Sunday, April 16, 2023

‘एनकाउंटर-न्याय’ और उससे जुड़े सवाल


उत्तर प्रदेश के माफिया अतीक अहमद के बेटे असद की एनकाउंटर से हुई मौत ने आधुनिक भारत की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था के सामने कुछ सवाल खड़े किए हैं। इस मौत ने उत्तर प्रदेश सरकार की कानून-व्यवस्था से जुड़ी नीतियों पर सवालिया निशान भी लगाए हैं। यह आलेख जब लिखा गया था, तब तक अतीक अहमद और उनके भाई की हत्या नहीं हुई थी, पर शनिवार की शाम अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की प्रयागराज में गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस घटना में तीन आरोपी कथित रूप से शामिल है, जिन्हें पुलिस ने बाद में गिरफ्तार कर लिया है। अब इस मामले ने एक और मोड़ ले लिया है। 

यह भी माना जा रहा है कि यूपी में पूँजी निवेश लाना है, औद्योगीकरण करना है और विकास से जुड़ी नीतियों को लागू करना है, तो प्रदेश को अपराध-मुक्त करना होगा। पर क्या अपराधियों के घरों को बुलडोज़ करके और उनका एनकाउंटर करने से समस्या का समाधान हो जाएगा?  इस कार्रवाई के शिकार बड़ी संख्या में मुसलमान हैं, पर केवल मुसलमान नहीं हैं। जुलाई 2020 में विकास दुबे के एनकाउंटर से यह बात स्पष्ट हुई थी। दिल्ली में चले शाहीनबाग आंदोलन के समांतर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुई हिंसा के बाद प्रदेश सरकार ने जुर्माना वसूलने का अभियान भी चलाया, जिसमें अदालत ने हस्तक्षेप किया। क्या इस कार्रवाई के पीछे राजनीति है? देश की न्याय-व्यवस्था क्या इसकी अनुमति देगी? अनुमति नहीं देगी, तो फिर उसके पास समाधान क्या है? पिछले तीन-चार दशक से उत्तर प्रदेश में अपराधियों ने जिस तरह से खुलकर खेला, उसे रोकने में न्याय-व्यवस्था की भूमिका क्या है? सत्तर के दशक में नक्सली आंदोलन, नब्बे के दशक में पंजाब के आतंकवाद और अगस्त, 2019 के बाद कश्मीर में आतंकवाद-विरोधी कार्रवाइयों का अनुभव क्या बताता है?

जनता क्या चाहती है?

हिंसा और अपराध के इस चक्रव्यूह में राजनीति और समाज-व्यवस्था की भी बड़ी भूमिका है। जनता के बड़े तबके ने, जिस तरह से असद की मौत पर खुशी मनाई है, तकरीबन वैसा ही 2019 में हैदराबाद में दिशा-बलात्कार मामले के चार अभियुक्तों की हिरासत में हुई मौत के बाद हुआ था। उन दिनों ट्विटर पर एक प्रतिक्रिया थी, ‘लोग भागने की कोशिश में मारे गए, तो अच्छा हुआ। पुलिस ने जानबूझकर मारा, तो और भी अच्छा हुआ।’ किसी ने लिखा, ‘ऐसे दस-बीस एनकाउंटर और होंगे, तभी अपराधियों के मन में दहशत पैदा होगी।’ अतीक के बेटे के एनकाउंटर को लेकर राजनीतिक दलों ने अपनी विचारधारा के आधार पर भी प्रतिक्रिया दी है, पर हैदराबाद प्रकरण में ज्यादातर राजनीतिक नेताओं और सेलेब्रिटीज़ ने एनकाउंटर का समर्थन किया था। जया बच्चन ने बलात्कार कांड के बाद राज्यसभा में कहा था कि रेपिस्टों को लिंच करना चाहिए और उस एनकाउंटर के बाद कहा-देर आयद, दुरुस्त आयद। कांग्रेसी नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने, जो खुद वकील हैं ट्वीट किया, हम ‘जनता की भावनाओं का सम्मान’ करें। यह ट्वीट बाद में हट गया। मायावती ने कहा, यूपी की पुलिस को तेलंगाना से सीख लेनी चाहिए। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी समर्थन में ट्वीट किया, जिसे बाद में हटा लिया। दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने परोक्ष रूप से इसका समर्थन किया। पी चिदंबरम और शशि थरूर जैसे नेताओं ने घूम-फिरकर कहा कि एनकाउंटर की निंदा नहीं होनी चाहिए। हैदराबाद पुलिस को बधाइयाँ दी गईं।  इस टीम में शामिल पुलिस वालों के हाथों में लड़कियों ने राखी बाँधीं, टीका लगाया, उनपर फूल बरसाए।

क्या यही न्याय है?

ज्यादातर लोग इस बात पर जाना नहीं चाहते कि एनकाउंटर सही है या गलत। कोई यह भी नहीं जानना चाहता कि मारे गए चारों अपराधी थे भी या नहीं। जनता नाराज है। उसके मन में तमाम पुराने अनुभवों का गुस्सा है। अपराधियों को सीधे गोली मारने की पुकार इससे पहले कभी इतने मुखर तरीके से नहीं की गई। क्या वजह है कि इसे जनता सही मान रही है? जनता को लगता है कि अपराधियों के मन में खौफ नहीं है। उन्हें सजा मिलती नहीं है। पर सरकारी हिंसा को जनता का इस कदर समर्थन भी कभी नहीं मिला। कम से कम पुलिस पर ऐसी पुष्पवर्षा कभी नहीं हुई। जनता की हमदर्दी पुलिस के साथ यों भी नहीं होती। तब ऐसा अब क्यों हो रहा हैहैदराबाद की परिघटना के समर्थन के साथ विरोध भी हुआ था, पर समर्थन के मुकाबले वह हल्का था। वह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया और अब तेलंगाना पुलिस पर दबाव है कि वह अपनी टीम के खिलाफ हत्या का मुकदमा चलाए, तब सवाल उठता है कि पुलिस वाले हीरो थे या विलेन? एनकाउंटर उन्होंने अपनी इच्छा से किया या ऊपर के आदेश थे? अदालत किसे पकड़ेगी? क्या अपराधियों का इलाज यही है? क्या हमें कस्टोडियल मौतें स्वीकार हैं? पुलिस की हिरासत में मरने वाले सभी अपराधी नहीं होते। निर्दोष भी होते हैं, पर पुलिस का कुछ नहीं होता। ऐसे मामलों में भी किसी को सजा नहीं मिलती।

न्याय से निराशा

पुलिस हिरासत में मौत का समर्थन जनता नहीं करती है। तालिबानी-इस्लामी स्टेट की तर्ज पर सरेआम गोली मारने या गर्दन काटने का समर्थन भी वह नहीं करती है, पर उसके मन में यह बात गहराई से बैठ रही है कि अपराधी कानूनी शिकंजे से बाहर रहते हैं। अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका ही आखिरी सहारा है। पर पिछले कुछ समय से न्यायपालिका को लेकर निराशा है। उसके भीतर और बाहर से कई तरह के सवाल उठे हैं। कल्याणकारी व्यवस्था के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ न्याय-व्यवस्था बुनियादी ज़रूरत है। इन तीनों मामलों में मनुष्य को बराबरी से देखना चाहिए। दुर्भाग्य से देश में तीनों जिंस पैसे से खरीदी जा रही हैं। वास्तव में बड़े अपराधी साधन सम्पन्न हैं। वे अपने साधनों की मदद से सुविधाएं हासिल कर लेते हैं। जेल जाते हैं, तो वहाँ भी उन्हें सुविधाएं मिलती हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि सामान्य व्यक्ति को न्याय किस तरह से मिले? उसके मन में बैठे अविश्वास को कैसे दूर किया जाए? इन सवालों के इर्द-गिर्द केवल न्याय-व्यवस्था से जुड़े मसले ही नहीं है, बल्कि देश की सम्पूर्ण व्यवस्था है।

Wednesday, April 12, 2023

पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान में आपसी टकराव से बढ़ता असमंजस


देस-परदेश

पाकिस्तान में सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और सरकार के बीच तलवारें खिंच गई हैं. मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में तीन जजों की बेंच ने पंजाब में चुनाव कराने का आदेश दिया है, जिसे मानने से सरकार ने इनकार कर दिया है. चुनाव दो सूबों में होने हैं, पर सुप्रीम कोर्ट ने केवल पंजाब में 14 मई को चुनाव कराने का निर्देश दिया है. खैबर पख्तूनख्वा के बारे में कोई निर्देश नहीं दिया है.

देश में असमंजस का माहौल है. सोमवार को संसद के दोनों सदनों के विशेष सेशन में सरकार ने चुनाव खर्च से जुड़ा विधेयक पेश कर दिया है. अब संसद के फैसले पर काफी बातें निर्भर करेंगी. संभव है कि संसद पूरे देश में चुनाव एकसाथ कराने का फैसला करे. 

सोमवार को नेशनल असेंबली विदेशमंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने कहा कि पाकिस्तान के इतिहास में निडर जज भी हुए हैं. ऐसे भी जज थे जो ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को मौत की सजा देने के फैसले से असहमत थे. उसके विपरीत ऐसे न्यायाधीश भी, जो तब भी साजिश में शामिल थे और आज भी न्यायपालिका में मौजूद हैं.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रतिक्रिया में गुरुवार 6 अप्रेल को राष्ट्रीय असेंबली ने प्रस्ताव पास करके प्रधानमंत्री से कहा है कि इस फैसले को मानने की जरूरत नहीं है. उसके अगले ही दिन नेशनल सिक्योरिटी कमेटी (एनएससी) ने देश की पश्चिमी सीमा पर आतंकवाद के खिलाफ बड़ी कार्रवाई करने का फैसला करके इस बात का संकेत दे दिया है कि चुनाव नहीं, अब लड़ाई पश्चिमी सरहद पर लड़ाई होगी. सरकार ने 10 अप्रेल को संविधान दिवस मनाया और अब से हर साल यह दिवस मनाने की घोषणा भी की है. 10 अप्रेल 1973 को देश का वर्तमान संविधान लागू हुआ था.   

अवमानना का खतरा

सवाल यह भी है कि हुकूमत यदि सुप्रीमकोर्ट के फ़ैसले को तस्लीम नहीं करेगी, तो क्या उसे तौहीन-ए-अदालत की बिना पर वैसे ही हटाया जा सकता है, जैसे यूसुफ़ रज़ा गिलानी को सादिक़ और अमीन ना होने की वजह से तौहीन-ए-अदालत पर जून 2012 में हटा दिया गया था? पर जजों के बीच आपसी मतभेद हैं. पूरी न्यायपालिका एकसाथ नहीं है.

उधर रविवार 9 अप्रेल को छुट्टी के दिन कैबिनेट की बैठक बुलाई गई, जिसमें वित्त मंत्रालय से कहा गया है कि चुनाव के खर्चों का ब्योरा तैयार करे, ताकि उसे संसद के सामने रखा जा सके. सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि सरकार 10 अप्रेल तक 21 अरब रुपया चुनाव आयोग को दे, ताकि चुनाव कराए जा सकें. सरकार कानूनी स्थितियों का भी गंभीरता से अध्ययन कर रही है. संसद से धनराशि की स्वीकृति नहीं मिलने पर जो वैधानिक स्थिति बनेगी, वह हालात को और जटिल बनाएगी.

Sunday, April 9, 2023

केवल मुग़लों पर क्यों ठिठकी शिक्षा की बहस?


केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम और पुस्तकों में हुए बदलाव अचानक फिर से चर्चा के विषय बने हैं। हालांकि इन बदलावों की घोषणा और सूचना पिछले साल अप्रेल के महीने में ही हो गई थी, पर चूंकि नया पाठ्यक्रम इस वर्ष लागू किया जा रहा है, शायद इसलिए यह चर्चा फिर से हो रही है। हालांकि पाठ्यक्रम का पुनर्संयोजन कक्षा 6 से 12 तक के अलग-अलग विषयों का हुआ है, पर सबसे ज्यादा चर्चा इतिहास के पाठ्यक्रम को लेकर है। 

भारत में इतिहास राजनीति का विषय है। भारतीय राजनीति इस समय सेक्युलरिज़्म और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की बहस से गुजर रही है, इसलिए छोटे से छोटे बदलाव को भी संदेह की निगाहों से देखा जाता है। शिक्षा को संकीर्ण नजरिए से देखना नहीं चाहिए, पर इतिहास, साहित्य, राजनीति-शास्त्र और संस्कृति ऐसे विषय हैं, जिन्हें लेकर वस्तुनिष्ठता आसान भी नहीं है। यह काम विशेषज्ञों की मदद से ही होगा। पर हम यह भी जानते हैं कि हमारे देश में विशेषज्ञ भी वस्तुनिष्ठ कम, वैचारिक प्रतिबद्ध ज्यादा हैं। 

बहस करने वालों में से ज्यादातर ने इनमें से कोई किताब एकबार भी उठाकर नहीं देखी होगी। हिंदी लेखक भी कक्षा 12 की इतिहास की जिस किताब का जिक्र कर रहे हैं, उसके हटाए गए विषय का नाम अंग्रेजी में ही लिख रहे हैं, क्योंकि पूरा मीडिया किसी एक अंग्रेजी अखबार की रिपोर्ट के आधार पर बहस कर रहा है। किसी ने तो हिंदी की किताब देखी होती, तो उसका उल्लेख करता। हालांकि इससे फर्क कुछ नहीं पड़ता। मुझे केवल यह रेखांकित करना है कि सारी बातें किसी एक मीडिया रिपोर्ट के आधार पर है। 

बहरहाल इस विषय पर काफी बहस पिछले साल ही हो गई है, पर दो-एक बातें हाल की हैं। खासतौर से महात्मा गांधी की हत्या को लेकर पाठ्य पुस्तक से हटाई गई कुछ पंक्तियों का मसला सामने आया है, जिनका नोटिफिकेशन पिछले साल नहीं हुआ। एनसीईआरटी ने माना है कि उसकी अनदेखी हुई है।

बदलाव क्यों
2017 में जब इन किताबों का पुनरीक्षण किया गया, तब उसके पीछे ज्यादा बड़ी जरूरत उन्हें अपडेट करने की थी। उसके दस साल पहले किताबों में बदलाव हुआ था। बहुत सी किताबें उसके भी दस-पंद्रह साल पहले से हूबहू उसी रूप में छपती आ रही थीं, जैसी कि मूल रूप में लिखी गईं। सामाजिक विज्ञान की एक पुस्तक मे, जिसकी प्रस्तावना पर नवंबर 2007 की तारीख पड़ी थी, देश में आवास, विद्युत आपूर्ति और पाइप से पानी की सप्लाई के आँकड़े 1994 के थे। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार उस साल 182 पाठ्य पुस्तकों में 1,334 बदलाव किए गए। औसतन हरेक किताब में सात बदलाव। इनमें जीएसटी टैक्स या ऐसी ही बातें शामिल की गईं। 

इसबार के बदलाव उससे भी ज्यादा हैं, क्योंकि ज्यादातर किताबों का आकार छोटा किया गया है। इस साल बदलाव के पीछे केवल अपडेट करने की इच्छा नहीं है, बल्कि कहा गया है कि कोविड-19 के दौरान महसूस किया गया कि बच्चों पर पढ़ाई का बोझ बहुत ज्यादा है। उसे कम करना चाहिए। इस लिहाज से इसबार अपडेट के साथ-साथ पुस्तकों का आकार भी छोटा किया गया है।

बोझ कम करना
पिछले साल एनसीईआरटी ने पाठ्य पुस्तकों में पाठ्य सामग्री का पुनर्संयोजन करने की घोषणा करते हुए कहा था कि कोविड-19 महामारी को देखते हुए विद्यार्थियों के ऊपर से पाठ्य सामग्री का बोझ कम करना जरूरी समझा गया।  राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में भी विद्यार्थियों के लिए पाठ्य-सामग्री का बोझ कम करने और रचनात्मक नज़रिए से अनुभव करते हुए सीखने के अवसर प्रदान करने पर ज़ोर दिया गया है। इस पृष्ठभूमि में एनसीईआरटी ने सभी कक्षाओं की पुस्तकों का पुनर्संयोजन किया है। 

इसमें ध्यान रखा गया है कि एक ही कक्षा में अलग-अलग विषयों में या उससे आगे या पीछे की कक्षाओं में पाठ्य सामग्री की दोहर नहीं हो। बाकी बातें कठिनाई और शिक्षकों की आसानी से भी जुड़ी हैं। विद्यार्थी बाहरी हस्तक्षेप के बगैर स्वयं पढ़ सकें। इन सबके अलावा सामग्री अप्रासंगिक नहीं हो। इन पंक्तियों के लेखक ने जब इन बदलावों को देखने का प्रयास किया, तब एक बात स्पष्ट हुई कि जिन प्रश्नों से मीडिया जूझ रहा है, वे महत्वपूर्ण भले ही हैं, पर समुद्र में बूँद जैसे हैं। उन्हें लेकर छिड़ी बहस इन विषयों के पीछे छिपी राजनीति को उछालने के लिए हैं।

राजनीतिक नज़रिया
किताबों के शैक्षिक-प्रश्नों पर चर्चा उतनी नहीं है, जितनी राजनीतिक-नज़रिए को लेकर है। कांग्रेस, बीजेपी, साम्यवादी, समाजवादी, द्रविड़ और आंबेडकरवादी पार्टियों की अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। सवाल है कि बच्चों को वस्तुनिष्ठ शिक्षा प्रदान करना क्या संभव नहीं है? ज्यादातर टकराव इतिहास, समाज-विज्ञान और साहित्य की शिक्षा में देखने को मिलेंगे। गणित, विज्ञान, भूगोल, कला और संगीत वगैरह में इसबात की संभावनाएं काफी कम हैं। जबकि सबसे ज्यादा बदलाव गणित और विज्ञान की पुस्तकों में ही करने की जरूरत होगी, क्योंकि उन्हें समय के साथ चलना होता है। 

भारतीय जनता पार्टी का दृष्टिकोण रहा है कि पाठ्य-सामग्री में भारत की मौलिकता भी झलकनी चाहिए। इससे असहमति नहीं होनी, पर ज्यादा बड़े सवाल सांप्रदायिक सद्भाव  और विद्वेष से जुड़े हैं। शिक्षा का काम वस्तुनिष्ठ तरीके से इतिहास की शिक्षा देना है। इन बातों के राजनीतिक निहितार्थ हैं, अब उनपर ध्यान दें। मसलन सामाजिक विज्ञान की पुस्तक से 2002 के गुजरात दंगों के संदर्भ या भारतीय राजनीति के एक खंड में अटल बिहारी वाजपेयी की 'राजधर्म' टिप्पणी का हटना और  ‘हिंदू चरमपंथियों की गांधी के प्रति नफरत’, महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगे प्रतिबंध वगैरह। ये तथ्य राजनीतिक नज़रिए को बताते हैं। देखना यह भी होगा कि ये बातें इन किताबों में कब जोड़ी गईं, उस समय किसकी सरकार थी वगैरह। इन्हें जोड़े बगैर काम चलता था या नहीं? और जुड़ गए, तो हटाया क्यों गया?

Friday, April 7, 2023

पाकिस्तान में सांविधानिक-संकट का खतरा


पाकिस्तान में सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और सरकार के बीच तलवारें खिंच गई हैं। मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में तीन जजों को बेंच ने 14 मई को पंजाब में चुनाव कराने का आदेश दिया है, जिसे मानने से सरकार ने इनकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने केवल पंजाब में चुनाव कराने की तारीख दी है, खैबर पख्तूनख्वा के बारे में कोई निर्देश नहीं दिया है, जबकि वहाँ भी चुनाव होने हैं। गुरुवार 6 अप्रेल को राष्ट्रीय असेंबली ने प्रस्ताव पास करके प्रधानमंत्री से कहा है कि इस फैसले को मानने की जरूरत नहीं है।

चुनाव आयोग ने हुकूमत के एतराज़ के बावजूद चुनाव का कार्यक्रम जारी कर दिया है। उधर सुप्रीम कोर्ट के भीतर न्यायाधीशों की असहमतियाँ भी खुलकर सामने आ रही हैं, जिनसे लगता है कि पाकिस्तान की न्यायपालिका पर राजनीतिक रंग चढ़ता जा रहा है। हालांकि पाकिस्तान की न्यायपालिका की भूमिका अतीत में बदलती रही है, पर ऐसा पहली बार हो रहा है, जब उसके फैसले को सरकार ने मानने से इनकार कर दिया है।

इसके पहले 4 अप्रेल को मुख्य न्यायाधीश उमर अता बंदियाल की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय पीठ ने पंजाब में 14 मई को चुनाव कराने का निर्देश दिया था।  पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) द्वारा दायर याचिका पर फैसले की घोषणा करते हुए, शीर्ष अदालत ने 30 अप्रैल से 8 अक्टूबर तक पंजाब और केपी में चुनाव स्थगित करने के पाकिस्तान के चुनाव आयोग (ईसीपी) के फैसले को अमान्य और शून्य घोषित कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि 22 मार्च, 2023 को ईसीपी के आदेश को असंवैधानिक घोषित किया गया है। पाकिस्तान के उर्दू मीडिया के शब्दों में अदालत ने इलेक्शन कमीशन के आठ अक्तूबर को इंतख़ाबात करवाने के 22 मार्च के हुक्मनामे को 'गैर-आईनी क़रार देते हुए कहा है कि इलेक्शन कमीशन ने अपने दायरा इख़्तियार से तजावुज़ (सीमोल्लंघन) किया। चुनाव आयोग ने पंजाब में 8 अक्‍टूबर को चुनाव कराने का ऐलान किया था। इस दौरान वर्तमान पाकिस्‍तानी राष्‍ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बंदियाल दोनों ही अपनी कुर्सी से हट जाएंगे। ये दोनों ही इमरान खान के समर्थक माने जाते हैं।

संघीय कैबिनेट के सूत्रों ने कहा, सुप्रीम कोर्ट का फैसला अल्पमत का फैसला है, इसलिए कैबिनेट इसे खारिज करती है। पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज (पीएमएल-एन) की वरिष्ठ उपाध्यक्ष और मुख्य आयोजक मरियम नवाज ने ट्विटर पर लिखा कि आज का फैसला उस साजिश का आखिरी झटका है, जो पीठ के चहेते इमरान खान को संविधान को फिर से लिखकर और पंजाब सरकार को थाली में पेश करके शुरू किया गया था। अब देश में मार्शल लॉ का खतरा फिर से मंडराने लगा है।

पाकिस्‍तानी मीडिया का कहना है कि सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर अभी चुनाव कराने के पक्ष में नहीं हैं। ऐसे में अब कई विश्लेषक आशंका जता रहे हैं कि देश में या तो आपातकाल लग सकता है या फिर मार्शल लॉ। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के एक दिन पहले विदेशमंत्री बिलावल भुट्टो ने कहा था कि देश में मार्शल लॉ लग सकती है। सेना जल्‍द चुनाव के लिए तैयार नहीं है, तो चुनाव कराना असंभव होगा। पाकिस्‍तानी अखबार डॉन के अनुसार जनरल मुनीर जल्दी या अलग-अलग चुनाव कराने के पक्ष में नहीं हैं। वे चाहते हैं कि पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा के चुनाव शहबाज़ शरीफ सरकार का कार्यकाल खत्म होने के बाद एक साथ कराए जाएं।

चुनाव कार्यक्रम घोषित होने के बावजूद अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि पाकिस्तान के सबसे बड़े सूबे में इंतख़ाबात मुकर्रर वक़्त पर हो पाएँगे या नहीं। संघीय सरकार मानती है कि अदालत ने यह फैसला 10 सदस्यों की पूर्ण पीठ के माध्यम से किया होता, तब उसे स्वीकार किया जा सकता था, पर जिस तरीके से मुख्य न्यायाधीश ने इस मसले को स्वतः संज्ञान (अज़खु़द नोटिस) में लिया और बेंच में रद्दोबदल किया, उससे न्यायालय पर से विश्वास उठ गया है। शासन मानता है कि देश में सभी चुनाव एकसाथ होने चाहिए।

वस्तुतः पद से हटाए जाने के बाद से इमरान खान की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। सरकार को डर है कि वे फिर से चुनाव जीतकर आ जाएंगे। अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि इमरान खान चुनाव लड़ पाएंगे या नहीं। उनपर गिरफ्तारी की छाया है। इतना ही नहीं पिछले साल अक्तूबर में चुनाव आयोग ने उन्हें पाँच साल तक के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया था। इमरान ने इस फैसले के खिलाफ अदालत में याचिका दायर की है। इमरान खान पर देश की सेना को बदनाम करने और आर्थिक-संकट पैदा करने वगैरह के आरोप भी हैं।

सरकार की रणनीति है कि यदि सूबों के चुनाव चल जाएं, तो फिर राष्ट्रीय असेंबली के चुनाव टालना आसान हो जाएगा। इस साल जनवरी में पंजाब विधानसभा भंग हो गई थी। संविधान के अनुसार इसके बाद 90 दिन के भीतर चुनाव होने चाहिए, पर देश का चुनाव आयोग मानता था कि किन्हीं कारणों से चुनाव टालने होंगे। इसपर सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यों की बेंच ने 14 मई को चुनाव कराने का आदेश दिया है। इस साल मध्य-अक्तूबर के पहले राष्ट्रीय असेंबली के चुनाव भी होने हैं। पिछले साल अप्रेल में सरकार से बाहर हुए पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान फौरन चुनाव कराने की माँग करते रहे हैं। पंजाब विधानसभा पर भी उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ (पीटीआई) का बहुमत था। केंद्र पर दबाव बनाने के लिए उन्होंने पंजाब विधानसभा को समय से पहले भंग करा दिया था। पंजाब के अलावा खैबर पख्तूनख्वा सूबे में भी चुनाव होने हैं।

मंगलवार 4 अप्रेल को जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया, संघीय सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि हम इस फैसले को नहीं मानेंगे। यह इमरान खान समर्थक जजों का फैसला है। यह केवल तीन जजों की बेंच थी। छह जज इसमें शामिल होने से इनकार कर चुके थे।  

Wednesday, April 5, 2023

अमेरिकी राजनीति में नई नज़ीरों को जोड़ेंगे डोनाल्ड ट्रंप पर मुकदमे


अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एकबार फिर से खबरों में हैं. न्यूयॉर्क ग्रैंड ज्यूरी ने गत गुरुवार 30 मार्च को उनके 2016 के राष्ट्रपति अभियान के दौरान एक पोर्न स्टार को पैसे देने के आरोप में आपराधिक केस चलाने को मंजूरी दे दी है, ऐसे अपराध के लिए, जिसमें एक साल या उससे अधिक की कैद हो सकती है.

अमेरिका के इतिहास में आपराधिक आरोपों का सामना करने वाले वे पहले पूर्व राष्ट्रपति बन गए हैं. कहा जा रहा था कि यदि वे मंगलवार को अदालत के सामने पेश नहीं हुए, तो उन्हें गिरफ्तार भी किया जा सकता है. बहरहाल वे अदालत के सामने पेश हो चुके हैं और उन्हें औपचारिक रूप से गिरफ्तार भी माना गया है. इस मामले में अगली सुनवाई 4 दिसंबर को होगी.

उन्हें 34 मामलों में आरोपी बनाया गया है. ट्रंप ने अदालत में कहा, मैंने कोई अपराध नहीं किया है और न अपने बिजनेस रिकार्ड में कोई गड़बड़ी नहीं की है.  57 मिनट चली पेशी के बाद ट्रंप कोर्ट से बाहर आए और फ्लोरिडा के लिए रवाना हो गए. अंततः उन्हें सजा हो या नहीं हो, लगता है कि ट्रंप इस मौके का फायदा उठाने को तैयार हैं.  

राजनीतिक साज़िश

वे इस मुकदमे को अपने खिलाफ बड़ी राजनीतिक साजिश बता रहे हैं. मैनहटन डिस्ट्रिक्ट अटॉर्नी के दफ्तर का कहना है कि ट्रंप से समर्पण के सिलसिले में बात की गई है. खबरें हैं कि वे अपने निजी विमान में बैठकर न्यूयॉर्क जाएंगे. जब आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं, तब तक वे न्यूयॉर्क पहुँच चुके होंगे.

ट्रंप ने कुछ समय पहले ही कह दिया था कि उनपर मुकदमा चलेगा और वे राष्ट्रपति पद के अगले चुनाव के लिए लगातार धन-संग्रह कर रहे हैं. कोई दूसरा राजनेता होता, तो इससे उसका करियर तबाह हो जाता, पर अमेरिकी राजनीति और समाज के ध्रुवीकरण को देखते हुए लगता है कि ट्रंप इसे अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश करेंगे.

चुनाव की तैयारी

वे सज-धज के साथ मुकदमे में भाग लेने के लिए आए. आरोप सिद्ध होने या आरोप लगने के बाद भी अगर वे राष्ट्रपति चुनाव लड़ना चाहेंगे तो लड़ सकते हैं. अमेरिकी संविधान के मुताबिक़ राष्ट्रपति होने के लिए उम्मीदवार का आपराधिक रिकॉर्ड साफ़ होना ज़रूरी नहीं है. व्यक्ति जेल में रहते हुए भी चुनाव लड़ सकता है.

प्रताड़ना के आरोप के कारण पार्टी में ट्रंप की स्थिति बेहतर हो जाती है. 2020 के चुनाव के समय ही रिपब्लिकन पार्टी में ट्रंप विरोधी तबका भर आया था, पर उनके समर्थक भी कम नहीं हैं. पार्टी में रॉन डेसेंटिस उनके मुख्य प्रतिस्पर्धी के रूप में उभर कर आए हैं. पार्टी के कुछ बड़े नेता ट्रंप की नाटकबाज़ी को पसंद नहीं करते हैं, पर जनता के बीच उनकी पैठ है. सवाल है कि सब कुछ होने के बाद भी क्या राष्ट्रपति पद के लिए वे रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी बनने में सफल होंगे?

धन का भुगतान

हालांकि आरोपों को सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं किया गया है, पर मामला 2016 में पोर्न स्टार स्टॉर्मी डेनियल्स नाम की महिला को (जिनका असली नाम है स्टेफनी क्लिफर्ड), एक लाख तीस हजार डॉलर के भुगतान की जांच से जुड़ा है. आरोप सीलबंद हैं और मंगलवार को औपचारिक रूप से अदालत में उन्हें सुनाया जाएगा. 2016 में पोर्न स्टार ने मीडिया के सामने कहा था कि 2006 में ट्रंप और उनके बीच अफेयर था. इसके बाद ट्रंप की टीम ने स्टॉर्मी को मुँह बंद रखने के लिए एक लाख तीस हजार डॉलर का भुगतान किया.

स्टॉर्मी को पैसों का भुगतान गैरकानूनी नहीं था, लेकिन जिस तरीके से भुगतान हुआ, उसे गैरकानूनी माना गया. ट्रंप के तत्कालीन वकील माइकल कोहेन ने गुपचुप तरीके से स्टॉर्मी को दी थी. जबकि ऐसे दिखाया गया जैसे ट्रंप की एक कंपनी ने भुगतान एक वकील को किया है. इसे बाद में चुनावी प्रचार के खर्च में दिखा दिया गया था.

6 जनवरी का कांड

इसी लेनदेन को अपराध माना गया है, जिसकी जांच ट्रंप के राष्ट्रपति पद पर रहते हुए ही शुरू हो गई थी. इस मुकदमे को अमेरिका में चुनाव कानूनों के खिलाफ करीब बीस मामले तैयार हो चुके हैं. उनके खिलाफ सबसे बड़ा मामला है 6 जनवरी, 2021 को अमेरिकी संसद पर हुए हमले का केस. क्या इस केस के कारण उन्हें भविष्य में चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित किया जा सकता है?

इसके अलावा 2020 के चुनाव से जुड़ा एक और केस है. फुल्टन काउंटी, जॉर्जिया में चुनाव परिणामों की घोषणा में हस्तक्षेप का मामला, जो काफी गंभीर है. फुल्टन काउंटी में भी एक ग्रैंड ज्यूरी उनके मामले की पड़ताल कर रही है. मामला 11,780 वोटों का है, जिनकी वजह से ट्रंप की बहुत मामूली अंतर से वहाँ हार हो गई थी.

सामाजिक ध्रुवीकरण

अमेरिका में अतीत में राष्ट्रपति या पूर्व राष्ट्रपति आरोपों के घेरे में आए भी, तो किसी न किसी तरीके से बच गए. इस समय बात केवल न्याय की नहीं राजनीति की है. अब महत्वपूर्ण यह नहीं है कि ट्रंप ने गलती की है या नहीं. करीब-करीब आधा देश चाहता है कि उन्हें सजा दी जाए. आधा देश मानता है कि ट्रंप को प्रताड़ित किया जा रहा है. यह आधा देश मानने को तैयार नहीं कि ट्रंप के साथ न्याय होगा.

ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के पीछे परंपरावादी अमेरिका है. कोई और मौका होता, तो वे ट्रंप को ऐसे अपराध के लिए माफ नहीं करते, पर इस वक्त वे 2020 की हार से कुंठित हैं. तकरीबन ऐसे ही मामले को लेकर उन्होंने बिल क्लिंटन के खिलाफ महाभियोग का समर्थन किया था. और उस समय डेमोक्रेटिक पार्टी के जो समर्थक क्लिंटन का बचाव कर रहे थे, वे इस समय मान रहे हैं कि ट्रंप के खिलाफ मामला बनता है.

कानूनी स्थिति

मैनहटन की अदालत में कसौटी पर नैतिकता, आचार-व्यवहार और पाखंड से जुड़े सवाल नहीं हैं, बल्कि यह है कि एक महिला को किया गया एक लाख तीस हजार डॉलर का भुगतान चुनाव की आचार-संहिता का उल्लंघन था या नहीं. अमेरिका में चुनाव के लिए धन-संग्रह की व्यवस्था बहुत उदार है और उससे जुड़े नियमन बहुत कठोर नहीं हैं, इसीलिए देखना होगा कि अदालत का रुख अब क्या होगा.

अमेरिका की अदालत से यह उम्मीद न करें कि वह अपने फैसले को इस आधार पर तय करेगी कि अभियुक्त का रुतबा क्या है और इस  मसले पर जनता की राय क्या है. बहरहाल ट्रंप के पक्ष और विरोध की दलीलों पर गौर करें. उनके पुराने वकील माइकल गोहेन साहब अपनी गलती मान चुके हैं कि उन्होंने चुनाव-अभियान से जुड़े वित्तीय-नियमों का उल्लंघन किया है. वे यह भी मान चुके हैं कि उन्होंने संसद के सामने झूठ बोला.

तब क्या वकील सारी गलती वकील की मानी जाएगी? इस रकम को चुनाव-प्रचार के भुगतान की रकम बताना अपराध है. फिर भी सब कुछ जज पर निर्भर करेगा कि वे इस मामले को किस तरह से देखते हैं. चुनाव-प्रचार के लिए धन-संग्रह संघीय-कानून के दायरे में आता है और लेनदेन का विवरण राज्य-कानून के दायरे में. दोनों को किस तरह जोड़ा जाएगा? फिर भी आम जनता के मन में इस केस को लेकर दो तरह की बातें हैं. बहुत से लोग मानते हैं कि उन्हें बेवजह फँसाया जा रहा है.     

नई नज़ीर

दुनिया के अनेक देशों में पूर्व राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों पर मुकदमे चले हैं और उन्हें सजाएं भी हुई हैं, पर अमेरिका का राष्ट्रपति अभी तक सबसे अलग माना जाता रहा है. इटली के सिल्वियो बर्लुस्कोनी और फ्रांस के निकोलस सरकोज़ी हाल की घटनाएं हैं. सिद्धांत यह है कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री भी आखिर सामान्य नागरिक है.

पिछले एक दशक में दक्षिण कोरिया के तीन पूर्व प्रधानमंत्रियों और दो पूर्व राष्ट्रपतियों को सजाएं हुई हैं. निकोलस सरकोज़ी के अलावा फ्रांस के पूर्व प्रधानमंत्री फ्रांस्वा फिलन को सज़ा हुई है. अमेरिका में अभी तक किसी पूर्व राष्ट्रपति को सजा नहीं हुई है. वॉटरगेट कांड के बावजूद रिचर्ड निक्सन को मुकदमे की जिल्लत से बख्श दिया गया. क्या डोनाल्ड ट्रंप इस परंपरा को तोड़ेंगे?

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित लेख का संवर्धित संस्करण