केंद्र सरकार ने पिछले मंगलवार को सार्वजनिक क्षेत्र के
संकटग्रस्त बैंकों में 2.11 लाख करोड़ रुपये की नई पूँजी डालने की घोषणा दो
उद्देश्यों से की है। पहला लक्ष्य इन बैंकों को बचाने का है, पर अंततः इसका
उद्देश्य अर्थ-व्यवस्था को अपेक्षित गति देने का है। पिछले एक दशक से ज्यादा समय
में देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों ने जो कर्ज दिए थे, उनकी वापसी ठीक से नहीं हो पाई
है। बैंकों की पूँजी चौपट हो जाने के कारण वे नए कर्जे नहीं दे पा रहे हैं, इससे
कारोबारियों के सामने मुश्किलें पैदा हो रही हैं। इस वजह से अर्थ-व्यवस्था की संवृद्धि
गिरती चली गई।
Monday, October 30, 2017
Sunday, October 29, 2017
‘मदर इंडिया’ के साठ साल बाद का भारत
फिल्म ‘मदर इंडिया’ की रिलीज के साठ साल बाद एक टीवी चैनल के एंकर इस फिल्म के एक सीन का वर्णन कर रहे थे, जिसमें फिल्म की हीरोइन राधा (नर्गिस) को अपने कंधे पर रखकर खेत में हल चलाना पड़ता है। चैनल का कहना था कि 60 बरस बाद हमारे संवाददाता ने महाराष्ट्र के सतारा जिले के जावली तालुक के भोगावाली गाँव में खेत में बैल की जगह महिलाओं को ही जुते हुए देखा तो उन्होंने उस सच को कैमरे के जरिए सामने रखा, जिसे देखकर सरकारें आँख मूँद लेना बेहतर समझती हैं। गाहे-बगाहे आज भी ऐसी तस्वीरें सामने आती हैं, जिन्हें देखकर शर्मिंदगी पैदा होती है। सवाल है कि क्या देश की जनता भी इन बातों से आँखें मूँदना चाहती है?
महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ उन
गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है, जो आज भी हमारे दिलो-दिमाग पर छाई हैं। यदि
मुद्रास्फीति की दर के साथ हिसाब लगाया जाए तो ‘मदर इंडिया’
देश की आजतक की सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट फिल्म है। क्या वजह है इसकी? आजादी के बाद के पहले दशक के सिनेमा की थीम में
बार-बार भारत का बदलाव केंद्रीय विषय बनता था। इन फिल्मों की सफलता बताती है कि
बदलाव की चाहता देश की जनता के मन में थी, जो आज भी कायम है।
Sunday, October 22, 2017
क्या कहती है बाजार की चमक
अमेरिका के अख़बार वॉशिंगटन पोस्ट में दिल्ली के चाँदनी चौक की एक मिठाई की
दुकान के मालिक के हवाले से बड़ी सी खबर छपी है ‘मेरे लिए इससे पहले कोई
साल इतना खराब नहीं रहा।’ इस व्यापारी का कहना है कि जो लोग पिछले वर्षों
तक एक हजार रुपया खर्च करते थे, इस साल उन्होंने 600-700 ही खर्च किए। अख़बार की
रिपोर्ट का रुख उसके बाद मोदी सरकार के वायदों और जनता के मोहभंग की ओर घूम गया।
असमंजस के चौराहे पर देश
हम
असमंजस के दौर में खड़े हैं। एक तरफ हम आधुनिकीकरण और विकास के हाईवे और बुलेट
ट्रेनों का नेटवर्क तैयार करने की बातें कर रहे हैं और दूसरी तरफ खबरें आ रहीं हैं
कि हमारा देश भुखमरी के मामले में दुनिया के 119 देशों में 100वें नम्बर पर आ गया
है। जब हम देश में दीवाली मना रहे थे, तब यह खबर भी सरगर्म थी कि झारखंड में एक
लड़की ‘भात-भात’ कहते हुए मर गई। कोई दिन नहीं जाता जब हमें
सोशल मीडिया पर सामाजिक-सांस्कृतिक क्रूरता की खबरें न मिलती हों।
हम किधर जा रहे हैं? आर्थिक विकास की राह पर या कहीं और? इसे लेकर अर्थशास्त्रियों में भी मतभेद
हैं। कुछ मानते हैं कि हम सही राह पर हैं और कुछ का कहना है कि तबाही की ओर बढ़
रहे हैं। दोनों बातें सही नहीं हो सकतीं। जाहिर है कि दोनों राजनीतिक भाषा बोल रहे
हैं। कुछ लोग इसे मोदी सरकार की देन बता रहे हैं और कुछ लोगों का कहना है कि हताश
और पराजित राजनीति इन हथकंडों को अपनाकर वापस आने की कोशिश कर रही है। पर सच भी
कहीं होगा। सच क्या है?
पब्लिक ‘कुछ’ नहीं जानती
सवाल
है कि ‘पब्लिक पर्सेप्शन’ क्या है? जनता कैसा महसूस कर रही है? पर उससे बड़ा सवाल यह है कि इस बात का पता
कैसे लगता है कि वह क्या महसूस कर रही है? पिछले साल नवम्बर में हुई नोटबंदी को लेकर
काफी उत्तेजना रही। सरकार के विरोधियों ने कहा कि अर्थ-व्यवस्था तबाही की ओर जा
रही है। कम से कम उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में जनता की नाराजगी दिखाई
नहीं पड़ी। अब जीएसटी की पेचीदगियों को लेकर व्यापारियों ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त
की है, वह काफी उग्र है। व्यापारी अपेक्षाकृत संगठित हैं और इसीलिए सरकार ने उनके
विरोध पर ध्यान दिया है और अपनी व्यवस्था को सुधारा है। टैक्स में रियायतें भी दी
हैं।
Sunday, October 15, 2017
हम सब हैं आरुषि के अपराधी
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