एक्ज़िट पोल
एकबार फिर से महाराष्ट्र में एनडीए की सरकार बनने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। सभी
का निष्कर्ष है कि विधानसभा की 288 सीटों में से दो तिहाई से ज्यादा भाजपा-शिवसेना
गठबंधन की झोली में गिरेंगी। देश की कारोबारी राजधानी मुंबई के कारण महाराष्ट्र
देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में एक है। लोकसभा में सीटों की संख्या के लिहाज
से उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण राज्य महाराष्ट्र है। चुनाव में
मुख्य मुकाबला भाजपा—शिवसेना की ‘महायुति’ और कांग्रेस—राष्ट्रवादी कांग्रेस
पार्टी ‘महा-अघाड़ी' के बीच है। फिलहाल लगता है कि यह मुकाबला भी
बेमेल है। चुनाव का विश्लेषण करते वक्त परिणामों से हटकर भी महाराष्ट्र की कुछ
बातों पर ध्यान में रखना चाहिए।
1.भाजपा-शिवसेना
संबंध
महाराष्ट्र की
राजनीति का सबसे रोचक पहलू है भारतीय जनता पार्टी के रिश्तों का ठंडा-गरम पक्ष।
इसमें दो राय नहीं कि इनकी ‘महायुति’ राज्य में अजेय शक्ति है, पर इस ‘युति’ को बनाए रखने के लिए बड़े जतन करने पड़ते हैं। इसका बड़ा कारण है दोनों
पार्टियों की वैचारिक एकता। एक विचारधारा से जुड़े होने के बावजूद शिवसेना
महाराष्ट्र केंद्रित दल है। शिवसेना ने 2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का
साथ छोड़कर अकेले चुनाव लड़ा, पर इससे उसे नुकसान हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने इस
बीच अपने आधार का विस्तार भी कर लिया। एक समय तक राज्य में शिवसेना बड़ी पार्टी
थी, पर आज स्थिति बदल गई है और भारतीय जनता पार्टी अकेले सरकार बनाने की स्थिति
में नजर आने लगी है। एक जमाने में जहाँ सीटों के बँटवारे में भाजपा दूसरे नंबर पर
रहती थी, वहाँ अब वह पहले नंबर पर रहती है। एक जमाने में मुख्यमंत्री और उप
मुख्यमंत्री पद का फैसला भी सीटों की संख्या पर होता था। इस चुनाव के बाद ‘महायुति’ की सरकार बनने के पहले का विमर्श महत्वपूर्ण होगा।
सन 2014 में दोनों का गठबंधन टूट गया था, पर इसबार दोनों ने फिर से मिलकर चुनाव लड़ा है। दोनों
पार्टियों के अनेक बागी नेता भी मैदान में हैं।
2.कांग्रेस-राकांपा रिश्ते
‘महायुति’ के समांतर ‘महा-अघाड़ी’ के दो प्रमुख दलों के
रिश्ते भी तनाव से भरे रहते हैं। शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के
मुद्दे पर कांग्रेस छोड़कर 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया था।
दोनों दलो के बीच तबसे ही दोस्ती और दुश्मनी के रिश्ते चले आ रहे हैं। दोनों
पार्टियों ने राज्य में मिलकर 15 साल तक सरकार चलाई। एनसीपी केंद्र में यूपीए
सरकार में भी शामिल रही, पर दोनों के बीच हमेशा टकराव रहा। संयोग से कांग्रेस और
एनसीपी दोनों की राजनीति उतार पर है। दोनों ही दलों में चुनाव के ठीक पहले
अनुशासनहीनता अपने चरम पर थी। यह बात चुनाव परिणामों को प्रभावित करेगी। यह बात
दोनों दलों के केंद्रीय नेतृत्व की कमजोरी को भी व्यक्त करती है।