Wednesday, September 2, 2020

युवा-शक्ति के लिए शुभ संदेश

 

बदलाव को जन्म देगी भरती की नई प्रक्रिया 

केंद्र सरकार ने नौकरियों में भरती की जिस नई प्रवेश परीक्षा और प्रक्रिया की योजना पेश की है, उसके भीतर दूरगामी संभावनाएं छिपी हुई हैं। यह एक प्रकार की सामाजिक क्रांति को जन्म दे सकती है, बशर्ते इसे सावधानी से लागू किया जाए। यह प्रक्रिया ग्रामीण क्षेत्र के युवकों को मुख्यधारा में आने का मौका देगी, लड़कियों को महत्वपूर्ण सरकारी सेवाओं से जोड़ेगी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से सरकारी सेवाओं में आने के इच्छुक नौजवानों को आगे आने का अवसर देगी। इन सब बातों के अलावा प्रत्याशियों और सेवायोजकों दोनों के समय और साधनों का अपव्यय भी रुकेगा।

केंद्र सरकार ने गत 19 अगस्त को फैसला किया है कि सरकारी क्षेत्र की तमाम नौकरियों में प्रवेश के लिए एक राष्ट्रीय भरती एजेंसी का गठन किया जाएगा। इस आशय की जानकारियाँ प्रधानमंत्री कार्यालय से सम्बद्ध तथा कार्मिक, सार्वजनिक शिकायतों और पेंशन विभागों के राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने दी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने केंद्र सरकार की नौकरियों की भरती में परिवर्तनकारी सुधार लाने हेतु राष्ट्रीय भरती एजेंसी (नेशनल रिक्रूटमेंट एजेंसी-एनआरए) के गठन को मंज़ूरी दे दी है।

क्या है यह परीक्षा? 

जिस तरह इंजीनियरी, चिकित्सकीय तथा प्रबंधन की कक्षाओं में प्रवेश के लिए समान अर्हता टेस्ट (कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट-सीईटी) होते हैं, उसी तरह नौकरियों की भरती के लिए बुनियादी स्तर पर एक परीक्षा (सीईटी) होगी। उस परीक्षा में व्यक्ति को प्राप्त रैंकिंग के आधार पर विभिन्न विभागों तथा संस्थानों में नौकरी दी जा सकेगी। सार्वजनिक उपक्रम भी इस परीक्षा के स्कोर के आधार पर चयन कर सकेंगे और यदि निजी क्षेत्र के नियोजक चाहेंगे, तो वे भी इसका इस्तेमाल कर सकेंगे।

Tuesday, September 1, 2020

राजनेता नहीं, श्रेष्ठ राजपुरुष


प्रणब मुखर्जी के बारे में निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद वे देश के सर्वश्रेष्ठ राजपुरुषों (स्टेट्समैन) में एक थे। विलक्षण राजनेता, योग्य प्रशासक, संविधान के ज्ञाता और श्रेष्ठ अध्येता के रूप में उनकी गिनती की जाएगी। उनका कद किसी भी राजनेता से ज्यादा बड़ा था, और उन्होंने बार-बार इस बात को रेखांकित किया कि राजनीति को संकीर्ण दायरे के बाहर निकल कर आना चाहिए।

बेशक उन्हें वह नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे। व्यावहारिक राजनीति और सांविधानिक मर्यादाओं का उच्चतम समन्वय उनके व्यक्तित्व में देखा जा सकता है। विसंगतियों से मेल बैठाना व्यवहारिक राजनीति है। प्रणब मुखर्जी को इस बात का श्रेय मिलना ही चाहिए कि वे राजनीतिक दृष्टि में सबसे विकट वक्त के राष्ट्रपति बने। वे बुनियादी तौर पर कांग्रेसी थे, पर कांग्रेस की कठोरतम प्रतिस्पर्धी बीजेपी की मोदी सरकार के साथ उन्होंने काम किया और टकराव की नौबत कभी नहीं आने दी।

देश ने उन्हें राष्ट्रपति बनाया और भारत रत्न से सम्मानित भी किया, पर वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, जिसके वे अधिकारी थे। सामान्य परिस्थितियाँ होती, तो शायद सन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ही उन्हें देश की बागडोर मिल जाती, पर कांग्रेस पार्टी ‘परिवार’ को अपनी नियति मान चुकी थी। उस वक्त उन्हें न केवल एक संभावना से वंचित रहना पड़ा हाशिए पर जाना पड़ा और कुछ समय के लिए पार्टी से बाहर भी रहे। सन 1991 में राजीव गांधी के निधन के बाद भी वे इस पद को पाने में वंचित रहे। तीसरा मौका सन 2004 में आया, जब परिवार से बाहर के व्यक्ति को यह पद मिला। तब भी उन्हें वंचित रहना पड़ा।

Monday, August 31, 2020

क्या अब कोरोना के अंत का प्रारम्भ है?


विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि कोरोनावायरस महामारी 1918 के स्पेनिश फ्लू की तुलना में कम समय तक रहेगी। संगठन के प्रमुख टेड्रॉस गैब्रेसस ने गत 21 अगस्त को कहा कि यह महामारी दो साल से कम समय में  खत्म हो सकती है। इसके लिए दुनियाभर के देशों के एकजुट होने और एक सर्वमान्य वैक्सीन बनाने में सफल होने की जरूरत है। जो संकेत मिल रहे हैं उनके अनुसार जो पाँच छह उल्लेखनीय वैक्सीन परीक्षणों के अंतिम दौर से गुजर रही हैं, उनमें से दो-तीन जरूर सफल साबित होंगी। कहना मुश्किल है कि सारी दुनिया को स्वीकार्य वैक्सीन कौन सी होगी, पर डब्लूएचओ के प्रमुख का बयान हौसला बढ़ाने वाला है।

इतिहास लिखने वाले कहते हैं कि महामारियों के अंत दो तरह के होते हैं। एक, चिकित्सकीय अंत। जब चिकित्सक मान लेते हैं कि बीमारी गई। और दूसरा सामाजिक अंत। जब समाज के मन से बीमारी का डर खत्म हो जाता है। कोविड-19 का इन दोनों में से कोई अंत अभी नहीं हुआ है, पर समाज के मन से उसका भय कम जरूर होता जा रहा है। यानी कि ऐसी उम्मीदें बढ़ती जा रही हैं कि इसका अंत अब जल्द होगा। डब्लूएचओ का यह बयान इस लिहाज से उत्साहवर्धक है।

Sunday, August 30, 2020

नहीं बदलेगी कांग्रेस


पिछले दो-तीन हफ्ते के घटनाक्रम से लगता है कि कांग्रेस पार्टी के भीतर गम्भीर अंतर्मंथन चल रहा है। यह अंतर्मंथन सायास नहीं है। पार्टी हाल में राजस्थान के संकट से बाहर आई है। राजस्थान में कांग्रेस को विजयी मानें भी, तो यह भी मानना होगा कि सचिन पायलट के रूप में एक रुष्ट युवा राजनेता पार्टी के भीतर बैठा है। ऐसे नाराज नेताओं की संख्या बढ़ती जा रही है। 23 वरिष्ठ नेताओं का पत्र भी यही बता रहा है। इनमें से कुछ और ज्यादा नाराज होंगे और कुछ अपनी नाराजगी को छोड़कर जैकारा लगाने लगेंगे। इधर कपिल सिब्बल ने कहा है कि हमने क्या गलत बात की? हम एक प्रक्रिया की बात कर रहे हैं। बीजेपी पर हम आरोप लगाते हैं कि वह संविधान का पालन नहीं करती है। पर हम क्या करते हैं? हमने जो बातें कहीं, उनका जवाब नहीं दिया गया, बल्कि हमारी आलोचना की गई और किसी ने हमारे पक्ष में नहीं बोला।  

अब सवाल तीन हैं। क्या कांग्रेस सन 1969 के आसपास के दौर में आ गई है, जब पार्टी के भीतर दो साफ धड़े बन गए थे? क्या यह दौर भी गांधी परिवार के पक्ष में गया है? तीसरा सवाल है कि यदि धड़ेबाज़ी चलने वाली नहीं है और पार्टी एक ही रहेगी, तो वर्तमान असंतोष की तार्किक परिणति क्या है?  कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी की बीजेपी का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस के पास अब क्या बचा है? उसे कौन बचाने वाला है?

Friday, August 28, 2020

केवल अभिनय

बर्लिन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह यानी बर्लिनेल ने फैसला किया है कि अगले साल के संस्करण के अभिनय वर्ग के इसके पुरस्कार लिंग-निरपेक्ष होंगे। यानी महिला और पुरुष वर्ग के अलग-अलग पुरस्कार नहीं होंगे। सर्वश्रेष्ठ लीड अभिनय का एक पुरस्कार होगा। भले ही वह महिला को मिले या पुरुष को। इसी तरह सहायक अभिनय का पुरस्कार भी होगा। ये दोनों पुरस्कार अभी तक लिंग-सापेक्ष थे। यह घोषणा लैंगिक समानता के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है। अभिनय को महिला और पुरुष वर्ग में बाँटने की प्रवृत्ति खत्म होगी, तो हम लैंगिक संवेदनशीलता के दूसरे महत्वपूर्ण सवालों की तरफ देख पाएंगे।

बर्लिनेल दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म समारोह माना जाता है और सबसे प्रगतिशील भी। जीवन के दूसरे क्षेत्रों की तरह संस्कृति में भी विभाजन या वर्गीकरण के साथ कई किस्म की असमानताएं शुरू होती हैं। यों एक दृष्टि यह भी है कि हाशिए के वर्गों के लिए अलग पुरस्कारों का वर्ग भी होना चाहिए। मसलन वैश्विक स्तर पर अश्वेत फिल्मकारों के अलग पुरस्कार वगैरह, पर अंततः हमें लैंगिक-सापेक्षता को छोड़ना चाहिए। आखिरकार महाश्वेता देवी, निर्मल वर्मा, केदारनाथ सिंह और कृष्णा सोबती को उनके लेखन के आधार पर ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। पुरुष लेखक या महिला लेखक के रूप में नहीं। पत्रकारिता के पुलिट्जर पुरस्कार लिंग-निरपेक्ष होते हैं। अच्छे रिपोर्टर या फोटोग्राफर का फैसला लैंगिक आधार पर करने से गुणात्मक पैमाने बदल जाते हैं। इस लिहाज से यह अच्छा फैसला है।