नए साल की शुरुआत
बड़ी विस्फोटक हुई है। अमेरिका में यह राष्ट्रपति-चुनाव का साल है। देश की सीनेट
को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध लाए गए महाभियोग पर फैसला करना है। अमेरिका
और चीन के बीच एक नए आंशिक व्यापार समझौते पर इस महीने की 15 तारीख को दस्तखत होने
वाले हैं। बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए ट्रंप इसके बाद चीन की यात्रा भी करेंगे। ब्रिटिश
संसद को ब्रेक्जिट से जुड़ा बड़ा फैसला करना है। अचानक पश्चिम एशिया में युद्ध के
बादल छाते नजर आ रहे हैं। इन सभी मामलों का असर भारतीय विदेश-नीति पर पड़ेगा। हम ‘क्रॉसफायरिंग’ के बीच में हैं। पश्चिमी पड़ोसी
के साथ हमारे रिश्ते तनावपूर्ण हैं, जिसमें पश्चिम एशिया में होने वाले हरेक घटनाक्रम
की भूमिका होती है। संयोग से इन दिनों इस्लामिक देशों के आपसी रिश्तों पर भी बदलाव
के बादल घिर रहे हैं।
Monday, January 13, 2020
Sunday, January 12, 2020
जेएनयू की हिंसा से उठते सवाल
जवाहर लाल नेहरू
यूनिवर्सिटी कैंपस में हुई हिंसा के मामले में दिल्ली पुलिस ने जो जानकारियाँ दी
हैं, उन्हें देखते हुए किसी को भी देश की शिक्षा-व्यवस्था की दुर्दशा पर अफसोस
होगा। जरूरी नहीं कि पुलिस की कहानी पर यकीन किया जाए, पर हिंसा में शामिल पक्षों की कहानियों के आधार पर भी कोई धारणा नहीं बनाई जानी चाहिए। लम्बे अरसे से लगातार होते राजनीतिकरण के कारण भारतीय शिक्षा-प्रणाली
वैश्विक मीडिया के लिए उपहास का विषय बन गई है। सन 1997 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में हुई हिंसा का भी दुनिया के मीडिया
ने इसी तरह उपहास उड़ाया था। सन 1973 में लखनऊ विवि के छात्र आंदोलन के दौरान ही
पीएसी का विद्रोह हुआ था। हालांकि तब न तो आज का जैसा मीडिया था और राजनीतिक स्तर
पर इतनी गलाकाट प्रतियोगिता थी, जैसी आज है। आज जो हो रहा है वह राजनीतिक
विचार-वैषम्य नहीं अराजकता है।
विश्वविद्यालय
अध्ययन के केंद्र होते हैं। बेशक छात्रों के सामने देश और समाज के सारे सवाल होते
हैं। उनकी सामाजिक जागरूकता की भी जरूरत है, पर यह कैसी जागरूकता है? यह कहानी केवल जेएनयू की ही नहीं है। देश के
दूसरे विश्वविद्यालयों से भी जो खबरें आ रही हैं, उनसे संकेत मिलता है कि छात्रों
के बीच राजनीति की गहरी पैठ हो गई है। छात्र-नेता जल्द से जल्द राष्ट्रीय स्तर पर
ख्याति अर्जित करना चाहते हैं। जेएनयू के पूर्व
छात्रों में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हैं, लीबिया और नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री हैं। तमाम बड़े नेता, राजनयिक, कलाकार और समाजशास्त्री
हैं। यह विवि भारत की सर्वोच्च रैंकिंग वाले संस्थानों में से एक है। आज भी यहाँ
आला दर्जे का शोध चल रहा है, पर हालात ऐसे ही रहे तो क्या इसकी यह तारीफ शेष रहेगी?
Thursday, January 9, 2020
निर्भया-प्रसंग ने हमारे सामाजिक दोषों को उघाड़ा
निर्भया दुष्कर्म
मामले के दोषियों को फाँसी पर लटकाने का दिन और वक्त तय हो गया है. दिल्ली के
पटियाला हाउस कोर्ट ने चारों दोषियों के डैथ वारंट जारी कर दिए हैं. आगामी 22 जनवरी की सुबह 7 बजे उन्हें तिहाड़ जेल
में फांसी के फंदे पर लटकाया जाएगा. गणतंत्र दिवस के ठीक पहले होने वाली इस
परिघटना का संदेश क्या है? इसके बाद अब क्या? क्या यह हमारी न्याय-व्यवस्था की विजय है? या जनमत के दबाव में किया गया फैसला है? कहना मुश्किल है कि उपरोक्त तिथि को फाँसी होगी या नहीं.
ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि इस समस्या के मूल में क्या बात है? यह सामान्य अपराध का मामला नहीं है, बल्कि उससे ज्यादा कुछ और है.
इस मामले में
अभियुक्तों के पास अभी कुछ रास्ते बचे हैं. कानून विशेषज्ञ मानते हैं कि वे डैथ
वारंट के खिलाफ अपील कर सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट में उपचार याचिका दायर कर सकते
हैं और राष्ट्रपति के सामने दया याचिका पेश कर सकते हैं. अभियुक्तों के वकील का
कहना है कि मीडिया और राजनीति के दबाव के कारण सजा देने की प्रक्रिया में तेजी लाई
जा रही है.
Tuesday, January 7, 2020
देश के भव्य रूपांतरण की महत्वाकांक्षी परियोजना
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में आधारभूत संरचना पर 100 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की बात कही थी. इसके बाद एक
कार्यबल बनाया गया था, जिसने 102 लाख करोड़ की परियोजनाओं की पहचान की है. नए
साल पर अब केंद्र सरकार ने अब इंफ्रास्ट्रक्चर विकास की इस महत्वाकांक्षी परियोजना
की घोषणा की है. यह परियोजना न केवल देश की शक्ल बदलेगी, बल्कि सुस्त पड़ती
अर्थव्यवस्था को गति भी प्रदान करेगी. मंगलवार को वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने
नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) की घोषणा की, जिसके तहत अगले पांच साल
में 102 लाख करोड़ रुपये की परियोजनाओं को पूरा किया
जाएगा.
ये परियोजनाएं
ऊर्जा, सड़क, रेलवे और नगरों से जुड़े
इंफ्रास्ट्रक्चर की हैं. इनमें से 42 फीसदी परियोजनाओं पर
पहले से ही काम चल रहा है, 19 फीसदी विकास की स्थिति
में और 31 फीसदी अवधारणा तैयार करने के स्टेज पर हैं.
अच्छी बात यह है कि एनआईपी टास्क फोर्स ने एक-एक परियोजना की संभाव्यता जाँच की है
और राज्यों के साथ उनपर विचार किया है. इस प्रकार एनआईपी अब भविष्य की एक खिड़की
के रूप में काम करेगी, जहाँ से हम अपने
इंफ्रास्ट्रक्चर विकास पर नजर रख सकेंगे. समय-समय पर इसकी समीक्षा होती रहेगी, जिससे हम इसकी प्रगति या इसके सामने खड़ी दिक्कतों को देख
पाएंगे. यानी कि यह केवल परियोजनाओं की सूची मात्र नहीं है, बल्कि उनकी प्रगति का सूचकांक भी है.
Monday, January 6, 2020
यह साल कांग्रेस को मौके देगा
पिछले साल लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की भारी पराजय और उसके
बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में मिली आंशिक सफलता दो तरह के संदेश दे रही
है। पराजय के बावजूद उसके पास वापसी का विकल्प भी मौजूद है। सन 2014 के बाद से कई
बार कहा जा रहा है कि कांग्रेस फीनिक्स पक्षी की भांति फिर से जीवित होकर बाहर
निकलेगी। सवाल है कि कब और कैसे?
देश के पाँच राज्यों में कांग्रेस के मुख्यमंत्री हैं और दो
में वह गठबंधन में शामिल है। चिंता की बात यह है कि वह उत्तर प्रदेश, बिहार,
तमिलनाडु, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पूर्वोत्तर के
राज्यों में उसकी उपस्थिति कमजोर है। इस साल बिहार, दिल्ली और तमिलनाडु में चुनाव
होने वाले हैं। इन तीनों राज्यों में अपनी स्थिति को सुधारने का उसके पास मौका है।
बिहार और तमिलनाडु में उसके प्रमुख गठबंधन सहयोगी काफी हद तक तय हैं। क्या दिल्ली
में वह आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन करेगी? ‘आप’ भी क्या अब उसके साथ गठबंधन के लिए तैयार होगी?
पर ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि पार्टी के नेतृत्व का स्वरूप
क्या बनेगा? सोनिया गांधी अस्थायी रूप
से कार्यकारी अध्यक्ष का काम कर रहीं हैं, पर पार्टी को उनके आगे के बारे में
सोचना है। क्या इस साल कोई स्थायी व्यवस्था सामने आएगी? पार्टी की
अस्तित्व रक्षा के लिए यह सबसे बड़ा सवाल है। पिछले साल 26 मई को जब राहुल गांधी
ने अध्यक्ष पद से इस्तीफे की घोषणा की थी, तो काफी समय तक पार्टी ने इस खबर को
बाहर आने ही नहीं दिया। यह बात नेतृत्व को लेकर उसकी संवेदनशीलता और असुरक्षा को
रेखांकित करती है।
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