Tuesday, December 3, 2019

सिर्फ कानून बनाने से नहीं रुकेंगे बलात्कार


जिस तरह दिसम्बर 2012 में दिल्ली में हुई बलात्कार की एक घटना के बाद देशभर में नाराजगी का माहौल बना था, करीब-करीब उसी तरह हैदराबाद में हुई घटना को लेकर देशभर में नाराजगी है. सोमवार को संसद के दोनों सदनों में यह मामला उठा और सांसदों ने अपनी नाराजगी का इज़हार किया. इस चर्चा के बीच राज्यसभा में  जया बच्चन की बातों ने ध्यान खींचा है. उन्होंने कहा, आरोपियों को पब्लिक के हवाले कर दो. ऐसे लोगों को सार्वजनिक तौर पर लिंच कर देना चाहिए. उन्हें खुलेआम मौत की सजा दी जाए. उनके स्वरों में जो नाराजगी है, वह हमें खतरनाक निष्कर्षों की ओर ले जा रही है. क्या हमारी सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्थाएं फेल हो चुकी हैं, जो ऐसी बात उन्हें कहनी पड़ी?
इस घटना के बाद हैदराबाद से ताल्लुक रखने वाली बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा ने एक लेख में कहा कि इस अमानवीय घटना के लिए सरकार अथवा राजनैतिक दलों को दोष देने के बजाय संपूर्ण भारतीय समाज को दोषी ठहराना चाहिए. जल्द ही आप लोगों को सड़क पर विरोध करते हुए और कैंडल मार्च निकालते देखेंगे. लेकिन उसके बाद क्या? क्या ऐसी घटनाएं होनी बंद हो जाएंगी? ऐसा इसलिए है क्योंकि एक समाज के रूप में हम इस तरह की घटनाओं के मूल कारणों को दूर करने की कभी चेष्टा नहीं करते. हम सदैव सरकार, न्यायपालिका और पुलिस को दोषी मानते हैं, लेकिन मैं इस सब के लिए सामूहिक रूप से सबको दोषी ठहराती हूं.
ज्वाला गुट्टा ने अपने लेख में अपने डेनमार्क के अनुभव का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा, जब मैं 2005 में प्रशिक्षण के लिए वहां गई, तो मैंने पब्लिक ट्रांसपोर्ट) का इस्तेमाल किया. शुरू मे मैं थोड़ा आशंकित थी. आरहूस मेरे लिए एक अनजान शहर था. मेरे कोच ने मुझसे कहा, ‘ज्वाला, यह अपराध-मुक्त शहर है.’ मैंने पहले ऐसा कभी नहीं सुना था. इसके बाद मैंने इस बारे में पढ़ना शुरू किया कि आख़िर एक देश कैसे पूरी तरह अपराध रहित बनता है. यह पूरे समाज की शिक्षा और समझदारी पर निर्भर करता है.
सोमवार को इस मसले पर हुए विमर्श में शामिल होते हुए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा, ‘ऐसी घटनाएं हमें चिंतित करती है. संसद हमेशा ऐसी घटनाओं पर चिंतित रही है. हम सब भी मां-बेटी के साथ हो रहे ऐसे अपराध की निंदा करते हैं…इसके लिए अगर हमें नए कानून भी बनाने पड़े तो पूरा सदन इसके लिए तैयार है.’ रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, ‘हम कानून बनाने के लिए भी तैयार हैं.’ उधर राज्यसभा में कांग्रेस सांसद गुलाम नबी आजाद ने कहा कि यह समस्या सिर्फ कानून बनाकर हल नहीं की जा सकती है. सभापति एम वेंकैया नायडू ने कहा कि हमने कई कानून बना लिए हैं लेकिन इससे कोई फायदा होता दिख नहीं रहा है. इसके लिए कुछ और करने की जरूरत है.
ऐसा कुछ और क्या है, जो हम कर नहीं पा रहे हैं? इसका जवाब मॉब लिंचिंग नहीं है, बल्कि उस शिक्षा और संस्कारों की जरूरत है, जिससे हम विमुख हैं. स्त्रियों को मनुष्य न समझने की मनोवृत्ति है. यह जब बलात्कार के रूप में सामने आती है, तो भयावह लगती है, पर जब स्त्री भ्रूण हत्या के रूप में उभरती है, तो हम उसकी अनदेखी कर देते हैं. लड़कों में मन में छुटपन से ही लड़कियों के प्रति आदर का भाव पैदा करना परिवारों का काम है. जैसे-जैसे स्त्रियों की भूमिका जीवन और समाज में बढ़ रही है, उसके समांतर सामाजिक-सांस्कृतिक समझ विकसित नहीं हो रही है. पुरुषों के बड़े हिस्से का दिमाग जानवरों जैसा है. पर बलात्कारियों को फाँसी देने या बधिया करने से भी अपराध खत्म नहीं होंगे.
पहला काम तो स्त्रियों को सबल बनाने का है. दिल्ली रेप कांड के बाद स्त्री-चेतना में विस्मयकारी बदलाव हुआ था. लम्बे अरसे से छिपा उनका गुस्सा एकबारगी सामने आया. उस आंदोलन से बड़ा बदलाव भले नहीं हुआ, पर सामाजिक जीवन में एक नया नैरेटिव तैयार हुआ. हम कितने भी आगे बढ़ गए हों, हमारी स्त्रियाँ पश्चिमी स्त्रियों की तुलना में कमज़ोर हैं. व्यवस्था उनके प्रति सामंती दृष्टिकोण रखती है. बेटियों की माताएं डरी रहती हैं. उन्हें व्यवस्था पर भरोसा नहीं है. आजादी के 72 वर्ष बाद भी आधी आबादी के मन में भय है. अपने घरों से निकल कर काम करने या पढ़ने के लिए बाहर जाने वाली स्त्रियों की सुरक्षा का सवाल मुँह बाए खड़ा है.
दिल्ली से लेकर हैदराबाद रेप कांडों को केवल रेप तक सीमित करने से इसके अनेक पहलुओं की ओर से ध्यान हट जाता है. यह मामला केवल रेप का नहीं है. कम से कम जैसा पश्चिमी देशों में रेप का मतलब है. एक रपट में पढ़ने को मिला कि पश्चिमी देशों के मुकाबले भारत में रेप कम है. पर उस डेटा को ध्यान से पढ़ें तो यह तथ्य सामने आता है कि रिपोर्टेड केस कम हैं. यानी शिकायतें कम हैं. दूसरे पश्चिम में स्त्री की असहमति और उसकी रिपोर्ट बलात्कार है.हमारे कानून कितने ही कड़े हों, एक तो उनका विवेचन ठीक से नहीं हो पाता, दूसरे पीड़ित स्त्री अपने पक्ष को सामने ला ही नहीं पाती.
हमारी पुलिस और न्याय व्यवस्था स्त्रियों के प्रति सामंती दृष्टिकोण रखती है. ऐसा नहीं कि वह निष्क्रिय है. पर उसकी सीमाएं हैं. उसकी ट्रेनिंग में कमी है, अनुशासन नहीं है और काम की सेवा-शर्तें भी खराब हैं. अपराधों को रोकने के लिए एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था की ज़रूरत है. हैदराबाद से खबरें मिली हैं कि वहाँ पुलिस इन दिनों रात के आठ बजे के बाद कर्फ्यू जैसे हालात पैदा कर रही है. इस तरह तो पुलिस खुद अराजकता पैदा कर रही है. ऐसे ही 2012 में दिल्ली पुलिस ने एक साथ नौ मेट्रो स्टेशनों को बंद करा दिया था. यह नादानी है. अपराध हो जाने के बाद की सख्ती का कोई मतलब नहीं है.



Sunday, December 1, 2019

राजनीति का गड़बड़झाला


राजनीति की विडंबनाओं और अंतर्विरोधों को समझना आसान नहीं है। पश्चिमी मूल्यों और मान्यताओं का तड़का लगने के बाद भारतीय राजनीति बड़ा गड़बड़झाला बनकर उभरी है। महाराष्ट्र के घटनाक्रम से यही साबित हुआ है। यह परिघटना नई सोशल इंजीनियरी का संकेत है या लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे पुराने मूल्यों की रक्षा का प्रयास है? या ठाकरे, पवार और गांधी-नेहरू परिवार के हितों की रक्षा का प्रयास? इसके पीछे कोई गम्भीर योजना है या फिर पाखंड, जो राजनीति के शिखर पर है? सोनिया, राहुल और मनमोहन का शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं होना पाखंड नहीं तो क्या है? दूसरी तरफ शिवसेना की धर्मनिरपेक्षता को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं, यह जाने बगैर कि इस शब्द से आपका आशय क्या है।

ऐसी क्या बात थी, जिसके कारण तीन दशक का वैचारिक गठबंधन देखते ही देखते ढह गया? इस बात में रंचमात्र भी संदेह नहीं कि भाजपा+शिवसेना गठबंधन के नाम जनादेश था, एनसीपी+कांग्रेस+शिवसेना के नाम नहीं। सरकार बनने के पहले का नाटकीय घटनाक्रम भी देश की राजनीति को लेकर तमाम सवाल खड़े करता है। देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार की सरकार बनाने के प्रयास जितने विस्मयकारी थे, उतनी ही हैरत भरी इन प्रयासों की आलोचना थी। उद्धव ठाकरे भी सांविधानिक मर्यादाओं की बात करने लगे। सन 1966 में जबसे बाल ठाकरे ने इसका गठन किया है, शिवसेना पर सांविधानिक मर्यादाओं के उल्लंघन के न जाने कितने आरोप लगे हैं। स्वयं बाल ठाकरे के लोकतांत्रिक अधिकार छह साल के लिए छीने गए थे। उसकी पृष्ठभूमि में कांग्रेस पार्टी थी। अब यह मान लिया गया है कि मौकापरस्ती और सब कुछ भूल जाने का नाम राजनीति है। इसमें सिद्धांतों, विचारधाराओं और मूल्यों-मर्यादाओं का कोई मतलब नहीं है।

Friday, November 29, 2019

ग्रामीण शिक्षा के लिए चाहिए सामाजिक क्रांति


गाँव और गरीबी का सीधा रिश्ता है। बड़ी संख्या में लोग गाँवों में इसलिए रहते हैं, क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं है। वहाँ सड़कें नहीं हैं, अस्पताल नहीं हैं और स्कूल नहीं हैं, जो व्यक्ति को समर्थ बनाने में मददगार होते हैं। इस साधनहीनता का प्रतिफल है कि तमाम ऐसे प्रतिभाशाली बच्चे जो बेहतरीन डॉक्टर, वैज्ञानिक, शिक्षक या खिलाड़ी बन सकते थे, पीछे रह जाते हैं। न वे शिक्षा के महत्व को जानते हैं और न उनके माता-पिता।
शिक्षा की गुणवत्ता पर बात करने के पहले उस सामाजिक समझ पर बात करनी चाहिए, जो शिक्षा के महत्व को समझती हो। इसके बाद पाठ्यक्रम, शिक्षकों के स्तर और उपलब्ध साधनों और उपकरणों से जुड़े सवाल पैदा होते हैं। हमारा लक्ष्य सन 2030 तक 3 से 18 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना है। क्या हम इसके लिए तैयार हैं? युनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट में 2016 में कहा गया था कि वर्तमान गति से चलते हुए भारत में सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा लक्ष्य 2050 तक ही हासिल हो सकेंगे। रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा में भारत 50 साल पीछे चल रहा है। बेशक हमने पिछले कुछ वर्षों में अपने प्रयास बढ़ाए हैं, पर अपने लक्ष्यों को देखें, तो इनमें तेजी लाने की जरूरत है।

Thursday, November 28, 2019

भारत के लिए क्या संदेश है श्रीलंका के राजनीतिक बदलाव का?


श्रीलंका पोडुजाना पेरामुना (एसएलपीपी) के उम्मीदवार गोटाबेया राजपक्षे ने राष्ट्रपति चुनावों में जीत दर्ज की है। सेना के पूर्व लेफ्टिनेंट कर्नल गोटाबेया अपने देश में टर्मिनेटर के नाम से मशहूर हैं, क्योंकि लम्बे समय तक चले तमिल आतंकवाद को कुचलने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। अब उनके चुनाव के बाद भारत के नजरिए से दो बड़े सवाल हैं। अलबत्ता भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परिणाम आते ही गोटाबेया राजपक्षे को बधाई दी है, जिसके जवाब में उन्हें शुक्रिया का संदेश भी मिला है।  
पहला सवाल है कि श्रीलंका के तमिल नागरिकों के प्रति उनका नजरिया क्या होगा? उनके नजरिए से साथ-साथ यह भी कि तमिल नागरिक उन्हें किस नजरिए से देखते हैं। इसके साथ ही जुड़ा है वह सवाल कि देश के उत्तरी तमिल इलाके का स्वायत्तता के सवाल पर उनकी भूमिका क्या होगी? इस तमिल-प्रश्न के अलावा दूसरा सवाल है कि चीन के साथ उनके रिश्ते कैसे रहेंगे? भारत सरकार की निगाहें हिंद महासागर में चीन की आवाजाही पर रहती हैं और राजपक्षे परिवार को चीन-समर्थक माना जाता है।

क्या हम हिंद महासागर में बढ़ते चीनी प्रभाव को रोक पाएंगे?


पिछले हफ्ते की दो घटनाओं ने हिंद महासागर की सुरक्षा के संदर्भ में ध्यान खींचा है। फ्रांस के नौसेना प्रमुख एडमिरल क्रिस्टोफे प्राजुक भारत आए। उन्होंने भारतीय नौसेना के प्रमुख एडमिरल करमबीर सिंह के साथ मुलाकात के बाद बताया कि अगले वर्ष से दोनों देशों की नौसेनाएं हिंद महासागर में संयुक्त रूप से गश्त लगाने का काम कर सकती हैं। दूसरी है, श्रीलंका में राष्ट्रपति पद के चुनाव, जिसमें श्रीलंका पोडुजाना पेरामुना (एसएलपीपी) के उम्मीदवार गौतबाया राजपक्षे ने राष्ट्रपति चुनावों में जीत दर्ज की है।
सेना के पूर्व लेफ्टिनेंट कर्नल गौतबाया अपने देश में टर्मिनेटर के नाम से मशहूर हैं, क्योंकि लम्बे समय तक चले तमिल आतंकवाद को कुचलने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। दो कारणों से भारत की संलग्नता श्रीलंका से है। प्रश्न है कि श्रीलंका के तमिल नागरिकों के नए राष्ट्रपति का व्यवहार कैसा होगा और दूसरे श्रीलंका-चीन के रिश्ते किस दिशा में जाएंगे? इस सिलसिले में भारत ने तेजी से पहल की है और हमारे विदेशमंत्री एस जयशंकर ने श्रीलंका जाकर नव-निर्वाचित राष्ट्रपति से मुलाकात की। सबसे बड़ी बात यह कि गौतबाया 29 नवंबर को भारत-यात्रा पर आ रहे हैं।