भारतीय विदेश नीति के नियंता मानते हैं कि भारत का नाम
दुनिया में इज्जत से लिया जाता है और पाकिस्तान की इज्जत कम है। इसकी बड़ी वजह
भारतीय लोकतंत्र है। हमारी सांविधानिक संस्थाएं कारगर हैं और लोकतांत्रिक तरीके से
सत्ता परिवर्तन होता है। अक्सर जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव होता है, तो
हम कहते हैं कि पाकिस्तान अलग-थलग पड़ गया है। हम यह भी मानते हैं कि कश्मीर
समस्या भारत-पाकिस्तान के बीच का द्विपक्षीय मामला है और दुनिया इसे स्वीकार करती
है। और यह भी कि पाकिस्तान कश्मीर समस्या के अंतरराष्ट्रीयकरण का प्रयास करता है,
पर वह इसमें विफल है।
उपरोक्त बातें काफी हद तक आज भी सच हैं, पर 5 अगस्त के बाद
दुनिया की समझ में बदलाव आया है। हमारी खुशफहमियों को धक्का लगाने वाली कुछ बातें
भी हुईं हैं, जिनसे देश की छवि को बहुत गहरी न सही किसी न किसी हद तक ठेस लगी है।
विदेश-नीति संचालकों को इस प्रश्न पर ठंडे दिमाग से विचार करना चाहिए। बेशक जब हम
कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले गए थे, तब उसका अंतरराष्ट्रीयकरण हो
गया था, पर अब उससे कुछ ज्यादा हो गया है। पिछले तीन महीने के घटनाक्रम पर नजर
डालें, तो कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं:-
· हम कुछ भी कहें, पाकिस्तान अलग-थलग नहीं पड़ा है। चीन, तुर्की और मलेशिया ने
पहले संरा में और उसके बाद एफएटीएफ में उसे खुला समर्थन दिया है। चीन और रूस के
सामरिक रिश्ते सुधरते जा रहे हैं और इसका प्रभाव रूस-पाकिस्तान रिश्तों में नजर
आने लगा है। यह सब अलग-थलग पड़ने की निशानी नहीं है।
· हाल में ब्रिटिश शाही
परिवार के प्रिंस विलियम और उनकी पत्नी केट मिडल्टन की पाकिस्तान यात्रा से भी
क्या संकेत मिलता है? ब्रिटिश शाही परिवार का पाकिस्तान दौरा 13 साल बाद हुआ है।
इससे पहले प्रिंस ऑफ वेल्स और डचेस ऑफ कॉर्नवेल कैमिला ने 2006 में देश का दौरा
किया था।
· इसके पहले ब्रिटेन के
मुख्य विरोधी दल लेबर पार्टी ने कश्मीर पर एक आपात प्रस्ताव पारित करते हुए पार्टी
के नेता जेरेमी कोर्बिन से कहा था कि वे कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को
भेजकर वहाँ की स्थिति की समीक्षा करने का माँग करें और वहाँ की जनता के आत्म-निर्णय
के अधिकार की मांग करें।
· अमेरिका में ‘हाउडी मोदी’ के बावजूद डोनाल्ड ट्रंप ने इमरान खान की न
केवल पर्याप्त आवभगत की, बल्कि बार-बार कहा कि मैं तो कश्मीर मामले में मध्यस्थता
करना चाहता हूँ, बशर्ते भारत माने। ह्यूस्टन की रैली में नरेंद्र मोदी ने ट्रंप का
समर्थन करके डेमोक्रेट सांसदों की नाराजगी अलग से मोल ले ली है।
· भारत की लोकतांत्रिक,
धर्मनिरपेक्ष और बहुलवादी व्यवस्था को लेकर उन देशों में सवाल उठाए जा रहे हैं, जो
भारत के मित्र समझे जाते हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण है ‘दक्षिण एशिया में मानवाधिकार’ विषय पर अमेरिकी संसद में हुई सुनवाई, जिसमें भारत पर ही निशाना लगाया गया।
· इस सुनवाई में डेमोक्रेटिक
पार्टी के कुछ सांसदों की तीखी आलोचना के कारण भारत के विदेश मंत्रालय को सफाई
देनी पड़ी। मोदी सरकार के मित्र रिपब्लिकन सांसद या तो इस सुनवाई के दौरान हाजिर
नहीं हुए और जो हाजिर हुए उन्होंने भारतीय व्यवस्था की आलोचना की।