Thursday, August 19, 2010

कश्मीर के बारे में हम कितना सोचते हैं

हमारा जितना अनुभव आज़ादी का है लगभग उतना लम्बा अनुभव कश्मीर को लेकर तल्खी का है। यह समस्या आज़ादी के पहले ही जन्म लेने लगी थी। चूंकि हमारा विभाजन धार्मिक आधार पर हो रहा था, इसलिए कश्मीर सबसे बड़ी कसौटी था। साबित यह होना था कि क्या कोई मुस्लिम बहुल इलाका धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का हिस्सा हो सकता है। या  मुस्लिम जन-संख्या किसी न किसी रोज़ अपने लिए मुस्लिम राज्य को स्वीकार कर लेगी।

इस पोस्ट में मैं उस पृष्ठभूमि को नहीं दे पाऊँगा, जो कश्मीर समस्या से जुड़ी है। पर मेरे विचार से भारत और पाकिस्तान के बीच किसी रोज यह समस्या दोनों की रज़ामंदी से सुलझ गई तो इस उप महाद्वीप के अंतर्विरोध अच्छी तरह खुलेंगे। एक विचार यह है कि इस समस्या के समाधान के बाद पाकिस्तान का कट्टरपंथी समुदाय दूसरी समस्या उठाएगा। यदि वह समस्या नहीं उठाएगा तो उसका वज़ूद खतरे में होगा। क्योंकि पाकिस्तान के भीतर काफी बड़े इलाके के लोगों को लगता है कि पाकिस्तान बना ही क्यों।

हमारे लिए कश्मीर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हमें भी साबित करना है कि हमारी धर्म निरपेक्ष व्यवस्था में एक मुस्लिम बहुल प्रदेश भी सदस्य है। समूचा कश्मीर उसमें होता तो बात ही क्या थी। बहरहाल आज श्रीनगर घाटी में तीन चौथाई से ज्यादा लोग भारत को अपना नहीं मानते। इसमें किसका दोष है, इसका विश्लेषण मैं नहीं कर रहा। हाँ इतनी मेरी समझ है कि 1950 में जनमत संग्रह होता तो कश्मीरी लोग भारत में रहना पसंद करते। कम से कम घाटी के लोगों में नाराज़गी नहीं थी। थी भी तो पाकिस्तानी रज़ाकारों से थी, जिन्होंने कश्मीरियों को सताया था।

आज हालात फर्क हैं। पर जिनके मंसूबे कश्मीर को भारत से अलग करने के हैं उन्हें समझ लेना चाहिए कि वे कश्मीर को भारत से अलग नहीं करा पाएंगे। यह पूरे देश की अस्मिता का सवाल है। समूचा देश किसी भी हद तक जाकर लड़ने को तैयार हो जाएगा। समाधान देश के लोगों की मर्जी से होगा। बेहतर हो हम सब सोचें कि हम कैसा समाधान चाहेंगे।

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Wednesday, August 18, 2010

क्या समाचार पत्रिकाएं अप्रासंगिक हो गईं हैं?

न्यूज़वीक का पहला अंक

दिनमानज्यादा वक्त चला नहीं। जब चलता था तो उसकी टाइम या न्यूज़वीक से तुलना की जाती थी। दिनमान को पूरी तरह विकसित होने का या पूरी तरह समाचार पत्रिका बनने का मौका ही नहीं मिला। जब वह बंद हुआ तब तक दुनिया में समाचार पत्रिकाओं पर संकट के बादल नहीं थे। हिन्दी के अखबारों का तो विकास ही तभी से शुरू हुआ था। हांगकांग से निकलने वाली फार ईस्टर्न इकोनॉमिक रिव्यू दिसम्बर 2009 में बंद हो गई। एशियावीक बंद हुई। बहरहाल जिन समाचार पत्रिकाओं को हम मानक मान कर चलते थे, उनके बंद होने का अंदेशा कुछ सोचने को प्रेरित करता है।
अमेरिका की प्रतिष्ठित समाचार पत्रिका न्यूज़वीक का सौदा हो गया। इसे ख़रीदने वाले 91 साल के सिडनी हर्मन हैं जो ऑडियो उपकरणों की कंपनी हर्मन इंडस्ट्रीज़ के संस्थापक हैं। वॉशिंगटन पोस्ट कम्पनी, जिसने न्यूज़वीक को बेचा, न्यूज़वीक अपने आप में और इसे खरीदने वाले सिडनी हर्मन तीनों किसी न किसी वजह से महत्वपूर्ण हैं। कैथरीन ग्राहम जैसी जुझारू मालकिन के परिवार के अलावा वॉशिंगटन पोस्ट के काफी शेयर बर्कशर हैथवे के पास हैं, जिसके स्वामी वॉरेन बफेट हैं। न्यूज़वीक को ख़रीदने की कोशिश करने वालों में न्यूयॉर्क डेली न्यूज़ के पूर्व प्रकाशक फ्रेड ड्रासनर और टीवी गाइड के मालिक ओपनगेट कैपिटल भी शामिल थे। पर सिडनी हर्मन ने सिर्फ 1 डॉलर में खरीदकर इसकी सारी देनदारी अपने ऊपर ले ली है।
बताते हैं कि अब न्यूज़वीक को मुनाफे के लिए प्रकाशित नहीं किया जाएगा। तो क्या घाटे के लिए प्रकाशित किया जाएगा? सिडनी हर्मन मशहूर दानी भी हैं। पर क्या वे किसी पत्रिका को घाटे में चलाकर अपने दान को पूरा करेंगे? न्यूज़वीक ही नहीं टाइम पर भी संकट के बादल हैं। इसका प्रसार 42 लाख से घटकर 33 लाख पर आ गया है। इसके प्रकाशक टाइम वार्नर आईएनसी टाइम को ही नहीं खुद को यानी पूरे प्रकाशन संस्थान को बेचना चाहते हैं।
न्यूज़वीक हर हफ़्ते प्रकाशित होती है। जैसाकि इसका नाम है यह खबरों से जुड़ी पत्रिका है। 17 फरवरी 1933 को जब यह शुरू हुई थी इसका नाम न्यूज़-वीक था। न्यूज़ और वीक। 1937 में टुडे नाम की पत्रिका इसमे समाहित हो गई। नया नाम हुआ न्यूज़वीक। 1961 में जब वॉशिंगटन पोस्ट कम्पनी ने इसे खरीदा तब खबरों को लेकर दुनिया बेहद संज़ीदा थी। कम्पनी ने 1982 में न्यूज़वीक ऑन एयर नाम से रेडियो प्रोग्राम भी शुरू किया, जो इस साल जून में बदल कर फॉर योर ईयर्स ओनली कर दिया गया है। 2003 के बाद से न्यूज़वीक के प्रसार मे कमी आने लगी। उस वक्त इसका सर्कुलेशन 40 लाख से ज्यादा था। अमेरिकी संस्करण के अलावा इसका एक अंतरराष्ट्रीय संस्करण है। साथ ही जापानी, कोरियन, पोलिश, रूसी, स्पेनिश, अरबी और तुर्की संस्करण भी हैं।
सन 2008 में पत्रिका का प्रसार 31 लाख से घटकर 26 लाख हुआ। जुलाई 2009 में 19 लाख और जनवरी 2010 में 15 लाख। इन दिनों और कम हुआ होगा। विज्ञापन मेंभी इसी तरह की गिरावट है। 2008 में इसका ऑपरेटिंग घाटा 1.6 करोड़ डॉलर था जो 2009 में बढ़कर 2.93 करोड़ डॉलर हो गया। 2010 के पहली तिमाही में यह 1.1 करोड़ डॉलर था। पत्रिका के संचालकों को लगा कि अपने आप में कुछ बदलाव करके शायद बचाव का रास्ता मिल जाय। इसलिए 14 मई 2009 के अंक से इसमें नाटकीय बदलाव किया गया। इसमें लम्बे लेखों की संख्या बढ़ाई गई। हार्ड न्यूज़ की जगह कमेंट्री और विश्लेषण को बढ़ाया गया। बहरहाल गिरावट रुकी नहीं।
न्यूज़वीक के स्वामी इसकी रक्षा करना चाहते थे, पर इसके लिए वे जो भी कदम उठा रहे थे वे उल्टे पड़ रहे थे। इसलिए इसे बेचने का फैसला कर लिया गया। वॉशिंगटन पोस्ट के मुख्य कार्यकारी डॉनल्ड ग्राहम ने कहा, "हमें न्यूज़वीक के लिए एक ऐसा ख़रीददार चाहिए था जो उच्चस्तरीय पत्रकारिता की अहमियत उसी तरह महसूस करता हो जैसे हम करते हैं।" न्यूज़वीक के साथ 300 कर्मचारी जुड़े़ हुए हैं। विज्ञापनों में कमी और इंटरनेट पर मुफ़्त में उपलब्ध खबरों के न्यूज़वीक को भारी नुक़सान हुआ।
कारोबार के मामले में न्यूज़वीक हमेशा टाइमसे पीछे रही, पर उसकी अलग तरह की अंतरराष्ट्रीय छवि है। इन दोनों अमेरिकी पत्रिकाओं के मुकाबले इंग्लैंड की पत्रिका इकोनॉमिस्ट की पहचान अलग तरह की है। फ्री ट्रेड और वैश्वीकरण के पक्ष में उसका एक वैचारिक स्टैंड है, जिसपर वह काफी ज़ोर देती है। उसकी खासियत है कि उसमें एक भी बाइलाइन नहीं होती। इसके संचालकों की मान्यता है कि हमारे स्टैंड सामूहिक हैं। इसके सम्पादक को केवल एक बार, जब वह रिटायर होने वाला होता है, अपने नाम से लिखने का मौका मिलता है। विशेष सर्वे और बाहर से आमंत्रित लेखों पर ही लेखक का नाम दिया जाता है। इकोनॉमिस्ट अपने आप को न्यूज़पेपर कहता है मैगज़ीन नहीं।
न्यूज़वीक के बारे में अच्छी बात यह है कि उसे सिडनी हर्मन ने खरीदा है,  जो लालची दुकानदार नहीं हैं। हो सकता है कि वे पत्रिका को बचा लें। इससे क्या होगा? कुछ लोगों की नौकरियाँ बचेंगी। यह बात अपनी जगह ठीक है। पर क्या वे न्यूज़वीक के पुराने स्वरूप को बचा पाएंगे?  हालांकि वह रूप बदल चुका है, पर अब भी वह समाचार पत्रिका है। पाठकों को क्या समाचार पत्रिका नहीं चाहिए? न्यूज़ मैगज़ीन केवल खबर ही नहीं देती विचार भी देती है। इंटरनेट पर समाचार और विचार काफी उपलब्ध है, पर वह बिखरा हुआ है। उसे सुगठित और साखदार होने में समय लगेगा। उसका आसान रास्ता यही है कि प्रिंट की साखदार संस्थाएं जल्द से जल्द नेट पर आएं।
इकोनॉमिस्ट को पढ़ने वाले उसे उसके वैचारिक दृष्टिकोण के कारण पढ़ते हैं। वैसे ही जैसे मंथली रिव्यू या ईपीडब्ल्यू को पढ़ते हैं। सामग्री कागज़ पर मिले या नेट पर इससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है जब किसी संस्था के साथ समाज के अंदर से एक परम्परा ग़ायब होने लगती है। दिनमान के दौर में एक पीढ़ी तैयार हुई। जब तक यह पीढ़ी आगे कुछ करती दिनमान नहीं बचा। इकोनॉमिस्ट,ईपीडब्ल्यू’ ‘मंथली रिव्यू,न्यूयॉर्कर औरन्यू स्टेट्समैन नेट पर भी उपलब्ध हैं। तकनीक शायद और बदलेगी, पर मनुष्य की बुनियादी बैचारिक चाहत कहीं न कहीं कायम रहेगी। न्यूज़वीक और टाइम को भी अपने आर्थिक मॉडल बदलने होंगे। अच्छी बात यह है कि इन संस्थाओं को बचाने वाली ताकतें इन देशों में हैं। हमारे देश में भी ऐसी ताकतों को होना चाहिए, जो वैचारिक कर्म की अवमानना रोकें। हमें वैचारिक कर्म की ज़रूरत है। वही हमें गलत रास्ते पर जाने से बचाएगा।  


समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित

Tuesday, August 17, 2010

कुछ अपडेट

रंदीव ने माफी माँगी
श्रीलंका के खिलाड़ी रंदीव ने आखिरकार सहवाग से माफी माँग ली। सहवाग ने अपने ट्वीट में इसकी जानकारी दी है। पर यह बात समझ में नहीं आई कि ऐसा क्यों हुआ। खेल में स्पर्धा होती है। उन्हें बेशक सहवाग को सैकड़ा बनाने से रोकना चाहिए था, पर अच्छा खेलकर। बेईमानी से नहीं। एक अच्छी गेंद पर सहवाग रन न बना पाते तो उसका श्रेय रंदीव को जाता। क्रिकेट तो शरीफों का खेल माना जाता है। बहरहाल यह मामला खत्म हुआ।

भाजपा-कांग्रेस समन्वय
गुजरात के अमित शाह मामले के बाद से इन दोनों पार्टियों के बीच कटुता बढ़ गई थी। पर न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल पर दोनों की रज़ामंदी के बाद लगता है दोनों में समझदारी बढ़ी है। या इसमें अमेरिका की कोई भूमिका थी? उधर आडवाणी जी ने अपने सासंदों को यह सलाह देकर अच्छा काम किया है कि वे सासंदों का वेतन बढ़ाने के मामले में ज्यादा ज़ोर न दें। दरअसल जब पूरा देश भूखों और गरीबों की बात कर रहा है, यह बिल अभद्रता लग रही है। सोमवार को कैविनेट में चिदम्बरम और अम्बिका सोनी ने सलाह दी कि इसे पास कराने की जल्दी न करें। भाजपा-कांग्रेस समन्वय यूपी में भी नज़र आ रहा है जहाँ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने यमुना हाइवे को लेकर आंदोलन खड़ा कर दिया है। लगता है अब सन 2012 में यूपी के चुनाव होने तक आंदोलनों का दौर चलेगा। ममता बनर्जी ने सिंगूर के मार्फत यह रास्ता दिखाय दिया है।

कुछ और खबरों के लिंक

चीन में कुछ लोग कंप्यूटर तकनीक के साथ तालमेल नहीं बिठा पाने के कारण अपना उपनाम बदल रहे हैं.

नियंत्रण रेखा के पार व्यापार का लाभ


Sunday, August 15, 2010

आज़ादी

चौसठवां स्वतंत्रता दिवस भी वैसा ही रहा जैसा होता रहा है। प्रधानमंत्री का रस्मी भाषण, ध्वजारोहण, देश भक्ति के गीत वगैरह -वगैरह। इधर एसएमएस भेजने का चलन बढ़ा है। बधाई देने की रस्म अदायगी बढ़ी है। यह दिन क्या हमको कुछ सोचने का मौका नहीं देता? अच्छा या बुरा क्या हो रहा है यह सोचने को प्रेरित नहीं करता? 


जिससे पूछिए वह निराश मिलेगा। देश से, इसके नेताओं से, अपने आप से। क्या हमारे पास खुश होने के कारण नहीं हैं? हमने कुछ भी हासिल नहीं किया?  बहरहाल मैं गिनाना चाहूगा कि हमने क्या हासिल किया। क्या खोया, उसे मैं क्या गिनाऊं। तमाम लोग गिना रहे हैं। 


इस गिनाने को मैं पहली उपलब्धि मानता हूँ। हम लोग अपनी बदहाली को पहचानने तो लगे हैं। हम क्या खो रहे हैं, यह समझने लगे हैं। शिक्षा और संचार के और बेहतर होने पर हम और शोर सुनेंगे। यह खोना नहीं पाना है। ये लोग जवाब माँगेंगे। आज नहीं माँगते हैं तो कोई बात नहीं कल माँगेंगे।


हमारी प्रतिरोध-प्रवृत्ति बढ़ी है। इस बात का रेखांकित होना उपलब्धि है। 


राज-व्यवस्था जनता से दूर होने लगी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसी बुनियादी चीजों से भाग रही है। भाग कर कहाँ जाएगी। जनता उसे खींचकर मैदान में ले आएगी। शिक्षा अगर स्कूल में नहीं मिली तो अशिक्षा हमें आगे बढ़ने से रोकेगी। यह चक्र थोड़ा लम्बा चलेगा, पर राज-व्यवस्था अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं पाएगी। 


टेलीकम्युनिकेशंस का फायदा बिजनेस वालों से ज्यादा जनता को मिलेगा। सारा देश जुड़ रहा है। जानकारियाँ बहुत जल्द यात्रा करतीं हैं। जानकारियाँ देने वाले यानी मीडियाकर्मी बहुत ज्यादा समय तक मसाला-चाट खिलाकर नहीं चलेंगे। दो-चार साल यह भी सही। 


जनसंख्या बढ़ रही है। जागरूक जनसंख्या बढ़ रही है। अब ढोर-डंगर नहीं जागरूक नागरिक बढ़ रहे हैं। वे सवाल पूछेंगे। निराशा की कोई सीमा होती है। हमें अपनी निराशा का सहारा लेना चाहिए। इस निराशा से लड़कर ही तो आप उम्मीदों के पर्वतों को जीतेंगे। 


पर ये उम्मीदें तब तक पूरी नहीं होंगी, जब तक आप अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करेंगे। 


क्या आप जागरूक नागरिक हैं?


क्या आप अपनी शिकायत शिकायतघर में करते हैं?


क्या आप रिश्वत देने के बजाय रिश्वत लेने वाले की गर्दन दबोचना पसंद करते हैं?


क्या आप चार पेड़ कहीं लगाकर उन्हें पानी देते हैं, किसी गरीब बच्चे को पढ़ाते हैं?


छोटे काम कीजिए बड़े काम अपने आप हो जाएंगे। आप कमज़ोर नहीं ताकतवर हैं। 

Saturday, August 14, 2010

ग्राउंड ज़ीरो के पास मस्ज़िद



अमेरिका में 9/11 की साइट ग्राउंड ज़ीरो के नाम से प्रसिद्ध है। इसके पहले तक आमतौर पर किसी विस्फोट स्थल, खासतौर से जहां एटमी धमाका हुआ हो उस जगह को ग्राउंड ज़ीरो कहते थे। विकीपीडिया के अनुसारः-

The Oxford English Dictionary, citing the use of the term in a 1946 New York Times report on the destroyed city of Hiroshima, defines "ground zero" as "that part of the ground situated immediately under an exploding bomb, especially an atomic one."

In and around New York City, "Ground Zero" is generally understood to mean the site of the World Trade Center, which was destroyed in the September 11, 2001 attacks. The phrase was being applied to the World Trade Center site within hours after the towers collapsed. The adoption of this term by the mainstream North American media with reference to the September 11th attacks began as early as 7:47 p.m. (EDT) on that day, when CBS News reporter Jim Axelrod said,
“ Less than four miles behind me is where the Twin Towers stood this morning. But not tonight. Ground Zero, as it's being described, in today's terrorist attacks that have sent aftershocks rippling across the country.[5] ”


Rescue workers also used the phrase "The Pile", referring to the pile of rubble that was left after the buildings collapsed.[6]

बहरहाल ग्राउंड ज़ीरो के करीब एक इस्लामिक केन्द्र बनाने की योजना है। इसे कानूनी मंज़ूरी भी मिल गई है। दूसरी ओर कुछ लोगों ने इस केन्द्र को बनाने का विरोध शुरू कर दिया है। वे लोग इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ते हैं। जबकि इसके समर्थक कहते हैं कि यह केन्द्र साबित करेगा कि इस्लाम शांति का प्रतीक है। राष्ट्रपति ओबामा ने भी मस्ज़िद बनाने का समर्थन किया है। उन्होंने कहा, मुसलमानों को भी वही धार्मिक अधिकार प्राप्त हैं, जो किसी दूसरे को हैं।
मस्ज़िद विरोधी कार्टून