संतों को राज्याश्रय
नहीं जनाश्रय चाहिए। उनका रहन-सहन भी आम लोगों जैसा होता है। इस नजरिए से आज के प्रसिद्ध संतों को संत कहना अनुचित है। उनकी जीवन शैली को देखें, तो यह अंतर बड़ा साफ नजर आता है। सम्भव है आज भी उस परम्परा के संत हमारे बीच हों, पर ज्यादातर प्रसिद्ध संत देश की संत परम्परा के उलट हैं। ऐसा क्यों है, विचार इसपर होना चाहिए। बहरहाल इस अंतर को पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी के संत कुम्भनदास (1468-1583)
के उदाहरण से समझा जा सकता है। कुम्भनदास अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि थे। वे ब्रज में
गोवर्धन से कुछ दूर जमुनावतो गाँव में रहते थे। अपने गाँव से वे पारसोली
चन्द्रसरोवर होकर श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करने जाते थे। उनका जन्म
क्षत्रिय कुल में हुआ था। उन्होंने 1492 में महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा ली
थी।
कुम्भनदास पूरी तरह से
विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से
कोसों दूर थे। उन्होंने किसी के सामने हाथ नहीं पसारा। अलबत्ता उनकी रचनाओं की
लोकप्रियता के कारण एक दौर ऐसा आया जब बड़े-बड़े राजा-महाराजा उनका दर्शन करने में
सौभाग्य मानने लगे। आर्थिक संकट और दीनता के बावजूद उन्होंने राज्याश्रय को
स्वीकार नहीं किया। बादशाह अकबर की राजसभा में किसी गायक ने कुम्भनदास का पद गाया,
तो बादशाह ने उस पद के लेखक कुम्भनदास को फतेहपुर सीकरी बुलाया।
कुम्भनदास जाना नहीं
चाहते थे, पर दूतों का विशेष आग्रह देखकर वे पैदल ही गए। पर उन्हें
अकबर का ऐश्वर्य दो कौड़ी का लगा। वहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ, पर कुम्भनदास को इसका
खेद ही रहा कि जिसका चेहरा देखने
से दुःख होता है, उसे सलाम बोलना पड़ा। उनका यह पद संत-परम्परा को स्थापित करता है कि जो फक्कड़
है, वही संत है।
संतन को कहा सीकरी सों
काम/आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम/जिनको मुख देखे दुख
उपजत, तिनको करिबे परी सलाम/कुम्भनदास लाल
गिरिधर बिनु और सबै बेकाम।