Sunday, August 28, 2022

ट्विन-टावरों को गिराकर क्या मिला?


नोएडा की ट्विन-टावर गिरा दी गईं, पर अपने पीछे कुछ सवाल छोड़ गई हैं। पहला सवाल है कि इनका निर्माण अवैध था, तो उन्हें बनने क्यों दिया गया? इन्हें गिराकर एक गलत काम की सजा तो मिल गई, पर इनके निर्माण की अनुमति देने वालों का क्या हुआ? एक बात यह भी कही जा रही है कि करोड़ों रुपये खर्च करके जब ये इमारतें बन ही गई थीं, तो इन्हें बनाने वालों को सजा देने के बाद इन इमारतों का कोई इस्तेमाल कर लेते। इन्हें गिराने से क्या मिला?

इमारतें गिर जाने के बाद एमराल्ड कोर्ट को विशाल गार्डन मिलेगा। पर ज्यादा महत्वपूर्ण विषय यह है कि इससे जुड़े अफसरों पर हुई क्या कार्रवाई हुई। एमराल्ड कोर्ट में रहने वालों में सरकारी अफसर, वकील और रिटायर्ड जज भी हैं। उनके प्रयासों से यह कानूनी-उपचार संभव हो पाया। देखना होगा कि संबद्ध अफसरों पर कार्रवाई के लिए भी क्या कोई मुहिम चलेगी?

पूरे एनसीआर क्षेत्र में तमाम सोसाइटियों के निवासी अब इस बात पर विचार कर रहे हैं कि वे किस प्रकार अपने मसलों को उठाएं। इस पूरे क्षेत्र में बिल्डरों ने जबर्दस्त निर्माण-कार्य किया है, जिसमें कई तरह के नियम-विरुद्ध काम हुए हैं। इन कार्यों में अफसरों की मिली-भगत रही है। ट्विन-टावरों ने चेतना जगाने का काम किया है। अब जरूरत इस बात की है कि इनमें रहने वाले मिलकर कानूनी उपाय खोजें।

आज़ाद ने खोले कांग्रेसी अंतर्विरोध


गुलाम नबी आजाद के इस्तीफे की चिट्ठी हाल के वर्षों में कांग्रेस के अंतर्विरोधों का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इसलिए महत्वपूर्ण यह देखना है कि इस पत्र पर कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया क्या है। उस प्रतिक्रिया से ही पता लगेगा कि पत्र में जो लिखा गया है, वह किस हद तक सही है और किस हद तक एक दिलजले की भड़ास। यह पत्र सोनिया गांधी को लिखा गया है और इसमें राहुल गांधी को निशाना बनाया गया है। उन्होंने लिखा है, ‘पार्टी के सभी वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं को किनारे कर दिया गया है, अब अनुभवहीन चाटुकारों की मंडली पार्टी चला रही है।’ दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि गुलाम नबी को कांग्रेस ने हीरो बनाया। संगठन-सरकार में कई पदों से नवाजा। दो बार लोकसभा सांसद बनाया, जम्मू-कश्मीर का सीएम बनाया। चुनाव की हार से बचाकर पाँच बार राज्यसभा सांसद बनाया। उन्होंने मलाई काटी, आज दगाबाजी कर रहे हैं। पार्टी नेतृत्व को इस बात पर विचार करना चाहिए कि इतना सीनियर नेता पार्टी क्यों छोड़ रहा है। क्या इसलिए कि उसे राज्यसभा की सीट नहीं मिली और दिल्ली में रहने के लिए उसे बंगला चाहिए? राज्यसभा की सीट तो अब की बात है, गुलाम नबी कम से कम तीन साल से तो अपनी बात कह ही रहे हैं। यह बात उन्होंने पार्टी के फोरम पर ही की है। वे अपने विचार पार्टी अध्यक्ष को लिखे पत्रों में व्यक्त करते रहे हैं। उनकी बात सुनने के बजाय उनपर आरोपों की बौछार क्यों लगी?

परिवार खामोश

सोनिया, राहुल और प्रियंका की कोई प्रतिक्रिया इन पंक्तियों के लिखे जाने तक नहीं आई है। बाकी सीनियर नेताओं के स्वर वैसे ही हैं, जैसे 1969 में इंदिरा कांग्रेस बनने के बाद से रहे हैं। शुक्रवार को दिन में पार्टी ने अजय माकन की एक प्रेस कांफ्रेंस रखी थी, पर उसका एजेंडा दिल्ली की आम आदमी पार्टी को निशाना बनाने का था। गुलाब नबी के इस्तीफे की खबर आने के बाद वह प्रेस कांफ्रेंस रद्द कर दी गई, क्योंकि स्वाभाविक रूप से सवाल इस इस्तीफे को लेकर ही होते। आज 28 अगस्त को कार्यसमिति की बैठक बुलाई गई है। इस बैठक का विषय पार्टी अध्यक्ष के चुनाव के कार्यक्रम को तय करना है। क्या उसमें कांग्रेस के आंतरिक प्रश्नों पर खुलकर विचार-विमर्श होगा? इस बैठक के विमर्श से भी आपको पार्टी की सोच-समझ का अंदाज लगेगा।

संकट या नया दौर?

कांग्रेस के लिए यह संकट की घड़ी है या नहीं है, यह अलग-अलग दृष्टिकोणों पर निर्भर करता है। पिछले नौ वर्षों में, यानी मोदी के आने के बाद, काफी लोग पार्टी छोड़कर गए हैं। हरबार कहा जाता है कि अच्छा हुआ, गंध गई। यानी कि अब ताजगी का नया दौर शुरू होगा। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि गुलाम नबी का जाना, अच्छा ही हुआ। अब पार्टी का नया दौर शुरू होगा। पार्टी को अगले तीन हफ्तों में अपने अध्यक्ष का चुनाव करना है। साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने वले हैं। 

अगले साल कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव हैं। दूसरे कई राज्यों में भी चुनाव हैं, पर पाँच में पहले चार राज्यों में कांग्रेस के महत्वपूर्ण हित जुड़े हुए हैं। राजनीति की निगाहें इससे आगे हैं, वह 2024 और 2029 के चुनावों तक देख रही है। गुलाम नबी के रहने या जाने से कांग्रेस की सेहत पर भले ही बड़ा फर्क पड़ने वाला नहीं हो, फिर भी उनके इस्तीफे से धक्का जरूर लगेगा। ऐसी परिघटनाओं से कार्यकर्ता का मनोबल गिरता है। उनके इस्तीफे के पहले पार्टी-प्रवक्ता जयवीर शेरगिल ने इस्तीफा दिया है। दोनों ने बदहाली के लिए राहुल गांधी को जिम्मेदार माना है। इसके पहले भी जो लोग पार्टी छोड़कर गए हैं, सबका निशाने पर राहुल गांधी रहे हैं।

वरिष्ठों की उपेक्षा

पाँच पेज के पत्र में गुलाम नबी आजाद ने सोनिया गांधी की तारीफ़ की है और कहा है कि उन्होंने यूपीए-1 और यूपीए-2 को शानदार तरीके से चलाया जिसकी वजह थी कि तब वरिष्ठ और अनुभवी लोगों की सलाह मानी जाती थी। उनके अनुसार पार्टी के शीर्ष पर एक ऐसा आदमी थोपा गया जो गंभीर नहीं है। राहुल गांधी का रवैया 2014 में कांग्रेस पार्टी की पराजय का कारण बना। अब पार्टी के अहम फ़ैसले राहुल गांधी की चाटुकार मंडली कर रही है और अनुभवी नेताओं को दरकिनार कर दिया गया है। फ़ैसले राहुल गांधी के सिक्योरिटी गार्ड और पीए कर रहे हैं। इसी चाटुकार मंडली के इशारे पर जम्मू में मेरा जनाज़ा निकाला गया। जिन्होंने यह हरकत की उनकी तारीफ़ पार्टी के महासचिवों और राहुल गांधी ने की। इसी मंडली ने कपिल सिब्बल पर भी हमला किया, जबकि आपको और आपके परिवार को बचाने के लिए वे क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे थे। उन्होंने राहुल गांधी के अध्यादेश फाड़ने के कृत्य को बचकाना बताया। पार्टी अब इस हाल में पहुँच गई है कि वहाँ से वापस नहीं लौट सकती।

Friday, August 26, 2022

गुलाम नबी का इस्तीफा और नाज़ुक घड़ी में कांग्रेस


इसे कांग्रेस के लिए संकट का समय न भी कहें, तो बहुत नाजुक समय जरूर कहेंगे। पार्टी को अगले तीन हफ्तों में अपने अध्यक्ष का चुनाव करना है। साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने वले हैं। अगले साल कर्नाटक
, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव हैं।

दूसरे कई राज्यों में भी चुनाव हैं, पर पाँच में पहले चार राज्यों में कांग्रेस के महत्वपूर्ण हित जुड़े हुए हैं। तेलंगाना में उसकी स्थिति फिलहाल अच्छी नहीं है, पर कांग्रेस की राष्ट्रीय स्थिति को बनाए रखने में तेलंगाना की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। पर राजनीति की निगाहें इससे आगे हैं, वह 2024 और 2029 के चुनावों तक देख रही है।

गुलाम नबी के रहने या जाने से कांग्रेस की सेहत पर भले ही बड़ा फर्क पड़ने वाला नहीं हो, फिर भी उनके इस्तीफे से धक्का जरूर लगेगा। ऐसी परिघटनाओं से कार्यकर्ता का मनोबल गिरता है। उनके इस्तीफे के पहले पार्टी-प्रवक्ता जयवीर शेरगिल ने इस्तीफा दिया है। दोनों ने बदहाली के लिए राहुल गांधी को जिम्मेदार माना है। इसके पहले भी जो लोग पार्टी छोड़कर गए हैं, सबका निशाना राहुल गांधी रहे हैं।

चुनाव-कार्यक्रम

घोषित कार्यक्रम के अनुसार कांग्रेस के अध्यक्ष पद की चुनाव प्रक्रिया 21 अगस्त से 20 सितंबर के बीच पूरी की जानी है। चुनाव की तारीख कार्यसमिति तय करेगी, जिसकी बैठक 28 को होने जा रही है। इस चुनाव में सभी राज्यों के 9,000 से अधिक प्रतिनिधि मतदाता होंगे। मधुसूदन मिस्त्री की अध्यक्षता में पार्टी की चुनाव-समिति ने कहा है कि हम समय पर चुनाव के लिए तैयार हैं।

वर्तमान स्थितियों में लगता है कि इस प्रक्रिया को पूरा करने में 20 सितंबर की समय सीमा का उल्लंघन हो सकता है। पार्टी के संगठन महामंत्री केसी वेणुगोपाल ने स्पष्ट किया है कि चुनाव टाले नहीं जा रहे हैं। अलबत्ता कुछ तकनीकी कारणों से उनमें देरी हो रही है। कहा यह भी जा रहा है कि बीच में पितृ-पक्ष पड़ने के कारण पार्टी देरी कर रही है। राज्यों के अध्यक्षों का चुनाव भी 20 अगस्त तक होना था, लेकिन यह प्रक्रिया किसी भी राज्य में पूरी नहीं हुई है।

पाकिस्तान के संकट का क्या हमें फायदा उठाना चाहिए?


भारत और पाकिस्तान ने इस साल एक साथ स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे किए हैं। पर दोनों के तौर-तरीकों में अंतर है। भारत प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ता जा रहा है, और पाकिस्तान दुर्दशा के गहरे गड्ढे में गिरता जा रहा है। जुलाई के अंतिम सप्ताह में पाकिस्तान सरकार ने देश चलाने के लिए विदेशियों को संपत्ति बेचने का फैसला किया है। एक अध्यादेश जारी करके सरकार ने सभी प्रक्रियाओं और नियमों को किनारे करते हुए सरकारी संपत्ति को दूसरे देशों को बेचने का प्रावधान किया है। यह फैसला देश के दिवालिया होने के खतरे को टालने के लिए लिया है, पर सच यह है कि पाकिस्तान दिवालिया होने के कगार पर है। अध्यादेश में कहा गया है कि इस फैसले के खिलाफ अदालतें भी सुनवाई नहीं करेंगी।

आर्थिक-संकट के अलावा पाकिस्तान में आंतरिक-संकट भी है। बलूचिस्तान और अफगानिस्तान से लगे पश्तून इलाकों में उसकी सेना पर विद्रोहियों के हमले हो रहे हैं। हाल में 2 अगस्त को बलूचिस्तान में बाढ़ राहत अभियान में तैनात पाकिस्तानी सेना का एक हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिसमें सवार एक लेफ्टिनेंट जनरल और पांच वरिष्ठ फौजी अफसरों सैन्य अधिकारियों की मौत हो गई। पता नहीं यह दुर्घटना थी या सैबोटाज, पर सच यह है कि इस इलाके में सेना पर लगातार हमले हो रहे हैं।

बलूच स्वतंत्रता-सेनानियों के निशाने पर पाकिस्तान और चीन के सहयोग से चल रहा सीपैक कार्यक्रम है। इससे जुड़े चीनी लोग भी इनके निशाने पर हैं। पंजाब को छोड़ दें, तो देश के सभी सूबों में अलगाववादी आंदोलन चल रहे हैं।  बलूचिस्तान, वजीरिस्तान, गिलगित-बल्तिस्तान और सिंध में अलगाववादी आँधी चल रही है। भारत से गए मुहाजिरों का पाकिस्तान से मोह भंग हो चुका है। वे भी आंदोलनरत हैं।

हम क्या करें?

पाकिस्तान जब संकट से घिरा है, तब हमें क्या करना चाहिए?  जब लोहा गरम हो, तब वार करना चाहिए। तभी वह रास्ते पर आएगा। पाकिस्तान के रुख और रवैये में बदलाव करना है, तो उसपर भीतर और बाहर दोनों तरफ से मार करने की जरूरत है। बेशक हमें गलत तौर-तरीकों पर काम नहीं करना चाहिए, पर लोकतांत्रिक और मानवाधिकार से जुड़े आंदोलनों को समर्थन जरूर देना चाहिए।  

क्या हम पाकिस्तानी कब्जे से कश्मीर को मुक्त करा पाएंगे?  गृह मंत्री अमित शाह ने नवम्बर 2019 में एक कार्यक्रम में कहा कि पाक अधिकृत कश्मीर और जम्मू-कश्मीर के लिए हम जान भी दे सकते हैं और देश में करोड़ों ऐसे लोग हैं, जिनके मन में यही भावना है। साथ ही यह भी कहा कि इस सिलसिले में सरकार का जो भी ‘प्लान ऑफ एक्शन’ है, उसे टीवी डिबेट में घोषित नहीं किया जा सकता। ये सब देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मुद्दे हैं, जिन्हें ठीक वैसे ही करना चाहिए, जैसे अनुच्छेद 370 को हटाया गया। इसके समय की बात मत पूछिए तो अच्छा है।

15 अगस्त, 2016 को लालकिले के प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाक अधिकृत कश्मीर, गिलगित और बलूचिस्तान के बिगड़ते हालात का और वहाँ के लोगों की हमदर्दी का जिक्र किया। उन्होंने पाक अधिकृत कश्मीर और बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के हनन का मामला भी उठाया। उनकी बात से बलूचिस्तान के लोगों के मन में उत्साह बढ़ा था। यह पहला मौका था जब किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने इस तरह खुले-आम बलूचिस्तान का ज़िक्र किया था। इसपर स्विट्ज़रलैंड में रह रहे बलूच विद्रोही नेता ब्रह्मदाग़ बुग्ती ने कहा था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमारे बारे में बात कर हमारी मुहिम को बहुत मदद पहुंचाई है।

पाकिस्तानी तिकड़म

इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान ने तिकड़म करके कश्मीर और बलूचिस्तान पर कब्जा किया है। 1947 में बलूचिस्तान और पश्तूनिस्तान भी पाकिस्तान से जुड़ना नहीं चाहते थे। भारतीय उपमहाद्वीप से अंग्रेजी शासन की वापसी के दौरान, बलूचिस्तान को दूसरी देसी रियासतों की तरह भारत में शामिल होने, पाकिस्तान में शामिल होने या स्वतंत्र रहने का विकल्प दिया गया था। उस दौर के इतिहास को पढ़ें तो पाएंगे कि भारत के तत्कालीन नेतृत्व ने इस इलाके की उपेक्षा की, जिसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि पाकिस्तान के हौसले बढ़ते गए।

Monday, August 22, 2022

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