Thursday, August 18, 2022

The Hindu के हिंदी-प्रेम के पीछे क्या है?

चेन्नई से प्रकाशित अखबार द हिंदू के संपादक सुरेश नंबथ ने गत 15 अगस्त को ट्वीट किया, ‘@the_hindu in Hindi; from today, our editorials will be available in Hindi.’ पहली नज़र में लगा कि शायद यह अखबार हिंदी में भी निकलने वाला है। गौर से देखने पर पता लगता है कि फिलहाल तो ऐसा नहीं है। हो सकता है कि ऐसा करने के बारे में विचार किया जा रहा हो। हुआ यह है कि अखबार की वैबसाइट पर संपादकीय के साथ हिंदी का एक पेज और जोड़ दिया गया है। अंग्रेजी अखबार के संपादकीयों का हिंदी अनुवाद भी अब उपलब्ध हैं।

हिंदू की वैबसाइट पर मैंने इस हिंदी पेज को खोजने की कोशिश की, तो नहीं मिला, पर सुरेश नंबथ ने जो लिंक दिया है, उसके सहारे आप अब तक प्रकाशित सभी संपादकीयों को पढ़ सकते हैं। सुरेश नंब के ट्वीट पर हिंदी के कुछ पाठकों और पत्रकारों ने काफी दिलचस्पी दिखाई और इसका स्वागत किया। यह स्वागत इस अंदाज़ में था कि शायद यह अखबार हिंदी में आने वाला है।

हिंदू से उम्मीदें

ऐसा कभी हो, तो बड़ी अच्छी बात होगी, क्योंकि इसमें दो राय नहीं कि गुणवत्ता के लिहाज से हिंदू अच्छा अखबार है। हिंदी अखबारों की गुणवत्ता का, खासतौर से देश-दुनिया से जुड़ी संजीदा जानकारी का जिस तरह से ह्रास हुआ है, उसके कारण लोगों को हिंदू से उम्मीदें हैं। काफी लोग उसके वामपंथी झुकाव और राजनीतिक-दृष्टिकोण के मुरीद हैं। पर इन बातों के साथ कई तरह के किंतु-परंतु जुड़े हैं।

हिंदी में बंगाल के आनंद बाजार पत्रिका और केरल के मलयाला मनोरमा ग्रुप ने भी प्रवेश करने की कोशिश की है। आनंद बाजार पत्रिका को प्रिंट में तो सफलता नहीं मिली, पर उनका टीवी चैनल जरूर एक हद तक सफल हुआ है। हिंदी में हिंदू के प्रकाशन की संभावना का जिक्र होते ही काफी लोगों का ध्यान गया है। एक जमाने में खबरें आती थीं कि स्टेट्समैन समूह हिंदी में नागरिक नाम से अखबार निकालना चाहता है। ऐसा हुआ नहीं। पर हिंदी वाले अच्छे और संजीदा मीडिया का इंतजार करते रहते हैं।

हिंदी-शहरों में हिंदू

हिंदू तमिल-जीवन और समाज के भीतर से निकला अखबार है, जिसमें हिंदी के प्रति अनुग्रह बहुत कम है, बल्कि हिंदी-विरोधी स्वर उस क्षेत्र में सबसे तीखे हैं। उसका तमिल-संस्करण भी है। वह दक्षिण की दूसरी भाषाओं को छोड़कर हिंदी-संस्करण क्यों निकालना चाहेगा?  वह केरल और तमिलनाडु में सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है। विकीपीडिया के अनुसार, इस समय यह भारत के 11 राज्यों के 21 स्थानों से प्रकाशित होता है। इनमें दक्षिण भारत के छोटे-बड़े शहरों के अलावा दिल्ली, मुंबई, कोलकाता वगैरह भी समझ में आते हैं, पर मोहाली, लखनऊ, इलाहाबाद और पटना के नाम पढ़कर हैरत होती है और इसका मतलब भी समझ में आता है।

Wednesday, August 17, 2022

हंबनटोटा में चीनी-हठधर्मी सफल और कर्ज पर कर्ज से घिरता श्रीलंका

हंबनटोटा बंदरगाह में चीनी पोत युआन वांग 5

अंततः चीनी-हठधर्मी सफल हुई और उसके पोत युआन वांग 5 ने मंगलवार 16 अगस्त को श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह पर लंगर डाल दिए। इस परिघटना से भारत और श्रीलंका के रिश्ते कितने प्रभावित होंगे, यह अब देखना होगा। साथ ही यह भी देखना होगा कि श्रीलंका सरकार के भविष्य के फैसले किस प्रकार के होंगे। चीनी पोत के आगमन की अनुमति पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे देकर गए थे। आज देश में उनकी लानत-मलामत हो रही है। उधर चीनी कर्ज उतारने के लिए श्रीलंका को और कर्ज की जरूरत है, जिससे वह चीनी-जाल में फँसता जा रहा है।

इसके पहले भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा था कि श्रीलंका संप्रभु देश है और अपने फैसले स्वयं करता है। हम इस पोत के आगमन को भारतीय सुरक्षा के लिए खतरा मानते हैं, पर हमने इसके आगमन को रोकने के लिए श्रीलंका पर किसी प्रकार का दबाव नहीं डाला है, अलबत्ता हम इस आगमन और उसके संभावित परिणामों का विवेचन और विश्लेषण करेंगे।

भारतीय चिंता

गत 8 अगस्त को चीनी विदेश मंत्रालय ने कहा कि श्रीलंका पर दबाव डालने के लिए कुछ देशों की कथित सुरक्षा-चिंताएं निराधार हैं। इसपर 12 अगस्त को भारतीय प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा कि श्रीलंका एक संप्रभु देश है और वह अपने स्वतंत्र निर्णय करता है…जहाँ तक हमारी सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं का मामला है, यह किसी भी संप्रभु देश का अधिकार है। हम अपने हित में उचित निर्णय करेंगे। ऐसा करते समय हम अपने क्षेत्र की स्थिति, खासतौर से हमारी सीमा-क्षेत्र की परिस्थितियों को ध्यान में रखेंगे।

श्रीलंका के राष्ट्रपति रानिल विक्रमासिंघे ने अलबत्ता रविवार 14 अगस्त को कहा कि चीन को हंबनटोटा बंदरगाह के सैनिक-इस्तेमाल की अनुमति नहीं दी जाएगी। इस सिलसिले में श्रीलंका के यू-टर्न को लेकर भारत सरकार की कोई प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आई है। इस पोत के आने के बाद बीजिंग में चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता वांग वेनबिन ने कहा कि श्रीलंका के सक्रिय सहयोग से युआन वांग 5 ने हंबनटोटा बंदरगाह में लंगर डाल दिए हैं।

संकट में श्रीलंका

यह पोत 16 अगस्त की सुबह लगभग 8 बजे हंबनटोटा बंदरगाह पर पहुंचा और वहां लंगर डाला। यह 22 अगस्त तक यहाँ रहेगा। इसके स्वागत में हुए समारोह में पूर्व मंत्री सरथ वीरसेकेरा ने सरकार की ओर से भाग लिया और चीन गणराज्य से इस समय श्रीलंका को अपने ऋण के पुनर्गठन में मदद करने और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ बातचीत को श्रीलंका के दीर्घकालिक मित्र के रूप में सफल बनाने के लिए कहा। उन्होंने कहा, 'अगर हमें चीन समेत अपने अंतरराष्ट्रीय दोस्तों का समर्थन मिलता है तो हम देश में पैदा हुए आर्थिक संकट को दूर कर सकते हैं।

वीरसेकेरा ने कहा कि, पश्चिमी देश श्रीलंका, चीन और भारत के बीच के रिश्तों को नहीं समझ सकते हैं। हमारे तीन राष्ट्र बौद्ध धर्म, व्यापार और सहायता, रणनीतिक संबंधों और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के आधार पर विकसित हुए हैं। एशिया को मजबूत करने के लिए एशियाई लोगों को मिलकर काम करना चाहिए। चीन श्रीलंका से अविभाज्य है...और एक भरोसेमंद दोस्त।

तीसरा पक्ष?

चीन सरकार ने अपने बयान में कहा है कि इस पोत के कार्य किसी देश की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं हैं और किसी भी तीसरे पक्ष को इसके आवागमन में बाधा डालने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। जब हंबनटोटा में उपस्थित श्रीलंका में चीन के राजदूत छी ज़ेनहोंग से भारत की चिता के बारे में और पोत के आगमन में हुए विलंब के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि मैं नहीं जानता, आपको इसके बारे में भारतीय मित्रों से पूछना चाहिए। पहले यह पोत 11 अगस्त को आने वाला था। इसपर भारत सरकार ने अपनी चिंता व्यक्त की तो श्रीलंका सरकार ने चीन से अनुरोध किया कि पोत के आगमन को रोक दिया जाए। इसके बाद पिछले शनिवार 13 अगस्त को श्रीलंका सरकार ने यू-टर्न लेते हुए पोत को आने के लिए हरी झंडी दिखा दी।

चीन इसे वैज्ञानिक सर्वेक्षण पोत बता रहा है, जबकि भारत मानता है कि यह जासूसी पोत है। इस पोत पर जिस तरह के रेडार और सेंसर लगे हैं, उनका इस्तेमाल उपग्रहों की ट्रैकिंग के लिए हो सकता है, तो अंतर महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रों के लिए भी किया जा सकता है। बात सिर्फ इस्तेमाल की है। चीन इस पोत को असैनिक और वैज्ञानिक-शोध से जुड़ा बता रहा है, पर पेंटागन की सालाना रिपोर्ट के अनुसार इस पोत का संचालन चीनी सेना की स्ट्रैटेजिक सपोर्ट फोर्स करती है। यह चीनी नौसेना का पोत है।

चीनी अड्डा

श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने देश से भागने के पहले 12 जुलाई को इस जासूसी जहाज को हंबनटोटा बंदरगाह पर आने की मंजूरी दी थी। उसके बाद वे नौसेना की एक बोट पर बैठकर पहले मालदीव भागे और फिर सिंगापुर। राजपक्षे परिवार के गृहनगर पर बना हंबनटोटा बंदरगाह 99 साल की लीज पर चीन के हवाले हो चुका है। चीन ने हंबनटोटा का विकास किया है, जिसके लिए श्रीलंका पर भारी कर्जा हो गया है। इस कर्जे को चुकाने के नाम पर 2017 में श्रीलंका ने यह बंदरगाह 99 साल के लीज पर चीन को सौंप दिया। 2014 में श्रीलंका ने चीनी परमाणु शक्ति चालित पनडुब्बी और युद्धपोत को कोलंबो में लंगर डालने की अनुमति दी थी। इस बात पर भारत ने आपत्ति जताई थी और अब सावधान भी हो गया है।

चीन वस्तुतः हंबनटोटा का इस्तेमाल अपने सैनिक अड्डे के रूप में करना चाहता है। न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार चीन ने 28 जून को श्रीलंका सरकार को इस पोत के बारे में जानकारी दी थी। उस समय श्रीलंका ने कहा था कि पोत हंबनटोटा में ईंधन भरेगा और कुछ खाने-पीने के सामान को लोड कर चला जाएगा। श्रीलंका पर चीन का भारी कर्जा है। श्रीलंका ने चीन से फिर नया कर्ज माँगा है, ताकि पुराने कर्ज को चुकाया (रिस्ट्रक्चर) जा सके। श्रीलंका के पर्यवेक्षकों को लगता है कि ऐसा होने जा रहा था, पर पोत के आगमन में रोक लगने से नई दिक्कतें पैदा हो रही थीं। दूसरी तरफ भारत भी श्रीलंका की सहायता कर रहा है। ऐसे में पोत के आगमन का विपरीत प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।

जासूसी पोत

युआन वांग 5 शक्तिशाली रेडार और अत्याधुनिक तकनीक से लैस है। यह जहाज अंतरिक्ष और सैटेलाइट ट्रैकिंग के अलावा इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल के लॉन्च का भी पता लगा सकता है। यह युआन वांग सीरीज का तीसरी पीढ़ी का ट्रैकिंग जहाज है। सैटेलाइट ट्रैकिंग के अलावा ऐसे पोत समुद्र तल की पड़ताल भी करते हैं, जिसकी जरूरत नौसेना के अभियानों में होती है। भारतीय नौसेना का पोत आईएनएस ध्रुव भी इसी किस्म का पोत है।

यह पोत करीब 750 किलोमीटर के दायरे में आकाशीय-ट्रैकिंग कर सकता है। इसके अलावा यह पानी के नीचे काफी गहराई तक समुद्री सतह की पड़ताल भी कर सकता है। इसका मतलब है कि भारत के कल्पाक्कम, कुदानकुलम परमाणु ऊर्जा केंद्र और दक्षिण भारत में स्थित अंतरिक्ष अनुसंधान से जुड़े केंद्र और छह बंदरगाह और समुद्र तट उसकी जाँच की परिधि में होंगे। इसके अलावा ओडिशा का चांदीपुर स्थित प्रक्षेपास्त्र परीक्षण केंद्र भी इसके दायरे में आ सकता है।

2017 में जब श्रीलंका ने चीन को 99 साल के पट्टे पर हंबनटोटा बंदरगाह सौंप दिया था, भारत और अमेरिका ने संदेह व्यक्त किया था कि इस फैसले से हमारे हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। युआन वांग वर्ग के पोत जिस इलाके से गुजरते हैं, उसके आसपास के क्षेत्रों के विवरण एकत्र कर सकते हैं। इसे ही जासूसी कहा जाता है।

करीब 1.1 अरब डॉलर के चीनी कर्जे से बना हंबनटोटा बंदरगाह व्यावसायिक रूप से विफल साबित हुआ। श्रीलंका उस कर्ज को चुकाने में नाकामयाब हुआ, तो 2017 में इसे 99 साल के पट्टे पर चीन को सौंप दिया गया। बंदरगाह के साथ-साथ 15,000 एकड़ जमीन भी चीन को दी गई है। जिस वक्त यह बंदरगाह सौंपा गया श्रीलंका पर चीन का कर्ज 8 अरब डॉलर का हो चुका था।

 

Monday, August 15, 2022

मुस्लिम-कारोबारी जिन्होंने देश के आर्थिक-विकास में मदद की


हाल में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लखनऊ में लुलु मॉल का उद्घाटन किया। दो हजार करोड़ रुपये की लागत से बनाया गया यह मॉल उत्तर भारत में ही नहीं देश के सबसे शानदार मॉलों में एक है। यूएई के लुलु ग्रुप के इस मॉल से ज्यादा रोचक है लुलु ग्रुप के चेयरमैन युसुफ अली का जीवन। हालांकि उनका ज्यादातर कारोबार यूएई में है, पर वे खुद भारतीय हैं। उनका ग्रुप पश्चिमी एशिया, अमेरिका और यूरोप के 22 देशों में कारोबार करता है।

युसुफ अली व्यापार से ज्यादा चैरिटी के लिए पहचाने जाते हैं। गुजरात में आए भूकंप से लेकर सुनामी और केरल में बाढ़ तक के लिए उन्होंने कई बार बड़ी धनराशि दान में दी है। उनके ग्रुप का सालाना टर्नओवर 8 अरब डॉलर का है और उन्होंने करीब 57 हजार लोगों को रोजगार दिया हुआ है। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया है। भारत और यूएई की सरकार के मजबूत रिश्तों में उनकी भी एक भूमिका है।

दक्षिण और गुजरात

युसुफ अली के बारे में जानकारियों की भरमार है, पर यह आलेख भारत के मुस्लिम उद्यमियों, उद्योगपतियों और कारोबारियों के बारे में है, जिन्होंने देश के आर्थिक-विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और निभा रहे हैं। मुस्लिम कारोबारियों के बारे में जानकारी जुटाना आसान नहीं है, क्योंकि ऐसी सामग्री का अभाव है, जिसमें सुसंगत तरीके से अध्ययन किया गया हो। 

पहली नज़र में एक बात दिखाई पड़ती है कि उत्तर भारत के मुसलमानों के मुकाबले दक्षिण भारत और गुजरात के मुसलमानों ने कारोबार में तरक्की की है। ऐसे मुसलमानों का कारोबार बेहतर साबित हुआ है, जिनकी शिक्षा या तो यूरोप या अमेरिका में हुई या भारत के आईआईटी या आईआईएम में।

अलबत्ता असम के कारोबारी बद्रुद्दीन अजमल इस मामले में एकदम अलग साबित हुए हैं। उन्हें अपने कारोबार और परोपकारी कार्यों से ज्यादा अब हम उनके राजनीतिक दल ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) की वजह से बेहतर जानते हैं।

सफल मुस्लिम-कारोबारियों को ग्राहकों और यहाँ तक कि अपने प्रबंधकों या कर्मचारियों के रूप में हिंदुओं की जरूरत पड़ती है। तीसरे, उत्तर के मुसलमान कारोबारी समय के साथ अपने परंपरागत बिजनेस को छोड़ नहीं पाए, जबकि दक्षिण और गुजरात के मुसलमान-कारोबारियों ने नए बिजनेस पकड़े और उसमें सफल भी हुए।

सिपला और हिमालय

दुर्भाग्य से भारत में कुछ ऐसे मौके भी आए हैं, जब मुस्लिम कारोबारियों के बहिष्कार की अपीलें जारी होती हैं। पिछले दिनों दक्षिण भारत में जब हिजाब को लेकर विवाद खड़ा हो रहा था, तब भी ऐसा हुआ। उन्हीं दिनों नफरती हैशटैग और प्रचार के बीच खबर यह भी थी कि भारतीय फार्मास्युटिकल्स कंपनी सिपला और भारत सरकार की कंपनी आईआईसीटी मिलकर कोविड-19 की दवाई विकसित करने जा रहे हैं। 

सिपला का भारत में ही नहीं अमेरिका तक में नाम है। 1935 में इसकी स्थापना राष्ट्रवादी मुसलमान ख्वाजा अब्दुल हमीद ने की थी। आज उनके बेटे युसुफ हमीद इसका काम देखते हैं। सिपला के अलावा भारत की फार्मास्युटिकल कंपनी वॉकहार्ट भी जेनरिक दवाओं के अग्रणी है। इसके मालिक दाऊदी बोहरा हबील खोराकीवाला हैं।

इसी तरह आयुर्वेदिक औषधियों की प्रसिद्ध कंपनी हिमालय है, जिसे एक मुस्लिम परिवार चलाता है। इसके खिलाफ भी हाल में दुष्प्रचार हुआ। हिमालय की स्थापना मुहम्मद मनाल ने 1930 में की। देहरादून में इनामुल्लाह बिल्डिंग से इस कंपनी की छोटी सी शुरुआत हुई थी। मुहम्मद मनाल के पास कोई वैज्ञानिक डिग्री नहीं थी, पर उन्होंने आयुर्वेदिक औषधियों के वैज्ञानिक परीक्षण का सहारा लिया।

हालांकि भारत के लोग परंपरागत दवाओं पर ज्यादा भरोसा करते हैं, पर पश्चिमी शिक्षा के कारण उनका मन आयुर्वेदिक और यूनानी दवाओं से हट रहा था। ऐसे में हिमालय का जन्म हुआ। एक अरसे तक कारोबार के बाद 1955 में इसके लिवर-रक्षक प्रोडक्ट लिव-52 ने चमत्कार किया। यह दवाई दुनियाभर में प्रसिद्ध हो गई और आज भी देश में सबसे ज्यादा बिकने वाली 10 दवाओं में शामिल है। मुहम्मद मनाल के पुत्र मेराज मनाल 1964 में कंपनी में शामिल हुए। अपने जन्म के 92 साल बाद यह कंपनी दुनिया में भारत की शान है।

भारत में 22 से 24 करोड़ के बीच मुस्लिम आबादी है। इनमें काफी बड़ा हिस्सा आर्थिक रूप से कमज़ोर है। उनकी कमज़ोरी अक्सर मीडिया का विषय बनती हैं, पर उद्योग और बिजनेस में मुसलमानों की सकारात्मक भूमिका अक्सर दबी रह जाती है। इन उद्यमियों ने भारत के युवा मुसलमानों को इंजीनियरी, चार्टर्ड एकाउंटेंसी, आईटी, मीडिया तथा अन्य आधुनिक कारोबारों में आगे आने को प्रोत्साहित किया है।

परंपरागत कारोबार

उत्तर भारत में मुसलमान अपेक्षाकृत कमजोर और पिछड़े हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि उत्तर के काफी समृद्ध मुसलमान पाकिस्तान चले गए। उत्तर में भी मुसलमान कारोबारी दस्तकारी से जुड़े कामों में ज्यादा सक्रिय थे। जैसे कि मुरादाबाद का पीतल उद्योग, फिरोजाबाद का काँच उद्योग, वाराणसी का सिल्क उद्योग, सहारनपुर में लकड़ी का काम, अलीगढ़ में ताले, खुर्जा में मिट्टी के बर्तन, मिर्जापुर और भदोही में कालीन का काम वगैरह। इन उद्योगों में कई कारणों से मंदी आई है। इलाहाबाद में शेरवानी परिवार के जीप फ्लैशलाइट का नाम अब सुनाई नहीं पड़ता।

उत्तर भारत के सुन्नी मुसलमान-उद्योगपतियों में हमदर्द के हकीम अब्दुल हमीद खां का नाम बेशक लिया जा सकता है। हमदर्द दवाखाना की स्थापना 1906 में हमीद अब्दुल मज़ीद ने की थी। विभाजन के बाद इस परिवार का भी विभाजन हो गया और अब्दुल हमीद के भाई हकीम मुहम्मद सईद पाकिस्तान चले गए। भारतीय रूह अफ्ज़ा के मुकाबले पाकिस्तानी रूह अफ्ज़ा भी दुनिया के बाजारों में बिकता है।

Sunday, August 14, 2022

‘वन-चाइना पॉलिसी’ से हट रहा है भारत


जून 2020 में गलवान-संघर्ष के बाद से भारत और चीन के रिश्तों में काफी कड़वाहट आ गई है। ऐसा लगता है कि भारत ताइवान और तिब्बत के सवाल पर अपनी परंपरागत नीतियों से हट रहा है। हालांकि इस आशय की कोई घोषणा नहीं की गई है, पर इशारों से लगता है कि बदलाव हो रहा है।

भारत में चीन के राजदूत सन वाइडॉन्ग ने शनिवार को एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस के दौरान उम्मीद जताई कि भारत को 'वन चाइना' पॉलिसी के प्रति अपने समर्थन को दोहराएगा। वाइडॉन्ग का ये बयान ऐसे समय आया है जब एक दिन पहले ही भारत ने स्पष्ट किया कि इस नीति पर समर्थन को दोहराने की कोई ज़रूरत नहीं है।

चीनी-उम्मीद

वाइडॉन्ग ने कहा, मेरा मानना है कि 'वन चाइना' पॉलिसी को लेकर भारत के नज़रिए में बदलाव नहीं आया है। हमें उम्मीद है कि भारत 'एक चीन सिद्धांत' के लिए समर्थन दोहरा सकता है। समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार वाइडॉन्ग ने पूर्वी लद्दाख में गतिरोध को लेकर कहा कि दोनों पक्षों को बातचीत जारी रखनी चाहिए।

इससे पहले शुक्रवार को एक मीडिया ब्रीफ़िंग में, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने 'एक-चीन' नीति का उल्लेख करने से परहेज़ किया। उन्होंने कहा कि 'प्रासंगिक' नीतियों पर भारत का रुख सबको पता है और इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।

चीन ने दावा किया है कि अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा के बाद लगभग 160 देशों ने वन-चाइना पॉलिसी के लिए अपना समर्थन दिया है। चीन, ताइवान को अपना अलग प्रांत मानता है। अतीत में भारत ने वन चाइना पॉलिसी का समर्थन किया था, लेकिन पिछले एक दशक से ज्यादा समय से सार्वजनिक रूप से या द्विपक्षीय दस्तावेज़ों में इस रुख़ को दोहराया नहीं है।

17 साल पहले

आखिरी बार भारत ने ‘वन चाइना पॉलिसी’ पर करीब 17 साल पहले 2005 में बात की थी जब अपनी भारत यात्रा के दौरान, तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, भैरों सिंह शेखावत और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की थी। उस समय भारतीय पक्ष ने तब स्वीकार किया था कि उन्होंने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र को चीन जनवादी गणराज्य के क्षेत्र के हिस्से के रूप में मान्यता दी और तिब्बतियों को भारत में चीन विरोधी राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया।

हर-घर तिरंगा, हर-मन तिरंगा


कल आज़ादी की 75 वीं वर्षगाँठ और 76वाँ स्वतंत्रता दिवस है। यह साल हम ‘आज़ादी के अमृत महोत्सव के रूप में मना रहे हैं। इस साल केंद्र सरकार ने हर-घर तिरंगा अभियान की शुरुआत भी की है। 11 से 17 अगस्त के बीच यह अभियान चलाया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22 जुलाई को इस अभियान की घोषणा की थी। इस अभियान के तहत 13 से 15 अगस्त तक घरों पर कम से कम 20 करोड़ झंडे लगाने का लक्ष्य भी है। इस कार्यक्रम को बढ़ावा देने के पीछे सरकार का जो भी इरादा रहा हो, उसपर उंगली उठाना या राजनीति का विषय बनाना समझ में नहीं आता। देश में राष्ट्र-ध्वज से जुड़े नियम अभी तक बहुत कड़े थे। उन्हें आसान बनाने और पूरे देश को एक सूत्र में बाँधने की कोशिश करने में कोई खराबी नहीं है। बहरहाल झंडे लगाएं, साथ ही राष्ट्रीय-ध्वजों की अवधारणा, अपने ध्वज के इतिहास, उससे जुड़े प्रतीकों और सबसे ज्यादा ध्वजारोहण से जुड़े नियमों को भी समझें। तभी इसकी उपादेयता है।

राष्ट्रीय-भावना

फिराक गोरखपुरी की पंक्ति है, ‘सरज़मीने हिन्द पर अक़वामे आलम के फ़िराक़/ काफ़िले बसते गए हिन्दोस्तां बनता गया।’ भारत को उसकी विविधता और विशालता में ही परिभाषित किया जा सकता है। पर चुनावी राजनीति ने हमारे सामाजिक जीवन की इस विविधता को जोड़ने के बजाय तोड़ा भी है। पिछले कुछ वर्षों से भारतीय राष्ट्र-राज्य को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। राहुल गांधी ने इस साल फरवरी में संसद में कहा कि  भारत राष्ट्र नहीं, राज्यों का संघ है। ऐसा कहने के पीछे उनकी मंशा क्या थी पता नहीं, पर इतना स्पष्ट है कि राजनीतिक कारणों से हमारे अंतर्विरोधों को खुलकर खोला जा रहा है। भारत की अवधारणा पर हमलों को भी समझने की जरूरत है। सच है कि भारत विविधताओं का देश है। आजादी के काफी पहले अंग्रेज गवर्नर जनरल सर जॉन स्ट्रेची ने कहा था, भारतवर्ष न कभी राष्ट्र था, और न है, और न उसमें यूरोपीय विचारों के अनुसार किसी प्रकार की भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक अथवा धार्मिक एकता है। यूरोप के कुछ विद्वान मानते हैं कि भारतवर्ष एक राजनीतिक नाम नहीं, एक भौगोलिक नाम है जिस प्रकार यूरोप या अफ़्रीका। इन विचारों और नजरियों को तोड़ते हुए ही भारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास हुआ, जिसका प्रतीक हमारा राष्ट्रीय-ध्वज है। अनेकता में एकता ही भारत की पहचान है, जिसे यूरोपीय-दृष्टि से समझा नहीं जा सकता।

राष्ट्रवाद का इतिहास

राष्ट्रीय-एकता को स्थापित करता है हमारा राष्ट्रीय-ध्वज। इसके विकास का लंबा इतिहास है। आपने महाभारत के युद्ध का विवरण पढ़ते समय रथों पर फहराती ध्वजाओं का विवरण भी पढ़ा होगा। देशों और राज-व्यवस्थाओं के विकास के साथ राज्य के प्रतीकों का विकास भी हुआ, जिनमें राष्ट्रीय-ध्वज सबसे महत्वपूर्ण हैं। यह ध्वज भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान विकसित, हुआ है। 1857 के पहले स्वतंत्रता-संग्राम के सेनानियों ने एक ध्वज की योजना बनाई थी। आंदोलन असमय ही समाप्त हो गया और उसके साथ ही वह योजना अधूरी रह गई।