इस महीने 14 मई को तुर्की में होने वाले संसदीय और राष्ट्रपति पद के चुनाव पर दुनिया की निगाहें हैं. तुर्की की आंतरिक स्थिति और विदेश-नीति दोनों लिहाज से ये चुनाव महत्वपूर्ण होंगे. सबसे बड़ा सवाल राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगान के भविष्य को लेकर है. चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों से लगता है कि वे हार भी सकते हैं. ऐसे में संभव है कि एर्दोगान सत्ता के हस्तांतरण में आनाकानी करें.
एर्दोगान की हार या जीत से तुर्की की आंतरिक और
विदेश-नीति दोनों प्रभावित होंगी. अमेरिका, यूरोप, पश्चिम एशिया के देशों, यहाँ तक
कि भारत के साथ रिश्तों पर भी इनका असर होगा. सत्ता परिवर्तन हुआ, तो बदलाव भी होंगे,
पर उनमें समय लगेगा. मसलन यदि देश संसदीय-प्रणाली की ओर वापस ले जाने का प्रयास
किया जाएगा, तो उसे पूरा होने में समय लगेगा. इस लिहाज से केवल राष्ट्रपति पद के
चुनाव का ही नहीं साथ में हो रहे संसदीय चुनावों का भी महत्व है.
एर्दोगान-विरोधी मोर्चा
देश के छह विरोधी दलों ने संयुक्त रूप से चुनाव
लड़ने का फैसला किया है और राष्ट्रपति पद के लिए एर्दोगान के खिलाफ पीपुल्स
रिपब्लिकन पार्टी (सीएचपी) के कमाल किलिचदारोग्लू को अपना प्रत्याशी बनाया है. उन्हें कुर्द-पार्टी एचडीपी का भी समर्थन हासिल
है. आरोप है कि एर्दोगान के नेतृत्व में तुर्की की व्यवस्था निरंकुश होती जा रही
है. देश में जबर्दस्त वैचारिक ध्रुवीकरण है. इस प्रवृत्ति को विपक्ष रोकना चाहता
है.
एर्दोगान विरोधी मोर्चे की घोषणा है कि यदि हम
जीते तो यूरोपियन यूनियन की सदस्यता हासिल करने की कोशिश करेंगे और अमेरिका का जो
भरोसा खोया है, उसे वापस लाएंगे. मुद्रास्फीति की दर अगले दो साल में दस फीसदी के
अंदर लाने की कोशिश करेंगे और सीरिया से आए करीब 36 लाख शरणार्थियों को उनकी सहमति
से वापस भेजेंगे.
तुर्की नेटो का सदस्य है, पर यूक्रेन के युद्ध के कारण उसके अंतर्विरोध हाल में उभरे हैं. हाल में उसकी नीतियों में कुछ बदलाव भी आया है. उसने नेटो में फिनलैंड की सदस्यता को रोक रखा था, जिसकी स्वीकृति अब दे दी. नेटो में नई सदस्यता के लिए सर्वानुमति जरूरी होती है.