार को उन्होंने अपनी नई पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस की घोषणा कर दी। अमरिंदर पहले ही राज्य की सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं। इसके लिए पहले किसान आंदोलन का हल निकलवाएंगे, फिर भाजपा और अकाली दल के बागी नेताओं से गठजोड़ करेंगे। खबर है कि कांग्रेस ने कैप्टन को मनाने की कोशिश की थी, लेकिन वे नहीं माने।

अमरिंदर ने नवजोत सिद्धू को पंजाब कांग्रेस प्रधान बनाने पर भी बड़े सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि मेरे और पंजाब के सभी सांसदों के विरोध के बावजूद सिद्धू को जिम्मेदारी दी गई। उन्होंने सिद्धू को पाक-परस्त करार देते हुए कहा कि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर पाकिस्तान के आर्मी चीफ और प्रधानमंत्री इमरान खान को गले लगाया। यह दोनों ही भारत में आतंकवाद फैलाने के लिए जिम्मेदार हैं।

चन्नी-सिद्धू के बीच ठनी

पंजाब में नवजोत सिंह की नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी से फिर ठन गई है। पंजाब सरकार पर सिद्धू के हमले जारी हैं। हाल में सिद्धू की आलोचना के कारण राज्य के एडवोकेट जनरल एपीएस देओल ने इस्तीफा दे दिया था, जिसे मुख्यमंत्री ने नामंजूर कर दिया है। सियासी गलियारों में यह चर्चा है कि नवजोत सिद्धू ने जिस तरह से अपनी ही पार्टी की सरकार पर फिर से हमला बोला है उसी के जवाब में मुख्यमंत्री ने यह क़दम उठाया है।

Thursday, October 28, 2021

फिलहाल बीजेपी को हिला पाना कांग्रेस के बस की बात नहीं: प्रशांत किशोर


प्रशांत किशोर का कहना है कि भारतीय जनता पार्टी अभी दशकों तक ताकतवर बनी रहेगी। राहुल गांधी को यदि लगता है कि मोदी की लोकप्रियता कम हो रही है, तो वे गलत सोच रहे हैं। प्रशांत किशोर की कंसल्टेंसी संस्था इंडियन पोलिटिकल एक्शन कमेटी (आईपीएसी) इन दिनों तृणमूल कांग्रेस के साथ है और उन्होंने यह बात गोवा में कही है।

इसके पहले प्रशांत किशोर ने इस महीने के शुरू में कहा था कि कांग्रेस पार्टी यदि समझती है कि लखीमपुर खीरी के घटनाक्रम के बाद राहुल और प्रियंका गांधी की आक्रामक मुद्रा से पार्टी का पुनरुद्धार हो जाएगा, तो यह गलत सोच है। प्रशांत किशोर के ताजा बयान बता रहे हैं कि उनकी कांग्रेस पार्टी से दूसरी बन चुकी है, जबकि पिछले महीने तक ऐसा लग रहा था कि शायद वे कांग्रेस पार्टी में बाकायदा शामिल हो जाएं।

जुलाई के महीने में खबरें थीं कि प्रशांत किशोर के साथ राहुलसोनिया और प्रियंका गांधी की एक साथ हुई मुलाक़ात काफ़ी सुर्खियाँ बटोर रही है। समाचार पत्रों से लेकर तमाम न्यूज़ चैनल में सूत्र बता रहे थे कि 'कुछ बड़ाहोने वाला है। यह 'बड़ाक्या हैइसके बारे खुल कर कोई कुछ नहीं बता रहा था। चारों की मुलाक़ात की आधिकारिक पुष्टि भी अंततः हो गई। और लगने लगा कि यह बड़ा प्रशांत किशोर हैं, जो कांग्रेस में बाकायदा शामिल हो सकते हैं। कांग्रेस में उनके शामिल होने की खबर इतने जोरदार तरीके से सुनाई पड़ी है कि राहुल गांधी की करीबी मानी जाने वाली एक नेता ने ट्वीट करके इस खबर का स्वागत भी कर दिया। इसके फौरन बाद यह ट्वीट डिलीट कर दिया गया। पार्टी सूत्रों ने बताया कि इस मुलाकात का अनुरोध प्रशांत किशोर ने किया था। यह मुलाकात चार घंटे तक चली थी।  

इस साल के शुरू में पश्चिम बंगाल में हुए विधान सभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की सफलता के बाद से प्रशांत किशोर का महत्व बढ़ा है। इस बीच तृणमूल कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी गतिविधियाँ बढ़ा दी हैं। गोवा में गतिविधियाँ भी पार्टी के बढ़ते कदमों की ओर इशारा कर रही है।

प्रशांत किशोर का कहना है कि बीजेपी अब भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण बनी रहेगी। वह जीते या हारे उसका वैसा ही महत्व बना रहेगा, जैसा स्वतंत्रता के बाद के पहले 40 वर्षों तक था। जैसे ही कोई पार्टी 30 फीसदी या ज्यादा वोट जीतने लग जाती है, तब उसका मतलब होता है कि जल्द ही उसका महत्व खत्म होने वाला नहीं है।