बारह घोड़ों वाली गाड़ी
चुनावी राजनीति ने भारतीय
समाज में निरंतर चलने वाला सागर-मंथन पैदा कर दिया है। पाँच साल में एक बार होने
वाले आम चुनाव की अवधारणा ध्वस्त हो चुकी है। हर साल किसी न किसी राज्य की विधानसभा
का चुनाव होता है। दूसरी ओर राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का हस्तक्षेप
बढ़ा है। गठबंधन बनते हैं, टूटते हैं और फिर बनते हैं। यह सब वैचारिक आधार पर न
होकर व्यक्तिगत हितों और फौरी लक्ष्यों से निर्धारित होता है। किसी के पास
दीर्घकालीन राजनीति का नक्शा नजर नहीं आता।
अगले महीने हो रहे
विधानसभा चुनाव के पहले चारों राज्यों में चुनाव पूर्व गठबंधनों की प्रक्रिया अपने
अंतिम चरण में है। बंगाल में वामदलों के साथ कांग्रेस खड़ी है, पर तमिलनाडु और
केरल में दोनों एक-दूसरे के सामने हैं। यह नूरा-कुश्ती कितनी देर चलेगी? नूरा-कुश्ती हो या नीतीश का ब्रह्मास्त्र राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी का एक विरोधी ‘कोर ग्रुप’ जरूर तैयार हो गया है। इसमें कांग्रेस, वामदलों और जनता
परिवार के कुछ टूटे धड़ों की भूमिका है। पर इस कोर ग्रुप के पास उत्तर प्रदेश का
तिलिस्म तोड़क-मंत्र नहीं है।
ताजा खबर यह है कि जनता
परिवार को एकजुट करने की तमाम नाकाम कोशिशों के बाद जदयू, राष्ट्रीय लोकदल, झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) और समाजवादी जनता पार्टी (रा) बिहार,
झारखंड और उत्तर प्रदेश में विलय की संभावनाएं
फिर से टटोल रहे हैं। नीतीश कुमार, जदयू अध्यक्ष शरद
यादव, रालोद प्रमुख अजित सिंह,
उनके पुत्र जयंत चौधरी और चुनावी रणनीतिकार
प्रशांत किशोर की 15 मार्च को नई
दिल्ली में इस सिलसिले में हुई बैठक में बिहार के महागठबंधन का प्रयोग दोहराने पर
विचार किया गया।