Tuesday, December 15, 2015

ग्लोबल इंडिया की खोज में

प्रमोद जोशी
First Published:06-09-2009 10:38:53 PMLast Updated:06-09-2009 10:39:10 PM
हमारे गाँवों के विकास की निशानी है, बिजली का बल्ब। जिस गाँव में बिजली का लट्टू जल जाय, समझ लो उसका विकास हो गया। पिछले मंगलवार को यूरोपियन यूनियन ने बिजली के इस बल्ब को हमेशा के लिए विदा कर दिया। नागरिक अधिकारवादियों के विरोध के बावजूद इसके इस्तेमाल पर पाबंदी लग गई। उन्नीसवीं सदी की वैज्ञानिक क्रांति के बाद जितने आविष्कार हुए, उनमें शायद यह लट्टू ही अकेला ऐसा था, जिसने तकरीबन अपने मूल रूप में इतनी लम्बी सेवा की।

करीब 120 साल की सेवा के बाद इसके रिटायर होने की एक वजह  थी कि ग्लोबल वार्मिग बढ़ाने में इसका बड़ा हाथ था। इसका उत्तराधिकारी सीएफएल इसकी तुलना में कम बिजली खर्च करता है और चलता भी ज्यादा है। परम्परागत बल्ब की सेवानिवृत्ति के बाद ईयू को आशा है कि करीब डेढ़ करोड़ टन कार्बनडाईऑक्साइड का उत्सजर्न कम होगा। सीएफएल के उत्तराधिकारी के रूप में एलईडी बल्ब भी तैयार हो रहा है। शायद कुछ दिन बाद वही जलता नजर आए। विडंबना है कि जो यूरोप में अवांछित है, वह भी हमें उपलब्ध नहीं।

माल्थस को अंदेशा था कि एक रोज दुनिया में इतनी खाद्य सामग्री नहीं होगी कि बढ़ती आबादी की जरूरत पूरी हो सके। उसके वक्त से ही बहस चली आ रही है कि क्या मानवीय समझ इतनी अच्छी है कि वह आसन्न संकटों का सामना करते हुए समानता, न्याय और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर आधारित खुशहाल समाज बना सके। बहरहाल उन्नीसवीं सदी की वैज्ञानिक क्रांति ने औद्योगीकरण और कृषि क्रांति का रास्ता साफ किया। वह संकट यूरोप का था। उसने ही उसका समाधान खोज। तकनीक और विज्ञान का विकास भी वहीं हुआ। पर आज वैश्वीकरण का दौर है।

वैश्वीकरण सिर्फ पूँजी का नहीं। हर चीज का। ग्लोबल वॉर्मिग का और स्वाइन फ्लू का। आर्थिक मंदी भी वैश्वीकृत है। फर्क इतना है कि हमारे जसे विकासशील देशों की भूमिका बढ़ गई है। पिछले हफ्ते विश्व व्यापार संगठन के वाणिज्य मंत्रियों की अनौपचारिक बैठक दिल्ली में होने का कारण इस बात को रेखांकित करना भी था कि भारत पर कुछ वैश्विक जिम्मेदारियाँ हैं। इस बैठक का औपचारिक अर्थ नवम्बर-दिसम्बर में जेनेवा में होने वाली बैठक के बाद समझ में आएगा। बल्कि सन् 2010 के अंत तक दोहा-चक्र पूरा होने पर पता लगेगा कि हम किधर जा रहे हैं। बहरहाल हमारे कंधों पर दुनिया बदलने का बोझ है, पर हम अभी बिजली के लट्टू के दौर में हैं।

दुनिया की राजनैतिक, व्यापारिक, मानसिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सीमाएं खुल रहीं हैं। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में जब हमने वैश्वीकरण शब्द का इस्तेमाल शुरू किया तब उसका अर्थ अमेरिकी संस्कृति और जीवन-शैली की वैश्विक स्वीकृति से था। फ्रांसिस फुकुयामा के इतिहास का अंत यहीं पर था। पर तबसे अब तक दो बड़ी घटनाएं हुईं। एक 9/11 और दूसरे वैश्विक मंदी। अल कायदा ने बताया कि आतंक का वैश्वीकरण भी सम्भव है। सम्भावना है कि पूँजी के वैश्विक विस्तार के विरोध में वश्विक जनांदोलन भी खड़ा होगा। पर उससे बड़ा वैश्वीकरण प्रकृति कर रही है। ग्लोबल वॉर्मिग, मौसम में बदलाव, बीमारियां, पीने के पानी और भोजन का संकट पूरी मानवता के प्रश्न हैं। इनके समाधान के लिए हमें अपनी चेतना का लेवल बढ़ाना चाहिए।

सन् 2008 ने बड़े स्तर पर खाद्य संकट देखा। इस संकट के पीछे फसलों के खराब होने के अलावा वैश्विक व्यापार की प्रवृत्तियां भी थीं। एक थी तेल के लिए वनस्पतियों का इस्तेमाल। पिछले साल पेट्रोलियम की कीमतों में जबर्दस्त इजाफे के साथ-साथ इथेनॉल जैसे एग्रोफ्यूल की ओर उत्पादकों का ध्यान गया। मक्का, सोया और पामऑयल का इस्तेमाल बायोफ्यूल के लिए होने लगा है। दूसरी ओर विश्व में मांसाहार बढ़ रहा है। अमेरिका के किसान सुअरों को खिलाने के लिए मक्का उगा रहे हैं। व्यापारिक कारण मानवीय कारणों पर हावी हो रहे हैं। खेती का कॉरपोरेटाइजेशन उत्पादकता को बढ़ाने में मददगार हो तो हर्ज नहीं, पर भोजन सबके लिए जरूरी है। ऐसा न हो कि गरीब भूखे रह जाएं।

अर्थव्यवस्था का काफी बड़ा हिस्सा या समूची अर्थव्यवस्था बाजार के हवाले हो इसमें भी हर्ज नहीं, पर साधनों के वितरण की व्यवस्था सामाजिक देखरेख में ही होगी। बाजार भी सामाजिक निगरानी में ही चल सकते हैं। फ्री मार्केट और फ्री ट्रेड का प्रतिफल पिछले साल अमेरिकन बैंकिंग में देखने को मिला। सामाजिक निगरानी की अभी जरूरत है। संयोग है कि अमेरिका जैसी फ्री इकॉनमी में उद्योगों को बचाने के लिए पिछले साल सरकार का सहारा लेना पड़ा। ओबामा सरकार जिन उम्मीदों पर आई है, वे टूटती जा रहीं हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य और बूढ़े लोगों की पेंशन व्यवस्था के लिए दीर्घकालीन कार्यक्रम बनाना मुश्किल हो रहा है।

भारत जैसे देश कई मानों में बेहतर स्थिति में हैं। हम ऐसी तकनीक ला सकते हैं, जो पर्यावरण-मित्र हो। सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय की नई प्रणाली शुरू कर सकते हैं। हम ऐसे विज्ञान और तकनीक को बढ़ावा दे सकते हैं, जो हमारी समस्याओं का समाधान करे। उसके लिए नए ढंग से सोचने की जरूरत है। क्या हम नए ढंग से सोच पाते हैं? हमारा पूरा फिल्म उद्योग हॉलीवुड की नकल करने पर उतारू है। इतनी समृद्ध संगीत परम्परा के बावजूद धुनें नकल की हैं। उद्योग-व्यापार और प्रबंध के सारे मॉडल विदेशी हैं। मगर विकास, नियोजन, राजमार्ग, भवन निर्माण वगैरह की समझ पश्चिमी है। इसमें गलत कुछ नहीं। पश्चिम के पास तकनीक है तो वहां से लेनी चाहिए।

कुछ साल पहले प्रो. यशपाल ने शायद किसी प्रबंध संस्थान में देश भर में चलने वाले जुगाड़ की तारीफ की। तारीफ इसलिए नहीं कि उसकी तकनीक विलक्षण है, बल्कि इसलिए कि ऐसी मशीन जो पानी निकाल दे, बिजली बना दे। जरूरत पड़े तो ठेलागाड़ी बन जाय या नाव चला दे। यानी अपनी जरूरतों को पूरा करे। विज्ञान और तकनीक की यही भूमिका है। अपनी समस्याओं के अपने समाधान खोजने के लिए हमें वैचारिक क्रांति की जरूरत है।

दो साल पहले देश में रिटेल कारोबार का हल्ला था। आज उस कारोबार में मंदा हैं। इसलिए नहीं कि पूँजी कम पड़ गई। इसलिए कि रिटेल के देशी मॉडल के मुकाबले पश्चिमी सुपर मार्केट का बिजनेस मॉडल कमजोर है। आपके मुहल्ले का दुकानदार आपको जो सुविधाएं दे रहा है, उसके मुकाबले फैंसी स्टोर सिर्फ दिखावटी हैं। उसे आप देखने जाते हैं, खरीदारी करने नहीं। यही बाजार का नियम है। पश्चिम का जो ग्राह्य है, उसे जरूर लेना चाहिए। पर हमें आविष्कार करने चाहिए। हमारे माल्थस सवाल उठाएं और हमारे गैलीलियो विश्वदृष्टि के उपकरण दें।
pjoshi @hindustantimes. com

लेखक ‘हिन्दुस्तान’ में दिल्ली संस्करण के वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं।

6.9.2009 के हिन्दुस्तान में प्रकाशित

Monday, December 14, 2015

राजनीति की फुटबॉल बना समान कानून का मसला

सन 1985 में शाहबानो मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद राजीव गांधी की कांग्रेस पार्टी ने पचास के दशक की जवाहर लाल नेहरू जैसी दृढ़ता दिखाई होती तो शायद राष्ट्रीय राजनीति में साम्प्रदायिकता की वह भूमिका नहीं होती, जो आज नजर आती है। दुर्भाग्य से समान नागरिक संहिता की बहस साम्प्रदायिक राजनीति की शिकार हो गई और लगता नहीं कि लम्बे समय तक हम इसके बाहर आ पाएंगे। इस अंतर्विरोध की शुरुआत संविधान सभा से ही हो गई थी, जब इस मसले को मौलिक अधिकारों से हटाकर नीति निर्देशक तत्वों का हिस्सा बनाया गया। यह  सवाल हमारे बीच आज भी कायम है तो इसकी वजह है हमारे सामाजिक अंतर्विरोध और राजनीतिक पाखंड। राजनीतिक दलों ने प्रगतिशीलता के नाम पर संकीर्णता को ही बढ़ावा दिया। यह बात समझ में आती है कि सामाजिक बदलाव के लिए भी समय दिया जाना चाहिए, पर क्या हमारे समाज में विवेकशीलता और वैज्ञानिकता को बढ़ाने की कोई मुहिम है?

पचास के दशक में नेहरू का मुकाबला अपनी ही पार्टी के हिन्दूवादी तत्वों से था। उनके दबाव में हिन्दू कोड बिल निष्फल हुआ और आम्बेडकर ने निराश होकर इस्तीफा दे दिया। उस दौर में पार्टी को दुधारी तलवार पर चलना पड़ा था। उसे यह भी साबित करना था कि उसकी प्रगतिशीलता केवल हिन्दू संकीर्णता के विरोध तक ही सीमित नहीं है। अंततः सन 1956 में हिन्दू कोड बिल भी आया। पर इससे बहुसंख्यक हिन्दू कांग्रेस के खिलाफ नहीं हुए। और न जनसंघ किसी बड़ी ताकत के रूप में उभर कर सामने आई थी।

Sunday, December 13, 2015

उल्टी भी पड़ सकती है कांग्रेसी आक्रामकता


सन 2014 के चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस के सामने मुख्यधारा में फिर से वापस आने की चुनौती है। जिस तरह सन 1977 की पराजय के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी वापसी की थी। पार्टी उसी लाइन पर भारतीय जनता पार्टी को लगातार दबाव में लाने की कोशिश कर रही है। पार्टी की इसी छापामार राजनीति का नमूना संसद के मॉनसून सत्र में देखने को मिला. संयोग से उसके बाद बिहार में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को उम्मीद से ज्यादा सीटें मिलीं। इस दौरान राहुल गांधी के तेवरों में भी तेजी आई है।

संसद के इस सत्र में भी कांग्रेस मोल-भाव की मुद्रा में है। पिछले हफ्ते दिल्ली हाईकोर्ट ने नेशनल हैरल्ड के मामले में जो फैसला सुनाया है, उसने राष्ट्रीय राजनीति का ध्यान खींचा है। सहज भाव से कांग्रेस पहले रोज से ही इस मामले में बजाय रक्षात्मक होने के आक्रामक है। देखना होगा कि क्या पार्टी इस आक्रामकता को बरकरार रख सकती है। क्या सन 2016 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को कमोबेश सफलता मिलेगी?


पहली नजर में हैरल्ड मामले में कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया न तो संतुलित है और न सुविचारित। इसके कानूनी और राजनीतिक पहलुओं पर सोचे समझे बगैर पार्टी ने पहले दिन से जो रुख अपनाया है, वह कांग्रेस के पुराने दिनों की याद दिलाता है, जब इंदिरा गांधी के खिलाफ तनिक सी बात सामने आने पर भी देशभर में रैलियाँ होने लगती थीं। पार्टी को गलतफहमी है कि संसद से सड़क तक हंगामा करने से उसकी वापसी हो जाएगी। पार्टी का अदालती प्रक्रिया को लेकर रवैया खतरनाक है। देश भूला नहीं है कि सन 1975 का आपातकाल इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के कारण लागू हुआ था। संयोग से सोनिया गांधी ने ‘इंदिरा की बहू हूँ’ कहकर उसकी पुष्टि भी कर दी। यह एक सामान्य मामला है तो उन्हें अदालत में दोषी ठहराया ही नहीं जा सकता। जब वे दोषी हैं नहीं तो कोई उनको फँसा कैसे देगा?

Saturday, December 12, 2015

निजी विधेयकों का रास्ता बंद क्यों?

प्रमोद जोशी

भारत की संसद
Image copyrightAP
इस साल अप्रैल में ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए क़ानून बनने की राह निजी विधेयक की मदद से खुली थी. राज्यसभा ने द्रमुक सांसद टी शिवा के इस आशय के विधेयक को पास किया.
ये विधेयक इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि लगभग 45 साल बाद किसी सदन ने निजी विधेयक पास किया था. पिछले हफ़्ते राज्यसभा में 14 निजी विधेयक पेश किए गए और लोकसभा में 30. इनमें सरकारी हिंदी को आसान बनाने, बढ़ते प्रदूषण पर रोक लगाने, मतदान को अनिवार्य करने से लेकर इंटरनेट की 'लत' रोकने तक के मामले हैं.
राज्यसभा सदस्य कनिमोझी सदन में मृत्युदंड ख़त्म करने से जुड़ा विधेयक लाना चाहती हैं जिसके प्रारूप पर अभी विचार-विमर्श हो रहा है. कांग्रेस सांसद शशि थरूर धारा 377 में बदलाव के लिए विधेयक ला रहे हैं.
शशि थरूरImage copyrightPIB
निजी विधेयक सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं और सरकार का ध्यान किसी ख़ास पहलू की ओर खींचते हैं.
जागरूकता के प्रतीक रहे भारतीय संसद के पहले 18 साल में 14 क़ानूनों का निजी विधेयकों की मदद से बनना और उसके बाद 45 साल तक किसी क़ानून का नहीं बनना किस बात की ओर इशारा करता है? क़ानून बनाने की ज़िम्मेदारी धीरे-धीरे सरकार के पास चली गई है.
निजी विधेयक क़ानून बनाने से ज़्यादा सामाजिक जागरुकता की ओर इशारा करते हैं और इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है.
भारत की संसदImage copyrightReuters
भारतीय संसद क़ानून बनाती है. शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत पर वह कार्यपालिका से स्वतंत्र है, पर उस तरह नहीं जैसी अमरीकी अध्यक्षात्मक प्रणाली है.
हमारी संसद में सरकारी विधेयकों के अलावा सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से विधेयक पेश करने का अधिकार है लेकिन विधायिका का काफ़ी काम कार्यपालिका यानी सरकार ही तय करती है. एक तरह से पार्टी लाइन ही क़ानूनों की दिशा तय करती है.

Wednesday, December 9, 2015

भारत-पाकिस्तान एक कदम आगे

भारत-पाकिस्तान रिश्तों में एक हफ्ते के भीतर भारी बदलाव आ गया है. यह बदलाव बैंकॉक में अजित डोभाल और नसीर खान जंजुआ की मुलाकात भर से नहीं आया है. यह इस बात का साफ इशारा है कि दोनों देशों ने बातचीत को आगे बढ़ाने का फैसला किया है. यह मामला बेहद संवेदनशील है. दोनों देशों की जनता इसे भावनाओं से जोड़कर देखती है. बैंकॉक-वार्ता के गुपचुप होने की सबसे बड़ी वजह शायद यही थी. और अब कड़ी प्रतिक्रियाएं आने लगी हैं. दूसरी ओर विदेशमंत्री सुषमा स्वराज पाकिस्तान के महत्वपूर्ण नेताओं से मुलाकात भी कर चुकी हैं. सब ठीक रहा तो अब तक क्रिकेट सीरीज खेले जाने का फैसला भी सामने आ चुका होगा. यह सब काफी तेजी से हुआ है.