Sunday, January 8, 2017

तीन सर्वे, तेरह नतीजे

चुनाव-सर्वेक्षणों की साख पर फिरता पानी
भारत के चुनाव सर्वेक्षणों का क्या रोना रोएं, इस बार तो अमेरिका के पोल भी असमंजस में रहे। हिलेरी क्लिंटन की जीत की आशा धरी की धरी रह गई। फिर भी पश्चिमी देशों के सर्वेक्षणों की साख बनी हुई है। हमारे यहाँ सर्वेक्षण मनोरंजन के लिए पढ़े जाते हैं, गंभीर विवेचन के लिए नहीं। इन चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों जैसी हवा सन 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में निकली थी, वैसी कभी नहीं निकली होगी। पर ऐसा ज्यादातर होता रहा है जब तीन सर्वेक्षणों के तेरह तरह के नतीजे होते हैं और परिणाम फिर भी कुछ और आता है।
अक्सर होता रहा है कि कभी किसी सर्वेक्षण का अनुमान सही हुआ और कभी दूसरे का। पर कुल मिलाकर ज्यादातर सर्वे गलत साबित होते रहे हैं। लगता है कि भारतीय मतदाता के दिल और दिमाग का पता लगाने वाली कोई पद्धति अभी तक विकसित नहीं हुई है। पर उससे बड़ा सच यह है कि बार-बार गलत साबित होने के बाद भी सर्वे हो रहे हैं और टीवी स्टूडियो में बैठे एंकर इन नतीजों के आधार पर गर्दन उठाकर ऐसे सवाल करते हैं कि गोया वे किसी ध्रुव सत्य की घोषणा कर रहे हैं।

Friday, January 6, 2017

बजट का विरोध गैर-वाजिब है

भारतीय राजनीति में लोक-लुभावन घोषणाएं ऐसे औजार हैं, जिनका इस्तेमाल हरेक पार्टी करना चाहती है. पर दूसरी पार्टी को उसका मौका नहीं देना चाहती.
केंद्र सरकार ने इस साल सितंबर में सिद्धांततः फैसला कर लिया था कि अब से बजट तकरीबन एक महीना पहले पेश किया जाएगा. यह केवल इस साल की व्यवस्था ही नहीं होगी. भविष्य में वित्त वर्ष भी बदलने का विचार है.
चर्चा तो इस बात पर होनी चाहिए कि यह विचार सही है या गलत. पर हम चर्चा तो दूसरी बातों की सुन रहे हैं.

Thursday, January 5, 2017

इन चुनावों पर हावी रहेंगे राष्ट्रीय सवाल

यह साल सन 2019 के पहले चुनाव के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण साल है. चुनाव आयोग ने जिन पांच राज्यों में चुनाव की तारीखें घोषित की हैं उनके अलावा गुजरात और हिमाचल प्रदेश दो राज्य और बचे हैं, जहाँ साल के अंत में चुनाव होंगे. इस साल राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति पद के चुनाव भी होने वाले हैं. इस लिहाज से चुनाव की जो बयार अब बहनी शुरू हुई है वह साल भर बहेगी. केवल बहेगी ही नहीं तमाम नेताओं का राजनीतिक भविष्य लिख कर जाएगी.

स्वाभाविक रूप से विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होते हैं. चूंकि हर राज्य के अलग-अलग मसले हैं, इसलिए उनके आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर एक राय नहीं बनाई जा सकती. फिर भी इस साल के चुनावों से जुड़े कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब सारे परिणाम आने के बाद ही मिलेंगे.

Sunday, January 1, 2017

इस साल राहें आसान होंगी

भारत के लिए गुजरा साल जबर्दस्त उठा-पटक वाला था। साल की शुरुआत पठानकोट पर हमले के साथ हुई और अंत विमुद्रीकरण और यूपी में सपा के पारिवारिक संग्राम के साथ हुआ। एक तरफ देश की सुरक्षा और विदेश नीति के सवाल थे, वहीं अर्थ-व्यवस्था और राजनीति में गहमा-गहमी थी। हमने पथरीला रास्ता पार कर लिया है। यह साल सफलताओं का साल साबित होने वाला है। अब राह आसान है और नेपथ्य का संगीत बदल रहा है।

Saturday, December 31, 2016

ड्रामा था या सच अखिलेश बड़े नेता बनकर उभरे

लाहाबाद में अखिलेश समर्थक एक पोस्टर
अंततः यह सब ड्रामा साबित हुआ. गुरुवार की रात एक अंदेशा था कि कहीं यह नूरा-कुश्ती तो नहीं थी? आखिर में यही साबित हुआ.
मुलायम परिवार के झगड़े का अंत जिस तरह हुआ है, उससे तीन निष्कर्ष आसानी से निकलते हैं. पहला, यह कि यह अखिलेश की छवि बनाने की एक्सरसाइज़ थी. दूसरा, मुलायम सिंह को बात समझ में आ गई कि अखिलेश की छवि वास्तव में अच्छी है. तीसरा, दोनों पक्षों को समझ में आ गया कि न लड़ने में ही समझदारी है.
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि अखिलेश यादव ज्यादा बड़े नेता के रूप में उभर कर सामने आए हैं. और शिवपाल की स्थिति कमजोर हो गई है. टीप का बंद यह कि रामगोपाल यादव ने 1 जनवरी को जो राष्ट्रीय प्रतिनिधि सम्मेलन बुलाया था, वह भी होगा.