Thursday, March 3, 2022

यूक्रेन में इतने बड़े जोखिम से क्या मिलेगा रूस को?


यूक्रेन में लड़ाई को एक हफ्ते से ज्यादा समय हो गया है। रूसी सेनाएं राजधानी कीव और खारकीव जैसे शहरों तक पहुँच चुकी हैं। पूर्व के डोनबास इलाके पर उनका पहले से कब्जा है। बावजूद इसके उसकी सफलता को लेकर कुछ सवाल खड़े हुए हैं। रूसी सेना का कूच धीमा पड़ रहा है। इन सवालों के साथ मीडिया की भूमिका भी उजागर हो रही है। पश्चिम और रूस समर्थक मीडिया की सूचनाएं एक-दूसरे से मेल नहीं खा रही हैं।

2015 में जब रूस ने सीरिया के युद्ध में प्रवेश किया, तब तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि रूस अब यहाँ दलदल में फँस कर रह जाएगा। पर ऐसा हुआ नहीं, बल्कि रूस ने राष्ट्रपति बशर अल-असद को बचा लिया। इससे रूस का रसूख बढ़ा। क्या इसबार यूक्रेन में भी वह वही करके दिखाएगा? पर्यवेक्षक मानते हैं कि रूस यदि सफल हुआ, तो यूरोप में ही नहीं दुनिया में राजनीति का एक नया दौर शुरू होगा।

अमेरिकी जाल

इस लड़ाई में रूस बड़े जोखिम उठा रहा है और अमेरिका उसे जाल में फँसाने की कोशिश कर रहा है। यूक्रेन के भीतर आकर बाहर निकलने का रास्ता उसे नहीं मिलेगा। लड़ाई की परिणति रूसी सफलता में होगी या विफलता में यह बात लड़ाई खत्म करने के लिए होने वाले समझौते से पता लगेगी। रूस यदि अपनी बात मनवाने में सफल रहा, तो आने वाला समय उसके प्रभाव-क्षेत्र के विस्तार का होगा।

सफलता या विफलता के पैमाने भी स्पष्ट नहीं हैं। अलबत्ता कुछ सवालों के जवाबों से बात साफ हो सकती है। पहला सवाल है कि रूस चाहता क्या है? किस लक्ष्य को लेकर उसने सेना भेजी है? पहले लगता था कि उसका इरादा यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की को हटाकर उनकी जगह अपने किसी आदमी को बैठाना है। ऐसा होता तो वह ज़ेलेंस्की की सरकार से बेलारूस में बातचीत क्यों करता? आज भी वहाँ बात हो रही है। जिस सरकार को हटाना ही है, उससे बातचीत क्यों?

Tuesday, March 1, 2022

‘इंडो-चायना’ कहाँ हैं?

इंडो-चायना या हिन्द-चीन प्रायद्वीप दक्षिण पूर्व एशिया का एक उप क्षेत्र है। यह इलाक़ा चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पूर्व में पड़ता है। इसके अंतर्गत कम्बोडिया, लाओस और वियतनाम को रखा जाता है, पर वृहत् अर्थ में म्यांमार, थाईलैंड, मलय प्रायद्वीप और सिंगापुर को भी इसमें शामिल किया जा सकता है। यह नाम जहाँ भौगोलिक उपस्थिति को बताता है, वहीं इस इलाके की सांस्कृतिक संरचना को भी दर्शाता है। अतीत में इस नाम का ज्यादातर इस्तेमाल इस इलाके के फ्रांसीसी उपनिवेश इंडो-चाइना (वियतनाम, कम्बोडिया और लाओस) के लिए हुआ। भारत और चीन की संस्कृतियों के प्रभाव के कारण इस इलाके का नाम हिन्द-चीन है। इस नाम का श्रेय डेनिश-फ्रेंच भूगोलवेत्ता कोनराड माल्ट-ब्रन को दिया जाता है, जिन्होंने सन 1804 में इस इलाके को इंडो-चिनॉय कहा। उनके बाद 1808 में स्कॉटिश भाषा विज्ञानी जॉन लेडेन ने इस इलाके को इंडो-चायनीस कहा।  

इस इलाके में बड़ी संख्या में चीन से आए लोग रहते हैं, पर सांस्कृतिक रूप से भारत का यहाँ जबर्दस्त प्रभाव है। प्राचीनतम संपर्क के प्रमाण म्यांमार की पहली सदी की प्‍यू बस्तियों के उत्खनन में देखे जा सकते हैं। प्‍यू वास्तुकला, सिक्कों, हिंदू देवी-देवताओं और बुद्ध की मूर्तियों और पुरालेख में देखे जा सकते हैं। अंगकोरवाट एवं ता प्रोह्म जैसे कंबोडिया के विख्यात मंदिरों के अलावा मध्‍य थाईलैंड का द्वारावती साम्राज्य छठी सदी से लेकर 13 वीं सदी फला-फूला।  

भारत का सबसे पुराना बैंक?

अठारहवीं सदी के अंतिम दशक में देश के पहले दो बैंक खुले थे। इनके नाम थे जनरल बैंक ऑफ इंडिया, जो 1786 में खुला और दूसरा बैंक था बैंक ऑफ हिन्दुस्तान जो 1790 में शुरू हुआ। दोनों बैंक बंद हो गए। देश के सक्रिय बैंकों में सबसे पुराना बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया है, जो जून 1806 में बैंक ऑफ कैलकटा के नाम से शुरू हुआ। इसका नाम बाद में बैंक ऑफ बंगाल हो गया। उस वक्त देश में इसके अलावा दो प्रेसीडेंसी बैंक और खुले जिनके नाम थे बैंक ऑफ बॉम्बे और बैंक ऑफ मद्रास। सन 1921 में तीनों बैंकों को मिलाकर इम्पीरियल बैंक ऑफ इंडिया बनाया गया। देश के स्वतंत्र होने पर इसका नाम हुआ स्टेट बैंक ऑफ इंडिया।

राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में प्रकाशित

Monday, February 28, 2022

कनाडा के ट्रक-आंदोलन से उभरे सवाल


कनाडा में करीब
हफ्ते से जारी ट्रक ड्राइवरों का विरोध प्रदर्शन खत्म हो गया है, पर यह परिघटना कनाडा के इतिहास में याद रखी जाएगी। इतिहास में दूसरी बार कनाडा में आपातकाल की घोषणा की गई। सरकार ने जो कड़े कदम उठाए, वे कनाडा की सौम्य-व्यवस्था से मेल नहीं खाते हैं। प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए पुलिस ने पेपर स्प्रे और स्टन ग्रेनेड का इस्तेमाल करके संसद के सामने के ज्यादातर हिस्से को साफ किया।

आंदोलन खत्म होने के बाद प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने आपातकाल की घोषणा को वापस ले लिया है। कनाडा के इतिहास में दूसरी बार इन शक्तियों का इस्तेमाल किया गया था। हालांकि इन शक्तियों के इस्तेमाल की पुष्टि संसद में होनी थी, पर उससे पहले ही इन्हें वापस ले लिया गया है। देश में शांति-व्यवस्था की स्थापना तो हो गई है, पर बहुत से सवाल खड़े हैं, जिनके जवाबों का इंतजार है।

यह आंदोलन केवल कनाडा के लिए ही नहीं अमेरिका समेत पश्चिमी-लोकतंत्र के लिए एक नज़ीर बनेगा। हजारों की भीड़ ने कनाडा की राजधानी पर धावा बोला और मुख्य-मार्गों को अवरुद्ध कर दिया। ट्रक यातायात में गिरावट ने फलों, सब्ज़ियों, ग्रोसरी और अन्य जरूरी वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ा दीं, जिससे व्यापक अशांति फैल गई है। ख़ासतौर पर अमेरिका और कनाडा के बीच कार और ट्रक-कंपनियों का काम बुरी तरह प्रभावित हुआ।

अराजकता का अनुभव

इस किस्म की अराजकता पश्चिम के अनुशासित जीवन में नए किस्म का अनुभव है। एक तरफ नाराज ड्राइवर थे और दूसरी तरफ इस आंदोलन से नाराज नागरिक। कनाडा के लोग देश के राजनीतिक भविष्य के बारे में सवाल कर रहे हैं। कुछ पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह आंदोलन भारत के किसान-आंदोलन से प्रेरित था। पर पश्चिमी सरकारों ने इस आंदोलन की भर्त्सना की और इसके दमन का समर्थन। अमेरिका और यूरोप में भी वैक्सीन की अनिवार्यता और कोविड-19 प्रतिबंधों के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं।

पिछले एक दशक में अमेरिका और यूरोप में इस प्रकार के जनांदोलन बढ़ते जा रहे हैं। क्या यह सिर्फ फौरी-उफान था या पश्चिमी-व्यवस्था के तख़्तापलट की भूमिका?  देश के राजनीतिक परिदृश्य में कहीं बुनियादी बदलाव की शुरुआत तो नहीं है? ऑक्यूपाई वॉलस्ट्रीट से लेकर पेरिस के पीली-कुर्ती आंदोलन तक सोशल मीडिया एक प्रेरक शक्ति रहा है। क्या यह एक नए युग की शुरुआत है? क्या यह एक बड़े राजनीतिक-विभाजन की शुरुआत है?

Sunday, February 27, 2022

यूक्रेन-प्रसंग पर भारत और चीन के नजरियों की समानता और उनके फर्क

 


यूक्रेन पर रूसी हमले पर भारत और चीन की प्रतिक्रियाओं पर पर्यवेक्षकों ने खासतौर से ध्यान दिया है। दोनों देशों के साथ रूस के मैत्रीपूर्ण संबंध हैं। दोनों ने ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस-विरोधी प्रस्ताव पर मतदान में भाग लेना उचित नहीं समझा। मतदान में यूएई की अनुपस्थिति भी ध्यान खींचती है, जबकि उसे अमेरिकी खेमे का देश माना जाता है। तीनों के अलग-अलग कारण हैं, पर तीनों ही रूस को सीधे दोषी मानने को तैयार नहीं हैं। दूसरी तरफ चीन जिसे रूस का निकटतम मित्र माना जा रहा है, उसने रूसी हमले का खुलकर समर्थन भी नहीं किया है। प्रकारांतर से भारत ने भी इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण माना है।

भारत ने जहाँ साफ शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया लिखित रूप में व्यक्त की है, वहीं चीनी प्रतिक्रिया अव्यवस्थित रही है। उसने जहाँ वैश्विक मंच पर रूस का सीधा विरोध नहीं किया, वहीं अपने नागरिकों को जो सफाई दी है, उसमें रूस से उस हद तक हमदर्दी नजर नहीं आती है। चीन अपनी विदेश-नीति में एकसाथ तीन उद्देश्यों को पूरा करना चाहता है। एक, रूस के साथ दीर्घकालीन नीतिगत दोस्ती, दूसरे देशों की क्षेत्रीय-अखंडता का समर्थन और तीसरे किसी सम्प्रभुता सम्पन्न देश में हस्तक्षेप नहीं करने की नीति।

गत 24 फरवरी को यूक्रेन पर हुए हमले के बाद चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने 25 को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ टेलीफोन पर बात की, जिसमें उन्होंने यूक्रेन पर हमले शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि पूर्वी यूक्रेन की स्थिति में नाटकीय परिवर्तन कहा। साथ ही इच्छा व्यक्त की कि यूक्रेन और रूस आपसी बातचीत से समझौता करें। उन्होंने सभी देशों की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने की परंपरागत चीनी नीति का उल्लेख भी किया। दूसरी तरफ चीनी मीडिया ने इसे रूस का विशेष मिलिट्री ऑपरेशन नाम दिया। चीनी मीडिया ने यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की के बयानों को उधृत किया और यूक्रेन में होते विस्फोटों के चित्र भी दिखाए। दूसरी तरफ रूस के सरकारी मीडिया ने यूक्रेन के नागरिक जीवन को शांतिपूर्ण बताया और सड़कों पर जन-जीवन शांतिपूर्ण और व्यवस्थित बताया। कम से कम मीडिया के मामले में रूसी और चीनी-दृष्टिकोण एक जैसे नहीं हैं।

चीन ने रूसी हस्तक्षेप की निन्दा नहीं की है, पर दूसरी तरफ यह भी कहा है कि रूस के विरुद्ध लगाए गए प्रतिबंध बेकार हैं और इस लड़ाई के लिए पश्चिमी देश जिम्मेदार हैं, जिन्होंने नेटो का विस्तार करके रूस को इस हद तक दबा दिया था कि उसे पलटवार करना पड़ा। चीन के सोशल मीडिया पर चीन के एक वरिष्ठ संपादक ने इस बात को साफ कहा।

उधर भारत ने इस स्थिति को दुर्भाग्यपूर्ण जरूर बताया, पर किसी पक्ष की निंदा नहीं की, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने व्लादिमीर पुतिन के साथ फोन पर हुए संवाद में बातचीत से मामले को सुलझाने का सुझाव दिया। भारत ने ज्यादातर खुद को रूस के खिलाफ मतदान से अलग रखा है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि हम केवल अपनी स्वतंत्र विदेश-नीति और राष्ट्रहित को रेखांकित करना चाहते हैं। अतीत में भी भारत ने मध्य-यूरोप की सुरक्षा-व्यवस्था में सोवियत संघ का समर्थन किया था। 1956 में हंगरी में और 1968 में चेकोस्लोवाकिया में सोवियत सेनाओं के हस्तक्षेप का भारत ने विरोध नहीं किया था। 1980 में अफगानिस्तान में सोवियत सेना के प्रवेश का भी भारत ने विरोध नहीं किया था। 

यूक्रेन में फौजी ताकत का खेल


यूक्रेन पर रूस का धावा अब उतनी महत्वपूर्ण बात नहीं है, बल्कि उसके बाद उभरे सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अब क्या होगा? राजनीतिक फैसले क्या अब ताकत के जोर पर होंगे? कहाँ है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद?  पश्चिमी देशों ने यूक्रेन को पिटने क्यों दिया?  पिछले अगस्त में अफगानिस्तान में तालिबानी विजय के बाद अमेरिकी शान पर यह दूसरा हमला है। हमले की निंदा करने की सुरक्षा परिषद की कोशिश को रूस ने वीटो कर दिया। क्या यह क्षण अमेरिका के क्षय और रूस के पुनरोदय का संकेत दे रहा है? क्या वह चीन के साथ मिलकर अमेरिका की हैसियत को कमतर कर देगा? भारत ने साफ तौर पर हमले की निंदा करने से इनकार कर दिया है। अमेरिका से बढ़ती दोस्ती के दौर में क्या यह रुख सही है? क्या अब हमें अमेरिका के आक्रामक रुख का सामना करना होगा? हमने हमले का विरोध भले ही नहीं किया है, पर शांति स्थापित करने और रूसी सेनाओं की वापसी के लिए हमें प्रयास करने होंगे। सैनिक-शक्ति से किसी राजनीतिक-समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है।

ताकत के जोर पर

रूस ने इस बात को स्थापित किया है कि ताकत और हिम्मत है, तो इज्जत भी मिलती है। अमेरिका ने इराक, अफगानिस्तान, सीरिया और लीबिया जैसे तमाम देशों में क्या ऐसा ही नहीं किया? बहरहाल अब देखना होगा कि रूस का इरादा क्या है?  शायद उसका लक्ष्य यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को हटाकर उनके स्थान पर अपने समर्थक को बैठाना है। दूसरी तरफ पश्चिमी देश यूक्रेनी नागरिकों को हथियार दे रहे हैं, ताकि वे छापामार लड़ाई जारी रखें। बेशक वे प्रतिरोध कर रहे हैं और जो खबरें मिल रही हैं, उनसे लगता है कि रूस के लिए इस लड़ाई को निर्णायक रूप से जीत पाना आसान नहीं होगा।

राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की देश में मौजूद हैं और उनकी सेना आगे बढ़ती रूसी सेना के शरीर में घाव लगा रही है। बहरहाल आगे की राह सबके लिए मुश्किल है। रूस, यूक्रेन तथा पश्चिमी देशों के लिए भी। अमेरिका और यूरोप के देश सीधे सैनिक हस्तक्षेप करना नहीं चाहते और लड़ाई के बगैर रूस को परास्त करना चाहते हैं। फिलहाल वे आर्थिक-प्रतिबंधों का सहारा ले रहे हैं। यह भी सच है कि उनके सैनिक हस्तक्षेप से लड़ाई बड़ी हो जाती।

रूसी इरादा

इस हफ्ते जब रूस ने पूर्वी यूक्रेन में अलगाववादियों के नियंत्रण वाले लुहांस्क और दोनेत्स्क को स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में मान्यता दी और फिर सेना भेजी, तभी समझ में आ गया था कि वह सैनिक कार्रवाई करेगा। पहले लगता था कि वह इस डोनबास क्षेत्र पर नियंत्रण चाहता है, जो काफी हद तक यूक्रेन के नियंत्रण से मुक्त है। अब लगता है कि वह पूरे यूक्रेन को जीतेगा। फौजी विजय संभव है, पर उसे लम्बे समय तक निभा पाना आसान नहीं। यूक्रेन के कुछ हिस्से को छोड़ दें, जहाँ रूसी भाषी लोग रहते हैं, मुख्य भूमि पर दिक्कत है। यह बात 2014 में साबित हो चुकी है, जब वहाँ रूस समर्थक सरकार थी। उस वक्त राजधानी कीव में बगावत हुई और तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को भागकर रूस जाना पड़ा। उसी दौरान रूस ने क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा किया, जो आज तक बना हुआ है।