सन 1985 में शाहबानो मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद राजीव गांधी की कांग्रेस पार्टी ने पचास के दशक की जवाहर लाल नेहरू जैसी दृढ़ता दिखाई होती तो शायद राष्ट्रीय राजनीति में साम्प्रदायिकता की वह भूमिका नहीं होती, जो आज नजर आती है। दुर्भाग्य से समान नागरिक संहिता की बहस साम्प्रदायिक राजनीति की शिकार हो गई और लगता नहीं कि लम्बे समय तक हम इसके बाहर आ पाएंगे। इस अंतर्विरोध की शुरुआत संविधान सभा से ही हो गई थी, जब इस मसले को मौलिक अधिकारों से हटाकर नीति निर्देशक तत्वों का हिस्सा बनाया गया। यह सवाल हमारे बीच आज भी कायम है तो इसकी वजह है हमारे सामाजिक अंतर्विरोध और राजनीतिक पाखंड। राजनीतिक दलों ने प्रगतिशीलता के नाम पर संकीर्णता को ही बढ़ावा दिया। यह बात समझ में आती है कि सामाजिक बदलाव के लिए भी समय दिया जाना चाहिए, पर क्या हमारे समाज में विवेकशीलता और वैज्ञानिकता को बढ़ाने की कोई मुहिम है?
पचास के दशक में नेहरू का मुकाबला अपनी ही पार्टी के हिन्दूवादी तत्वों से था। उनके दबाव में हिन्दू कोड बिल निष्फल हुआ और आम्बेडकर ने निराश होकर इस्तीफा दे दिया। उस दौर में पार्टी को दुधारी तलवार पर चलना पड़ा था। उसे यह भी साबित करना था कि उसकी प्रगतिशीलता केवल हिन्दू संकीर्णता के विरोध तक ही सीमित नहीं है। अंततः सन 1956 में हिन्दू कोड बिल भी आया। पर इससे बहुसंख्यक हिन्दू कांग्रेस के खिलाफ नहीं हुए। और न जनसंघ किसी बड़ी ताकत के रूप में उभर कर सामने आई थी।
पचास के दशक में नेहरू का मुकाबला अपनी ही पार्टी के हिन्दूवादी तत्वों से था। उनके दबाव में हिन्दू कोड बिल निष्फल हुआ और आम्बेडकर ने निराश होकर इस्तीफा दे दिया। उस दौर में पार्टी को दुधारी तलवार पर चलना पड़ा था। उसे यह भी साबित करना था कि उसकी प्रगतिशीलता केवल हिन्दू संकीर्णता के विरोध तक ही सीमित नहीं है। अंततः सन 1956 में हिन्दू कोड बिल भी आया। पर इससे बहुसंख्यक हिन्दू कांग्रेस के खिलाफ नहीं हुए। और न जनसंघ किसी बड़ी ताकत के रूप में उभर कर सामने आई थी।