Thursday, August 17, 2023

चंद्रयान और उसके बहाने कुछ यादें

 


चंद्रयान-3 को लेकर एक पोस्ट मैंने फेसबुक पर बुधवार 16 अगस्त को लगाई तो मेरे मित्र संजय श्रीवास्तव ने लिखा कि चंद्रयान-1 ने चंद्रयान-3 के मुकाबले कम समय लगाया, ऐसा क्यों?  साइंस का मेरा ज्ञान सीमित है, जिज्ञासा ज्यादा है। इधर-उधर से पढ़कर मैं जो जान पाता हूँ, उसे ही शेयर करता हूँ। चंद्रयान पर आने से पहले मैं एक निजी अनुभव से शुरुआत करूँगा।

सत्तर के दशक में जब मैंने सबसे पहले लखनऊ के स्वतंत्र भारत में काम करना शुरू किया, तब पहले दिन ही मुझे चीफ सब एडिटर वीरेंद्र सिंह के साथ लगा दिया गया। मेरी राय में वीरेंद्र सिंह निश्चित रूप से अपने दौर के सबसे काबिल पत्रकारों में से एक थे। कई कारणों से उनकी प्रतिभा को सामने आने का मौका मिला नहीं। अलबत्ता जो लोग पुराने जमाने की नवनीत में पुस्तक सार पढ़ते रहे हैं, उनकी जानकारी के लिए बता दूँ कि बड़ी संख्या में पुस्तक सार वीरेंद्र सिंह ने लिखे थे।

मुझे सबसे पहले मिड शिफ्ट में काम करने का मौका मिला, जिसमें तीन से रात के नौ बजे तक काम होता था। वीरेंद्र सिंह ने मुझे स्पेस से जुड़ी पीटीआई की एक खबर पकड़ा दी। खबर काफी लंबी थी और मैंने पूरी खबर बना दी। वह खबर अखबार के आखिरी पेज पर टॉप बॉक्स के रूप में छपी। अपने लिखे अक्षर पहली बार खबर के रूप में देखकर जो खुशी मिलती है, वह खासतौर से पत्रकार दोस्तों को बताने की जरूरत नहीं।

बहरहाल अंतरिक्ष से मेरी दोस्ती की वह शुरुआत थी। मुझे पहली बार यह भी समझ में आया कि हिंदी की पत्रकारिता, मुकाबले अंग्रेजी की पत्रकारिता के, ज्यादा चुनौती भरी क्यों है। नीचे इस आलेख में आप एपोजी और पेरिजी कक्षाओं का जिक्र पढ़ेंगे। मैं अंग्रेजी का पत्रकार होता, तो कॉपी को अपर लोअर (अंग्रेजी के पत्रकार जानते हैं कि यह क्या है) करके छुट्टी कर लेता, पर मुझे एपोजी और पेरिजी को समझना पड़ा। और वह इंटरनेट का ज़माना नहीं था। बहरहाल।

हल्का और भारी पेलोड

संजय के सवाल के सिलसिले में जो जानकारी मैं हासिल कर पाया हूँ, उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि ऐसा कई कारणों से हो सकता है। चंद्रयान-1 का पेलोड बहुत हल्का था। वह इंपैक्टर था। उसे तो चंद्रमा से टकराना भर था। चंद्रयान-2 उसकी तुलना में काफी भारी थी और चंद्रयान-3 और ज्यादा भारी है। ऐसे में पृथ्वी और चंद्रमा की कक्षा में दायरा बढ़ाने और घटाने की प्रक्रिया चलती है, जिसमें काफी सावधानी बरतनी होती है। चंद्रयान-1 को चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश करने के बाद दायरा छोटा करने में समय लगा। चंद्रयान-2 अंतिम कुछ सेकंडों में अपनी स्पीड को काबू में नहीं रख पाया।

भारत-पाकिस्तान एकसाथ ‘15 अगस्त’ क्यों नहीं मनाते?

पाकिस्तान की स्वतंत्रता की पहली वर्षगाँठ पर जारी डाक टिकट, जिसमें स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त बताया गया है। 

भारत और पाकिस्तान के टाइम-ज़ोन अलग-अलग हैं. स्वाभाविक है, दोनों की भौगोलिक स्थितियाँ अलग हैं, इसलिए टाइम-ज़ोनभी अलग हैं, पर दोनों के स्वतंत्रता दिवस अलग क्यों हैं?  एक दिन आगे-पीछे क्यों मनाए जाते हैं, जबकि दोनों ने एक ही दिन स्वतंत्र देश के रूप में जन्म लिया था? इसके पीछे पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान की खुद को भारत से अलग नज़र आने की चाहत है.

पाकिस्तान में एक तबका खुद को भारत से अलग साबित करने पर ज़ोर देता है. उन्हें लगता है कि हम भारत के साथ एकता को स्वीकार कर लेंगे, तो इससे हमारे अलग अस्तित्व के सामने खतरा पैदा हो जाएगा. उनकी कोशिश होती हैं कि देश के इतिहास को भी केवल इस्लामी इतिहास के रूप में पेश किया जाए. सरकारी पाठ्य-पुस्तकों में इतिहास का काफी काट-छाँटकर विवरण दिया जाता है.

बेशक, यह न तो पूरे देश की राय है और न संज़ीदा लेखक, विचारक ऐसा मानते हैं, पर एक तबका ऐसा ज़रूर है, जो भारत से अलग नज़र आने के लिए कुछ भी करने को आतुर रहता है. इस इलाके में एकता से जुड़े जो सुझाव आते हैं, उनमें दक्षिण एशिया महासंघ बनाने, एक-दूसरे के यहाँ आवागमन आसान करने, वीज़ा की अनिवार्यता खत्म करने और कलाकारों, खिलाड़ियों तथा सांस्कृतिक-सामाजिक कर्मियों के आने-जाने की सलाह दी जाती है.

1857 की वर्षगाँठ

इन सलाहों पर अमल कौन और कब करेगा, इसका पता नहीं, अलबत्ता 14 और 15 अगस्त के फर्क से पता लगता है कि किसी को न बातों पर आपत्ति है. 2006-07 में जब भारत में 1857 की क्रांति की 150वीं वर्षगाँठ मनाई जा रही थी, तब एक प्रस्ताव था कि भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश तीनों मिलकर इसे मनाएं, क्योंकि ये तीनों देश उस संग्राम के गवाह हैं.

जनवरी 2004 में दक्षेस देशों के इस्लामाबाद में हुए 12वें शिखर सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सुझाव दिया था कि क्यों न हम 2007 में 1857 की 150वीं वर्षगाँठ तीनों देश मिलकर मनाएं. पाकिस्तान के विदेश विभाग के प्रवक्ता मसूद खान से जब यह सवाल पूछा गया, तब उन्होंने कहा, इसका जवाब है नहीं. उसके अगले दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़फरुल्ला खां जमाली ने कहा, देखते हैं विचार करेंगे. वैसे पाकिस्तान 1857 को दूसरी निगाह से देखता है.

बहरहाल दोनों देशों के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर हमारा सवाल बनता है कि हम मिलकर एक ही दिन अपना स्वतंत्रता-दिवस क्यों नहीं मनाते? इसके जवाब में अजब-गजब बातें कही जाती हैं.

एक दिन पहले शपथ

भारत 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ, तो पाकिस्तान भी उसी दिन आज़ाद हुए. भ्रम केवल इस बात से है कि पाकिस्तान की संविधान सभा में गवर्नर जनरल और वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन का भाषण और उसके बाद का रात्रिभोज 14 अगस्त को हुआ था.

चूंकि भारत ने अपना कार्यक्रम मध्यरात्रि से रखा था, इसलिए यह सम्भव नहीं था कि वे कराची और दिल्ली में एक ही समय पर उपस्थित हो पाते. किसी ने ऐसा सोचा होता, तो शायद दोनों देशों की सीमा पर 14-15 की मध्यरात्रि को एक ऐसा समारोह कर लिया जाता, जिसमें दोनों देशों का जन्म एकसाथ होता.

शायद इस वजह से 14 अगस्त की तारीख को चुना गया, पर 14 अगस्त को पाकिस्तान बना ही नहीं था. शपथ दिलाने से पाकिस्तान बन नहीं गया, वह 15 को ही बना. तब पाकिस्तान ने 15 अगस्त को ही स्वतंत्रता दिवस मनाया और कई साल तक 15 को मनाया.

Wednesday, August 16, 2023

चंद्रयान-3 और लूना-25 की रेस

एक हफ्ते बाद संभवतः 23 अगस्त को चंद्रयान-3 की चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग होगी। इसके एक या दो दिन पहले रूसी मिशन लूना-25 चंद्रमा पर उतर चुका होगा। चंद्रयान-3 का प्रक्षेपण 14 जुलाई को हुआ था, जबकि रूसी मिशन का प्रक्षेपण 10 अगस्त को हुआ। आपके मन में सवाल होगा कि फिर भी रूसी यान भारतीय यान से पहले क्यों पहुँचेगा? चंद्रयान-3 चंद्रमा की सतह पर तभी उतरेगा, जब वहाँ की भोर शुरू होगी। चूंकि रूसी लैंडर भी चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरेगा, इसलिए संभवतः रूस इस बात का श्रेय लेना चाहता है कि दक्षिणी ध्रुव पर उतने वाला पहला यान रूसी हो। दक्षिणी ध्रुव पर अभी तक किसी देश का यान नहीं उतरा है।

चंद्रमा का एक दिन धरती के 14 दिन के बराबर होता है। चंद्रयान-3 केवल 14 दिन काम करने के लिए बनाया गया है, जबकि रूसी यान करीब एक साल काम करेगा। लूना-25 जिस जगह उतरेगा वहाँ भोर दो दिन पहले होगी। भोर का महत्व इसलिए है, क्योंकि चंद्रमा की रात बेहद ठंडी होती है। वहाँ दिन का तापमान 140 डिग्री से ऊपर होता है और रात का माइनस 180 से भी नीचे।

खुशहाली की राहों में हम होंगे कामयाब


आज़ादी के सपने-09

कई साल से देश में एक कहावत चल रही है, सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान.’ यह बात ट्रकों के पीछे लिखी नजर आती है. यह एक प्रकार का सामाजिक अंतर्मंथन है कि हम अपना मजाक उड़ाना भी जानते हैं. दूसरी तरफ एक सचाई की स्वीकृति भी थी. 

हताश होकर हम अपना मजाक उड़ाते हैं. पर हम विचलित हैं, हारे नहीं हैं. सच यह है कि भारत जैसे देश को बदलने और एक नई व्यवस्था को कायम करने के लिए 76 साल काफी नहीं होते. खासतौर से तब जब हमें ऐसा देश मिला हो, जो औपनिवेशिक दौर में बहुत कुछ खो चुका हो.

मदर इंडिया

फिल्म ‘मदर इंडिया’ की रिलीज के कई दशक बाद एक टीवी चैनल के एंकर इस फिल्म के एक सीन का वर्णन कर रहे थे, जिसमें फिल्म की हीरोइन राधा (नर्गिस) को अपने कंधे पर रखकर खेत में हल चलाना पड़ता है.

चैनल का कहना था कि हमारे संवाददाता ने महाराष्ट्र के सतारा जिले के जावली तालुक के भोगावाली गाँव में खेत में बैल की जगह महिलाओं को ही जुते हुए देखा तो उन्होंने उस सच को कैमरे के जरिए सामने रखा, जिसे देखकर सरकारें आँख मूँद लेना बेहतर समझती हैं.

1957 में रिलीज़ हुई महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ उन गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है, जो आज भी हमारे दिलो-दिमाग पर छाई हैं. स्वतंत्रता के ठीक दस साल बाद बनी इस फिल्म की कहानी के परिवेश और पृष्ठभूमि में काफी बदलाव आ चुका है. यह फिल्म बदहाली की नहीं, बदहाली से लड़ने की कहानी है.

भारतीय गाँवों की तस्वीर काफी बदल चुकी है या बदल रही है, फिर भी यह फिल्म आज भी पसंद की जाती है. टीवी चैनलों को ट्यून करें, तो आज भी यह कहीं दिखाई जा रही होगी. मुद्रास्फीति की दर के साथ हिसाब लगाया जाए तो ‘मदर इंडिया’ देश की आजतक की सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट फिल्म साबित होगी.  

इक्कीसवीं सदी में विदेश-नीति की बदलती दिशा


आज़ादी के सपने-08

भारत को आज़ादी ऐसे वक्त पर मिली, जब दुनिया दो खेमों में बँटी हुई थी. दोनों गुटों से अलग रहकर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखने की सबसे बड़ी चुनौती थी. यह चुनौती आज भी है. ज्यादातर बुनियादी नीतियों पर पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की छाप थी, जो 17 वर्ष, यानी सबसे लंबी अवधि तक, विदेशमंत्री रहे.

राजनीतिक-दृष्टि से उनका वामपंथी रुझान था. साम्राज्यवादउपनिवेशवाद और फासीवाद के वे विरोधी थे. उनके आलोचक मानते हैं कि उनकी राजनीतिक-दृष्टि में रूमानियत इतनी ज्यादा थी कि कुछ मामलों में राष्ट्रीय-हितों की अनदेखी कर गए. किसी भी देश की विदेश-नीति उसके हितों पर आधारित होती है. भारतीय परिस्थितियाँ और उसके हित गुट-निरपेक्ष रहने में ही थे. बावजूद इसके नेहरू की नीतियों को लेकर कुछ सवाल हैं.

चीन से दोस्ती

कश्मीर के अंतरराष्ट्रीयकरण और तिब्बत पर चीनी हमले के समय की उनकी नीतियों को लेकर देश के भीतर भी असहमतियाँ थीं. तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और नेहरू जी के बीच के पत्र-व्यवहार से यह बात ज़ाहिर होती है. उन्होंने चीन को दोस्त बनाए रखने की कोशिश की ताकि उसके साथ संघर्ष को टाला जा सके, पर वे उसमें सफल नहीं हुए.

तिब्बत की राजधानी ल्हासा में भारत का दूतावास हुआ करता था. उसका स्तर 1952 में घटाकर कौंसुलर जनरल का कर दिया गया. 1962 की लड़ाई के बाद वह भी बंद कर दिया गया. कुछ साल पहले भारत ने ल्हासा में अपना दफ्तर फिर से खोलने की अनुमति माँगी, तो चीन ने इनकार कर दिया.

1959 में भारत ने दलाई लामा को शरण जरूर दी, पर एक-चीन नीति यानी तिब्बत पर चीन के अधिकार को मानते रहे.  आज भी यह भारत की नीति है. तिब्बत को हम स्वायत्त-क्षेत्र मानते थे. चीन भी उसे स्वायत्त-क्षेत्र मानता है, पर उसकी स्वायत्तता की परीक्षा करने का अधिकार हमारे पास नहीं है.

सुरक्षा-परिषद की सदस्यता

पचास के दशक में अमेरिका की ओर से एक अनौपचारिक प्रस्ताव आया था कि भारत को चीन के स्थान पर संरा सुरक्षा परिषद की स्थायी कुर्सी दी जा सकती है. नेहरू जी ने उस प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि चीन की कीमत पर हम सदस्य बनना नहीं चाहेंगे.

उसके कुछ समय पहले ही चीन में कम्युनिस्टों ने सत्ता संभाली थी, जबकि संरा में चीन का प्रतिनिधित्व च्यांग काई-शेक की ताइपेह स्थित कुओमिंतांग सरकार कर रही थी. नेहरू जी ने कम्युनिस्ट चीन को मान्यता भी दी और उसे ही सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का समर्थन भी किया.