पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम विधानसभा सीट पर सबकी निगाहें हैं। यहाँ से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का मुकाबला उनसे बगावत करके भारतीय जनता पार्टी में आए शुभेंदु अधिकारी से है। इस क्षेत्र का मतदान 1 अप्रेल को यानी दूसरे दौर में होना है। शुरुआती दौर में ही राज्य की राजनीति पूरे उरूज पर है। एक तरफ बंगाल की राजनीति में तृणमूल कांग्रेस को छोड़कर भागने की होड़ लगी हुई है, वहीं मीडिया के चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों में अब भी ममता बनर्जी की सरकार बनने की आशा व्यक्त की गई है। शायद यह उनकी यथास्थितिवादी समझ है। चुनाव कार्यक्रम को पूरा होने में करीब डेढ़ महीने का समय बाकी है, इसलिए इन सर्वेक्षणों के बदलते निष्कर्षों पर नजर रखने की जरूरत भी होगी।
भारत में
चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों का इतिहास अच्छा नहीं रहा है। आमतौर पर उनके निष्कर्ष
भटके हुए होते हैं। फिर ममता बनर्जी की पराजय की घोषणा करने के लिए साहस और
आत्मविश्वास भी चाहिए। बंगाल का मीडिया लम्बे अर्से से उनके प्रभाव में रहा है।
बंगाल के ही एक मीडिया हाउस से जुड़ा एक राष्ट्रीय चैनल इस बात की घोषणा कर रहा
है, तो विस्मय भी नहीं होना चाहिए। अलबत्ता तृणमूल के भीतर जैसी भगदड़ है, उसपर ध्यान
देने की जरूरत है। मीडिया के विश्लेषण 27 मार्च को मतदान के पहले दौर के बाद
ज्यादा ठोस जमीन पर होंगे। पर 29 अप्रैल के मतदान के बाद जो एक्ज़िट पोल आएंगे,
सम्भव है उनमें कहानी बदली हुई हो।
भगदड़ का माहौल
सन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से टीएमसी के 17 विधायक, एक सांसद कांग्रेस, सीपीएम और सीपीआई के एक-एक विधायक अपनी पार्टी छोड़कर बीजेपी में शामिल हो चुके हैं। यह संख्या लगातार बदल रही है। हाल में मालदा के हबीबपुर से तृणमूल कांग्रेस की प्रत्याशी सरला मुर्मू ने टिकट मिलने के बावजूद तृणमूल छोड़ दी और सोमवार 8 मार्च को भाजपा में शामिल हो गईं। बंगाल में यह पहला मौका है, जब किसी प्रत्याशी ने टिकट मिलने के बावजूद अपनी पार्टी छोड़ी है। बात केवल बड़े नेताओं की नहीं, छोटे कार्यकर्ताओं की है। केवल तृणमूल के कार्यकर्ता ही नहीं सीपीएम के कार्यकर्ता भी अपनी पार्टी को छोड़कर भागे हैं। इसकी वजह पिछले दस वर्षों से व्याप्त राजनीतिक हिंसा है।