Sunday, August 8, 2021

ओलिम्पिक में स्वर्णिम सफलता


उपलब्धियों के लिहाज से देखें, तो तोक्यो भारत के लिए इतिहास का सबसे सफल ओलिम्पिक रहा है। नीरज चोपड़ा ने गोल्ड मेडल के साथ एथलेटिक्स में पदकों का सूखा खत्म किया है, साथ ही पदकों की संख्या के लिहाज से भारत ने सबसे ज्यादा सात पदक हासिल किए हैं। यह असाधारण उपलब्धि हैं, हालांकि भारत को इसबार इससे बेहतर की आशा थी। हमारा स्तर बेहतर हो रहा है। इसबार की सफलता हमारे आत्मविश्वास में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी करेगी। जिस तरह से पूरे देश ने नीरज के स्वर्ण और हॉकी टीम के कांस्य पदक जीतने पर खुशी जाहिर की है, उससे लगता है कि खेलों के प्रति जागरूकता बढ़ेगी। बेशक सरकार और कॉरपोरेट मदद के बगैर काम नहीं होगा, पर सबसे जरूरी है जन-समर्थन।

खेलों को आर्थिक-सामाजिक विकास का संकेतक मानें तो अभी तक हमारी बहुत सुन्दर तस्वीर नहीं है। दूसरी ओर चीनी तस्वीर दिन-पर-दिन बेहतर होती जा रही है। सन 1949 की कम्युनिस्ट क्रांति के 35 साल बाद सन 1984 के लॉस एंजेलस ओलिम्पिक खेलों में चीन को पहली बार भाग लेने का मौका मिला और उसने 15 गोल्ड, 8 सिल्वर और 9 ब्रॉंज़ मेडल जीतकर चौथा स्थान हासिल किया था। उस ओलिम्पिक में सोवियत गुट के देश शामिल नहीं थे। पर चीन ने अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराकर अपनी भावी वैश्विक महत्ता को दर्ज कराया था।

चीनी वर्चस्व

सन 2008 के बीजिंग ओलिम्पिक में चीन को सबसे ज्यादा 100 मेडल मिले थे। उस बार मेडल तालिका में उसका स्थान पहला था। लंदन ओलिम्पिक में उसका स्थान दूसरा हो गया और रियो में तीसरा।  तोक्यो ओलिम्पिक में स्वर्ण पदकों की संख्या और कुल संख्या के आधार पर भी अमेरिका नम्बर एक और चीन नम्बर दो पर है। इसबार केवल महिला खिलाड़ियों की पदक सूची भी उपलब्ध है। उसमें भी अमेरिका सबसे ऊपर है। 

हाल में किसी ने भारत की पूर्व एथलीट पीटी उषा से पूछा कि भारत ओलिम्पिक में चीन की तरह पदक क्यों नहीं लाता? जवाब मिला, मैंने सच बोल दिया तो वह कड़वा होगा। कड़वा सच क्या है? चीन इतने कम समय में ओलिम्पिक सुपर पावर कैसे बन गया? उन्होंने अंग्रेज़ी के एक शब्द में इसका जवाब दिया, ‘डिज़ायरयानी मनोकामना। इसे महत्वाकांक्षा भी मान सकते हैं। चीनी समाज के सभी तबक़ों में मेडल जीतने करने की ज़बरदस्त चाह है।

Thursday, August 5, 2021

तोक्यो से भारतीय हॉकी का पुनरोदय

1964 में जब तोक्यो में भारतीय हॉकी ने स्वर्ण जीता था

1964 में तोक्यो ओलिम्पिक खेलों के हॉकी फाइनल मैच की मुझे याद है. मैं नैनीताल के गवर्नमेंट हाईस्कूल में कक्षा 8 का छात्र था। फाइनल मैच के दिन स्कूल के सभी बच्चे प्रधानाचार्य कार्यालय के पास वाले लम्बे वरांडे में बैठाए गए और एक ऊँची टेबल पर रेडियो रखा गया। भारतीय टीम में खेल रहे काफी खिलाड़ियों को मैं कुछ समय पहले नैनीताल के ट्रेड्स कप हॉकी टूर्नामेंट में खेलते हुए देख चुका था।
मोहिन्दर लाल, जिन्होंने भारत की ओर से पाकिस्तान पर एकमात्र गोल किया था, उत्तर रेलवे दिल्ली की टीम से आए थे। उस टीम में पृथपाल सिंह और चरणजीत सिंह भी होते थे। पॉथपाल सिंह शॉर्ट कॉर्नर (उन दिनों उसका यही नाम था) विशेषज्ञ होते हैं। नैनीताल का वह हॉकी टूर्नामेंट देश में अपनी किस्म का अनोखा टूर्नामेंट है। इतनी बड़ी संख्या में शायद किसी और टूर्नामेंट में टीमें नहीं आती हैं। उनकी संख्या 60-70 से ऊपर हो जाती थी।
नैनीताल में मैंने अपने दौर के ज्यादातर दिग्गज खिलाड़ियों को खेलते हुए देखा था। हॉकी का शौक नैनीताल से मुझे लगा था, जो आज तक जीवित है। नैनीताल में हॉकी कोच दीक्षित जी को देखा, जिनकी देखरेख में बच्चे हॉकी खेलते थे। लखनऊ आने पर यहाँ हॉकी का माहौल देखा। मैं केकेसी में भरती हुआ, जहाँ स्कूली टीमों की बुलबुल हॉकी प्रतियोगिता होती थी। शायद वह 1967 का साल था, जब नैनीताल के सीआरएसटी कॉलेज के बच्चों की टीम ने वह प्रतियोगिता जीती, तो मुझे लगा मेरी टीम जीत गई।
लखनऊ में सन 1973 में जब केडी सिंह बाबू के नेतृत्व में विश्व कप हॉकी प्रतियोगिता खेलने जा रही भारतीय टीम का कोचिंग कैम्प लगा, तब तक मैं स्वतंत्र भारत में आ गया था। हमने स्वतंत्र भारत की साप्ताहिक पत्रिका का विशेषांक हॉकी पर निकाला। शम्भु नाथ कपूर हॉकी प्रेमी थे। शचींद्र त्रिपाठी खेल डेस्क देखते थे। मैंने अपनी तरफ से उस विशेषांक के लिए उनके साथ मिलकर काम किया। केडी सिंह बाबू, जमन लाल शर्मा के अलावा उन दिनों डनलप कम्पनी में अमीर कुमार किसी बड़े पद पर थे, जो बाबू के साथ ओलिम्पिक में भारतीय टीम के सदस्य रह चुके थे। वे भी उस कैम्प में बाबू की सहायता के लिए आए।
वह टीम बहुत अच्छी बनी और भारत फाइनल तक पहुँचा, पर पेनाल्टी शूटआउट में हार गया। उन दिनों अतिरिक्त समय के बाद सडन डैथ का रिवाज था। उसमें भारत को पेनाल्टी मिली और गोविन्दा जैसा खिलाड़ी चूक गया, वर्ना 1975 के विश्व कप के पहले हमने 1973 में ही विश्व कप जीत लिया होता।
लखनऊ में जब इनविटेशन हॉकी प्रतियोगिता शुरू हुई, तब स्वतंत्र भारत के लिए कवर मैंने किया। तब तक शचींद्रपति त्रिपाठी मुम्बई के नवभारत टाइम्स में चले गए थे। बाबू के नेतृत्व में एक बार भारतीय टीम का कैम्प, जिसमें मोहम्मद शाहिद को नए खिलाड़ी के रूप में उभरते हुए मैंने देखा। 1982 के एशिया खेल जब दिल्ली में हुए, तब स्वतंत्र भारत की खेल डेस्क को संभालने का मौका मुझे मिला। पाकिस्तान के खिलाफ फाइनल मैच टीवी पर देखने के लिए हम बड़े उत्साह से रॉयल क्लब विधायक निवास में बने अपने प्रेस क्लब में गए थे। उस मैच में भारतीय टीम 7-1 से हारी थी। मीर रंजन नेगी उसी टीम के गोली थे, जिनकी कहानी पर बाद में चक दे इंडिया फिल्म बनी। उस फाइनल मैच में भारत का एकमात्र गोल सैयद अली ने किया, जो नैनीताल से निकले थे। ऐसी तमाम यादें मेरे पास हैं।
बहरहाल इसबार मेरा मन कहता था कि तोक्यो से भारत मेडल जीतकर लाएगा। ध्यान दें 1964 के तोक्यो ओलिम्पक वास्तव में भारतीय हॉकी के एकछत्र राज का अंतिम टूर्नामेंट था। हालांकि उसके बाद 1980 में हमने गोल्ड जीता, पर वह जीत बहुत उत्साहवर्धक नहीं थी। उस प्रतियोगिता में कुल 6 टीमें थीं। पाकिस्तान, जर्मनी, हॉलैंड, ऑस्ट्रेलिया जैसी टीमें नहीं थीं। मुझे लगता है कि तोक्यो से भारतीय हॉकी के पुनरोदय की शुरुआत हो रही है। यह मेडल अंतिम नहीं, कई मायनों में पहला है।

Wednesday, August 4, 2021

कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष

नाश्ते की बैठक में एकत्र राजनेता

पिछले एक पखवाड़े से कांग्रेस और विरोधी दलों के बीच की गतिविधियों के परिणाम सामने आने लगे हैं। कम से कम ऐसा लगता है कि ममता बनर्जी की दिलचस्पी अलग से विरोधी-मोर्चा खोलने की नहीं है और कांग्रेस पार्टी इसमें सबसे आगे रहेगी। गत 3 अगस्त को विरोधी दलों के सांसदों के साथ नाश्ता करने के साथ ही साइकिल मार्च निकाल कर इस विरोधी-एकता का प्रत्यक्ष-प्रदर्शन भी हो गया है। राहुल के साथ नाश्ते पर जिन पार्टियों के नेता पहुंचे, वे ज्यादातर वही हैं, जिनके साथ किसी न किसी रूप में अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस का गठबंधन या तालमेल रहा है। इनमें तृणमूल कांग्रेस का नाम अब जुड़ा है, जो हाल में ममता बनर्जी और सोनिया गांधी की मुलाकात का परिणाम लगता है। बहरहाल संसद के भीतर और बाहर विरोधी-दलों की एकता नजर आने लगी है। हालांकि यह एकता 2024 के चुनाव का प्रस्थान-बिंदु है, पर इसके राजनीतिक-निहितार्थ का पता उसके पहले उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, गोवा और गुजरात जैसे राज्यों के चुनावों में लगेगा। 

इस मौके पर बैठक को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि विरोधी दल देश की 60 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन सरकार इस तरह व्यवहार कर रही है जैसे वे किसी का प्रतिनिधित्व ही नहीं करते हैं। जब सरकार हमें संसद में चुप करा देती है, तो वह सिर्फ सांसदों को ही अपमानित नहीं करती, बल्कि भारत के बहुसंख्यक लोगों की आवाज की भी अनसुनी करती है।

उन्होंने विपक्षी नेताओं से कहा, आपको आमंत्रित करने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि हम इस ताकत को एकजुट करें। जब सभी आवाजें एकजुट और मजबूत हो जाएगी तो बीजेपी और आरएसएस के लिए इस आवाज को दबाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। हम इस एकजुटता के आधार को याद करना चाहिए और यह महत्वपूर्ण है कि अब हम इस एकता के आधार के सिद्धांत के साथ आना शुरू कर रहे हैं।

नाश्ते पर चर्चा के बाद राहुल गांधी साइकिल चलाते हुए संसद पहुंचे। उन्होंने साइकिल पर एक तख्ती लगा रखी थी जिस पर रसोई गैस के सिलेंडर की तस्वीर थी और इसकी कीमत 834 रुपये लिखी हुई थी। बैठक में राहुल गांधी ने महंगाई के विरोध में संसद तक साइकिल मार्च का सुझाव दिया था। उनके साथ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता केसी वेणुगोपाल, अधीर रंजन चौधरी, गौरव गोगोई, सैयद नासिर हुसैन, आरजेडी के मनोज झा, तृणमूल कांग्रेस के कल्याण बनर्जी और कुछ अन्य सांसद भी साइकिल चलाकर संसद पहुंचे।

नाश्ते पर आए नेताओं में कांग्रेस और तृणमूल के अलावा एनसीपी, शिवसेना, आरजेडी,डीएमके, सीपीएम, सीपीआई, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग,आरएसपी, केरल कांग्रेस (एम), जेएमएम, समाजवादी पार्टी, नेशनल कांफ्रेंस और लोकतांत्रिक जनता दल (एलजेडी) शामिल हैं। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में गठबंधन का संकेत दे चुके हैं। कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के साथ गुपकार गठबंधन में भी कांग्रेस हाथ मिला चुकी है। बाकी दल भी किसी न किसी रूप में पार्टी के सहयोगी ही रहे हैं।

Tuesday, August 3, 2021

कम होता वैक्सीन-भय और दुनियाभर में बढ़ता तीसरी-चौथी लहर का खतरा


कोरोना वायरस से बचाव के लिए दुनिया टीकाकरण पूरा होने का इंतज़ार कर रही है। डॉक्टरों, वैज्ञानिकों और महामारी विशेषज्ञों के बड़े हिस्से का मानना है कि कोरोना के मुकम्मल इलाज के लिए वैक्सीन के अलावा और कोई विकल्प नहीं है, फिर भी एक तबका ऐसा हो, जो टीका लगवाना नहीं चाहता। कुछ लोग ऐसे हैं, जो टीका लगवाने से घबराते हैं। वे उन खबरों को गौर से सुनते हैं, जिनमें टीका लगवाने के बाद पैदा हुई परेशानियों का विवरण हो। दूसरी तरफ कुछ लोग ऐसे हैं, जो टीके के सख्त विरोधी हैं। कुछ वैज्ञानिक सिद्धांतों का हवाला देते हैं और कुछ धार्मिक विश्वासों का।

पिछले साल दुनिया में कोविड-19 से सबसे ज्यादा संक्रमण अमेरिका में हो रहे थे और वहाँ मौतें भी सबसे ज्यादा हुई थीं। पर जैसे ही टीके लगने शुरू हुए वहाँ बीमारी पर काफी हद तक काबू पा लिया गया। जहाँ इस साल 12 जनवरी को साढ़े चार हजार के ऊपर मौतें हुई थीं, वहीं अब यह संख्या सौ से डेढ़ सौ के बीच है। पर ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मरने वालों में करीब 90 फीसदी ऐसे हैं, जिन्होंने टीका नहीं लगवाया है।

वैक्सीन-विरोध

दुनियाभर में ऐसे संगठित समूह हैं, जो हर तरह की वैक्सीन के विरोधी हैं। वे अनिवार्य टीकाकरण को नागरिक अधिकारों, वैयक्तिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उल्लंघन मानते हैं। उनके अनुसार वैक्सीन से कोई फ़ायदा नहीं। यह इंसान के प्राकृतिक-प्रतिरक्षण के साथ दखलंदाजी है। इन्हें एंटी-वैक्स कहा जाता है। कुछ धार्मिक समूह हैं, कुछ वैकल्पिक मेडिसिन के समर्थक। कुछ मानते हैं कि वैक्सीन कुछ नहीं बड़ी कम्पनियों की कमाई का धंधा है। एक प्रकार की विश्व-व्यापी साजिश।

Sunday, August 1, 2021

विरोधी-एकता का गुब्बारा


विरोधी-एकता का गुब्बारा फिर से फूल रहा है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सफलता इसका प्रस्थान बिंदु है और ममता बनर्जी, शरद पवार और राहुल गांधी की महत्वाकांक्षाएं बुनियाद में। तीनों को जोड़ रहे हैं प्रशांत किशोर। कांग्रेस पार्टी भी प्रशांत किशोर की सलाह पर नई रणनीति बना रही है। ममता बनर्जी एक्शन पर जोर देती हैं। उनके पास बंगाल में वाममोर्चे को उखाड़ फेंकने का अनुभव है। क्या वह रणनीति पूरे देश में सफल होगी? सवाल है कि रणनीति के केंद्र में कौन है और परिधि में कौन? कौन है इसका सूत्रधार?

मोदी को हटाना है?

विरोधी-एकता का राजनीतिक एजेंडा क्या है? मोदी को हटाना? कांग्रेस नेता वीरप्पा मोइली ने कहा है कि केवल मोदी-विरोधी एजेंडा कारगर नहीं होगा। व्यक्ति विशेष का विरोध किसी भी राजनीतिक मोर्चे को आगे लेकर नहीं जाएगा। एक जमाने में विरोधी-दलों ने इंदिरा गांधी के खिलाफ यही किया था। वे कामयाब नहीं हुए। मोइली का कहना है कि हमें साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाना होगा। हम चर्चा यह कर रहे हैं कि कौन इसका नेता बनेगा, किस राजनीतिक पार्टी को इसकी अगुवाई करनी चाहिए तो, यह कामयाब नहीं होगा।

मोदी की सफलता व्यक्ति-केंद्रित है या विचार-केंद्रित? कांग्रेस, ममता और शरद पवार का राजनीतिक-नैरेटिव क्या है? व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या सामूहिक चेतना? बात केवल विरोधी-एकता की नहीं है। यह कितने बड़े आधार वाली एकता होगी? इसमें बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, जेडीएस, बसपा, वाईएसआर कांग्रेस, तेलुगु देशम पार्टी, अकाली दल और इनके अलावा तमाम छोटे-बड़े दल दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। क्या वे इसमें शामिल होंगे? जैसे ही आधार व्यापक होगा, क्या आपसी मसले खड़े नहीं होंगे?

अगले कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं। उसके बाद गुजरात के चुनाव होंगे। क्या यह विरोधी-एकता इन चुनावों में दिखाई पड़ेगी? यह बहुत मुश्किल सवाल है। केवल मुखिया के नाम का झगड़ा नहीं है। सत्ता-प्राप्ति की मनोकामना केवल राजनीतिक-आदर्श नहीं है, बल्कि आर्थिक-आधार बनाने की कामना है।

नेता ममता बनर्जी?

दिल्ली आकर ममता बनर्जी ने घोषणा की कि अब कोई इस राजनीतिक तूफान को रोक नहीं पाएगा। जब उनसे पूछा गया कि इस तूफान का नेतृत्व कौन करेगा, तो उनका जवाब था, मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ। कांग्रेस और तृणमूल दोनों की तरफ से कहा जा रहा है कि नेतृत्व का मसला महत्वपूर्ण नहीं है, पर यह समझ में आने वाली बात नहीं है। ममता बनर्जी और शरद पवार कांग्रेस से ही टूटकर बाहर गए थे। क्यों गए?

पिछले बुधवार को राहुल गांधी ने संसद में विपक्षी नेताओं की बैठक बुलाकर पहल की। बैठक में कांग्रेस, शिवसेना, एनसीपी, समाजवादी पार्टी, आरजेडी, आम आदमी पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने भाग लिया, पर तृणमूल के नेता नहीं थे। जब राहुल पैदल मार्च कर रहे थे, लगभग उसी समय, ममता बनर्जी ने अपने सांसदों की बैठक बुलाई थी।

तृणमूल-सांसद कल्याण बनर्जी ने बाद में कहा कि मोदी के खिलाफ विपक्ष का नेतृत्व सिर्फ ममता बनर्जी ही कर सकती हैं। उन्होंने कहा, मोदी का कोई विकल्प है तो वह ममता बनर्जी हैं, क्योंकि ‘वह लीडर नंबर वन’ हैं। ममता बनर्जी की रणनीति में विसंगतियाँ हैं। नरेंद्र मोदी की तरह उन्होंने खुद को राष्ट्रीय नेता बनाने का प्रयास नहीं किया। उनकी पार्टी ने विधानसभा चुनाव के दौरान बांग्ला उप-राष्ट्रवाद का जमकर इस्तेमाल किया। उनके कार्यकर्ताओं ने हिंदी और हिंदी-क्षेत्र को लेकर जो बातें कही थीं, वे बाधा बनेंगी।