Saturday, November 2, 2019

यूरोपियन सांसदों के दौरे के बाद कश्मीर


पाकिस्तान की दिलचस्पी कश्मीर समस्या के अंतरराष्ट्रीयकरण में है. इसके लिए पिछले तीन महीनों में उसने अपनी पूरी ताकत लगा दी है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में खून की नदियाँ बहाने की साफ-साफ धमकी दी थी. हाल में पाक-परस्तों ने सेब के कारोबार से जुड़े लोगों की हत्या करने का जो अभियान छेड़ा है, उससे उनकी पोल खुली है.
पाक-परस्त ताकतों ने भारत की लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुलवादी व्यवस्था को लेकर उन देशों में जाकर सवाल उठाए हैं, जो भारत के मित्र समझे जाते हैं. वे जबर्दस्त प्रचार युद्ध में जुटे हैं. ऐसे में हमारी जिम्मेदारी है कि हम कश्मीर के संदर्भ में भारत के रुख से सारी दुनिया को परिचित कराएं और पाकिस्तान की साजिशों की ओर दुनिया का ध्यान खींचें. इसी उद्देश्य से हाल में भारत ने यूरोपियन संसद के 23 सदस्यों को कश्मीर बुलाकर उन्हें दिखाया कि पाकिस्तान भारत पर मानवाधिकार हनन के जो आरोप लगा रहा है, उनकी सच्चाई वे खुद आकर देखें.

Friday, November 1, 2019

राज्य पुनर्गठन के बाद जम्मू-कश्मीर


गत 5 और 6 अगस्त को संसद ने जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के जिस प्रस्ताव को पास किया था, वह अपनी तार्किक परिणति तक पहुँच चुका है। राज्य का नक्शा बदल गया है और वह दो राज्यों में तब्दील हो चुका है। पर यह औपचारिकता का पहला चरण है। इस प्रक्रिया को पूरा होने में अभी समय लगेगा। कई प्रकार के कानूनी बदलाव अब भी हो रहे हैं। सरकारी अफसरों से लेकर राज्यों की सम्पत्ति के बँटवारे की प्रक्रिया अभी चल ही रही है। राज्य पुनर्गठन विधेयक के तहत साल भर का समय इस काम के लिए मुकर्रर है, पर व्यावहारिक रूप से यह काम बरसों तक चलता है। तेलंगाना राज्य अधिनियम 2013 में पास हुआ था, पर पुनर्गठन से जुड़े मसले अब भी सुलझाए जा रहे हैं।
बहरहाल पुनर्गठन से इतर राज्य में तीन तरह की चुनौतियाँ हैं। पहली पाकिस्तान-परस्त आतंकी गिरोहों की है, जो राज्य की अर्थव्यवस्था पर हमले कर रहे हैं। हाल में ट्रक ड्राइवरों की हत्या करके उन्होंने अपने इरादों को जता भी दिया है, पर इस तरीके से वे स्थानीय जनता की नाराजगी भी मोल लेंगे, जो उनकी बंदूक के डर से बोल नहीं पाती थी। अब यदि सरकार सख्ती करेगी, तो उसे कम से कम सेब के कारोबार से जुड़े लोगों का समर्थन मिलेगा। दूसरी चुनौती राज्य में राजनीतिक शक्तियों के पुनर्गठन की है। और तीसरी चुनौती नए राजनीतिक मुहावरों की है, जो राज्य की जनता को समझ में आएं। ये तीनों चुनौतियाँ कश्मीर घाटी में हैं। जम्मू और लद्दाख में नहीं।

Sunday, October 27, 2019

एग्जिट पोल हास्यास्पद क्यों?


महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद एक पुराना सवाल फिर उठ खड़ा हुआ है कि हमारे यहाँ एग्जिट पोल की विश्वसनीयता कितनी है? यह सवाल इसलिए क्योंकि अक्सर कहा जाता है कि ओपीनियन पोल के मुकाबले एग्जिट पोल ज्यादा सही साबित होते हैं, क्योंकि इनमें वोट देने के फौरन बाद मतदाता की प्रतिक्रिया दर्ज कर ली जाती है। कई बार ये पोल सच के करीब होते हैं और कई बार एकदम विपरीत। ऐसा क्यों होता है? सवाल इनकी पद्धति को लेकर उतना नहीं हैं, जितने इनकी मंशा को लेकर हैं। भारतीय मीडिया अपनी विश्वसनीयता को खो रहा है। इसमें एग्जिट और ओपीनियन पोल की भी भूमिका है।
इसबार महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में एग्जिट पोल ने जो बताया था, परिणाम उससे हटकर आए। एक पोल ने परिणाम के करीब का अनुमान लगाया था, पर उसके परिणाम को भी बारीकी से पढ़ें, तो उसमें झोल नजर आने लगेगा। एक्सिस माई इंडिया-इंडिया टुडे के पोल ने महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना की सरकार बनने के संकेत तो दिए थे, लेकिन प्रचंड बहुमत के नहीं। इस पोल ने भाजपा-नीत महायुति को 166-194, कांग्रेस-एनसीपी अघाड़ी को 72-90 और अन्य को 22-34 सीटें दी थीं। वास्तविक परिणाम रहे 161, 98 और 29। यानी भाजपा+ को अनुमान की न्यूनतम सीमा से भी कम, कांग्रेस+ को अधिकतम सीमा से भी ज्यादा और केवल अन्य को सीमा के भीतर सीटें मिलीं।

Wednesday, October 23, 2019

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की पाँच खास बातें


एक्ज़िट पोल एकबार फिर से महाराष्ट्र में एनडीए की सरकार बनने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। सभी का निष्कर्ष है कि विधानसभा की 288 सीटों में से दो तिहाई से ज्यादा भाजपा-शिवसेना गठबंधन की झोली में गिरेंगी। देश की कारोबारी राजधानी मुंबई के कारण महाराष्ट्र देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में एक है। लोकसभा में सीटों की संख्या के लिहाज से उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण राज्य महाराष्ट्र है। चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा—शिवसेना की ‘महायुति’ और कांग्रेस—राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ‘महा-अघाड़ी' के बीच है। फिलहाल लगता है कि यह मुकाबला भी बेमेल है। चुनाव का विश्लेषण करते वक्त परिणामों से हटकर भी महाराष्ट्र की कुछ बातों पर ध्यान में रखना चाहिए।
1.भाजपा-शिवसेना संबंध
महाराष्ट्र की राजनीति का सबसे रोचक पहलू है भारतीय जनता पार्टी के रिश्तों का ठंडा-गरम पक्ष। इसमें दो राय नहीं कि इनकी ‘महायुति’ राज्य में अजेय शक्ति है, पर इस युतिको बनाए रखने के लिए बड़े जतन करने पड़ते हैं। इसका बड़ कारण है दोनों पार्टियों की वैचारिक एकता। एक विचारधारा से जुड़े होने के बावजूद शिवसेना महाराष्ट्र केंद्रित दल है। शिवसेना ने 2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़कर अकेले चुनाव लड़ा, पर इससे उसे नुकसान हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने इस बीच अपने आधार का विस्तार भी कर लिया। एक समय तक राज्य में शिवसेना बड़ी पार्टी थी, पर आज स्थिति बदल गई है और भारतीय जनता पार्टी अकेले सरकार बनाने की स्थिति में नजर आने लगी है। एक जमाने में जहाँ सीटों के बँटवारे में भाजपा दूसरे नंबर पर रहती थी, वहाँ अब वह पहले नंबर पर रहती है। एक जमाने में मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री पद का फैसला भी सीटों की संख्या पर होता था। इस चुनाव के बाद महायुति की सरकार बनने के पहले का विमर्श महत्वपूर्ण होगा। सन 2014 में दोनों का गठबंधन टूट गया था, पर इसबार दोनों ने फिर से मिलकर चुनाव लड़ा है। दोनों पार्टियों के अनेक बागी नेता भी मैदान में हैं।
2.कांग्रेस-राकांपा रिश्ते
महायुति के समांतरमहा-अघाड़ी के दो प्रमुख दलों के रिश्ते भी तनाव से भरे रहते हैं। शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़कर 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया था। दोनों दलो के बीच तबसे ही दोस्ती और दुश्मनी के रिश्ते चले आ रहे हैं। दोनों पार्टियों ने राज्य में मिलकर 15 साल तक सरकार चलाई। एनसीपी केंद्र में यूपीए सरकार में भी शामिल रही, पर दोनों के बीच हमेशा टकराव रहा। संयोग से कांग्रेस और एनसीपी दोनों की राजनीति उतार पर है। दोनों ही दलों में चुनाव के ठीक पहले अनुशासनहीनता अपने चरम पर थी। यह बात चुनाव परिणामों को प्रभावित करेगी। यह बात दोनों दलों के केंद्रीय नेतृत्व की कमजोरी को भी व्यक्त करती है। 

हरियाणा विधानसभा चुनाव की पाँच खास बातें


हरियाणा में मतदान हो चुका है। गुरुवार को पता भी लग जाएगा कि कौन जीता और कौन हारा। हार और जीत के अलावा कुछ ऐसी बातें हैं, जिनपर गौर करने की जरूरत होगी।
1.भावी राजनीति की दिशा
हरियाणा विधानसभा के 2014 के चुनाव परिणामों से कई मायनों में सबको हैरत हुई थी। लोकसभा चुनाव में बीजेपी में कुल दस में से सात सीटें जीती थीं। प्रेक्षक यह समझना चाहते थे कि यह जीत कहीं तुक्का तो नहीं थी। लोकसभा चुनाव के बाद हुए 13 राज्यों के उप चुनावों से कुछ प्रेक्षकों ने निष्कर्ष निकाला कि ‘मोदी मैजिक’ ख़त्म हो गया। हरियाणा ने इस संभावना को गलत सिद्ध किया था। हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम विस्मयकारी थे। इनके बाद ही लगा कि केवल लोकसभा में ही नहीं उत्तर भारत में राज्यों की राजनीति में भी बड़ा उलट-फेर होने वाला है। गठबंधन सहयोगियों के बगैर हरियाणा में मिली सफलता से भाजपा का आत्मविश्वास और महत्वाकांक्षाएं बढ़ीं। इसबार का चुनाव भारतीय जनता पार्टी की इस ताकत का परीक्षण है। हरियाणा के जातीय समीकरण पिछले चुनाव में बिगड़ गए थे। उनकी स्थिति क्या है, इस चुनाव में पता लगेगी। राज्य की 90 में से 35 सीटों पर जाट मतदाता का वर्चस्व है। सवाल है कि वह है किसके साथ?
2.विरोधी ताकत कौन?
एक्ज़िट पोल बता रहे हैं कि राज्य में बीजेपी पिछली बार से भी ज्यादा बड़ी ताकत बनकर उभरेगी। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि मुख्य विरोधी दल कौन सा होगा? हरियाणा में पार्टियों के बनने और बिगड़ने का लंबा इतिहास है। यहाँ विशाल हरियाणा पार्टी, हरियाणा विकास पार्टी, हरियाणा जनहित कांग्रेस और इनेलो बनीं और फिर पृष्ठभूमि में चली गईं। पाँच साल पहले तक कांग्रेस और इनेलो दो बड़ी ताकतें होती थीं। पर 2014 के विधानसभा में दोनों का पराभव हो गया। जनता पार्टी के लोकदल घटक की प्रतिनिधि इनेलो सीट और वोट प्रतिशत के आधार पर पिछले विधानसभा चुनाव के पहले तक दूसरे नंबर की ताकत थी। बाद में इनेलो और कांग्रेस दोनों आंतरिक टकराव की शिकार हुईं हैं। इस चुनाव से पता लगेगा कि इन दलों की ताकत क्या है और राज्य की राजनीति किस दिशा में जा रही है। लोकसभा के पिछले चुनावों के पहले उम्मीद थी कि विरोधी दल कोई बड़ा मोर्चा बनाने में कामयाब होंगे। ऐसा नहीं हुआ। चुनाव के ठीक पहले प्रदेश कांग्रेस के शिखर नेतृत्व में हुए बदलाव के परिणामों पर भी नजर रखनी होगी।