संसदीय
गतिरोध और राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के गिरते ग्राफ की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की यूएई यात्रा क्या मददगार साबित होगी? इस यात्रा से भारत में बेहतर
पूँजी निवेश, इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में निर्माण की सम्भावनाओं और खाड़ी के
देशों में रहने वाले भारतीयों के लिए सेवा के अवसर बढ़ेंगे. पर केवल इतना ही नहीं.
पश्चिम एशिया में शक्ति संतुलन बदल रहा है, जिसके बरक्स भारत को अपनी भूमिका में
भी बदलाव लाना होगा. सवाल है कि अचानक हुई इस यात्रा का मकसद क्या था.
जब हम 68 साल की आज़ादी पर नजर डालते
हैं तो लगता है कि हमने पाया कुछ नहीं है। केवल खोया ही खोया है। पर लगता है कि पिछले
पाँच से दस साल में खोने की रफ्तार बढ़ी है। राजनीति, प्रशासन, बिजनेस और सांस्कृतिक जीवन यहाँ तक कि
खेल के मैदान में भी भ्रष्टाचार है। जनता अपने ऊपर नजर डाले तो उसे अपने चेहरे में
भी भ्रष्टाचार दिखाई देगा। कई बार हम जानबूझकर और कई बार मजबूरी में उसका सहारा
लेते हैं। भ्रष्टाचार केवल कानूनी समस्या नहीं जीवन शैली है। इसका मतलब समझें।
इतिहास की यात्रा पीछे नहीं जाती। मानवीय
मूल्य हजारों साल पहले बन गए थे, पर उन्हें लागू करने की लड़ाई लगातार चलती रही है
और चलती रहेगी। भ्रष्टाचार एक बड़ा सत्य है, पर ऐसी व्यवस्थाएं, ऐसे समाज और ऐसे
व्यक्ति भी हैं जो इसके खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। इसका इलाज तभी सम्भव है जब
व्यवस्था पारदर्शी और न्यायपूर्ण हो। जब तक व्यक्तियों के हाथों में विशेषाधिकार
हैं, भेदभाव का अंदेशा रहेगा।
उम्मीद नहीं है कि संसद के मानसून सत्र के आखिरी दिन चमत्कार होगा. जो दो महत्वपूर्ण बिल सामने हैं, उनमें से भूमि अधिग्रहण विधेयक अगले सत्र के लिए टल चुका है.
राज्यसभा की प्रवर समिति के सुझावों को शामिल करके जो जीएसटी विधेयक पेश किया गया है, उस पर कांग्रेस ने विचार करने से ही इनकार कर दिया है.
अब आख़िरी दिन यह पास हो पाएगा इसकी उम्मीद कम है.
इस सत्र को नकारात्मक बातों के लिए याद किया जाएगा. राज्यों में आई बाढ़, महंगाई और गुरदासपुर के चरमपंथी हमले जैसे सवालों की अनदेखी के लिए भी.
अब सोचना यह है कि अगले सत्र में क्या होगा? सुषमा स्वराज का इस्तीफा नहीं हुआ तो क्या शीतकालीन सत्र भी जाम होगा?
शायद बिहार के चुनाव परिणाम भावी राजनीति की दिशा तय करेंगे.
शून्य संसद
इस सत्र में पास करने के लिए आठ विधेयक थे. सबसे महत्वपूर्ण थे जीएसटी, भूमि अधिग्रहण, व्हिसल ब्लोवर संरक्षण और भ्रष्टाचार रोकथाम (संशोधन) विधेयक.
भूमि अधिग्रहण विधेयक पर संयुक्त समिति का प्रतिवेदन अब शीत सत्र में ही पेश होगा, इसलिए आखिरी दिन उसकी संभावना नहीं है.
मानसून सत्र में 11 अगस्त तक संसद के दोनों सदनों में 7 विधेयक पेश हुए. तीन वापस लिए गए और चार पास हुए. इनमें से केवल दिल्ली हाईकोर्ट संशोधन बिल ही दोनों सदनों से पास हुआ है. शेष तीन लोकसभा से पास हुए हैं.
इस लोकसभा का पहला साल संसदीय काम के लिहाज से अच्छा रहा. पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार इस साल का बजट सत्र पिछले 15 साल में सबसे अच्छा था.
लोकसभा ने अपने निर्धारित समय से 125 फीसदी और राज्यसभा ने 101 फीसदी काम किया. पर मानसून सत्र में ऐसा नहीं हो सका.
अखाड़ा राजनीति
कांग्रेस की छापामार शैली ने नरेंद्र मोदी की दृढ़ता और भाजपा के संख्याबल में सेंध लगा दी. पर गारंटी नहीं कि यह राजनीति वोटर को भी भाएगी और इसके सहारे क्षीणकाय कांग्रेस अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी.
सवाल यह भी पूछा जाएगा कि इस राजनीति के लिए क्या संसद का इस्तेमाल उचित है?
सवाल भाजपा को लेकर भी हैं. गतिरोध तोड़ने के लिए उसने भी कुछ नहीं किया. प्रधानमंत्री सामने नहीं आए. लोकसभा में कार्य-स्थगन के जवाब में उनके सामने आने की उम्मीद थी, जो नहीं हुआ.
भाजपा ने लंबे समय तक विदेशी पूँजी निवेश, बैंकिग और इंश्योरेंस-सुधार और जीएसटी के रास्ते में भी अड़ंगे लगाए थे. संसदीय पवित्रता की दुहाई वह किस मुँह से दे सकती है?
राष्ट्रगीत में भला कौन वह/ भारत भाग्य विधाता है/ फटा सुथन्ना पहने जिसका/ गुन हरचरना गाता है।
कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं :-
कौन-कौन है वह जन-गण-मन/ अधिनायक वह महाबली/ डरा हुआ मन बेमन जिसका/ बाजा रोज़ बजाता है।
वह भारत भाग्य विधाता इस देश की जनता है। क्या उसे जागी हुई जनता कहना चाहिए? जागने का मतलब आवेश और तैश नहीं है। अभी हम या तो खामोशी देखते हैं या भावावेश से। दोनों ही गलत हैं। सही क्या है, यह सोचने का समय आज है। आप सोचें कि 9 और 15 अगस्त की दो क्रांतियों का क्या हुआ।
अगस्त का यह महीना चालीस के दशक की तीन तारीखों के लिए खासतौर से याद किया जाता है। सन 1942 की 9 अगस्त से शुरू हुआ ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन 15 अगस्त 1945 को अपनी तार्किक परिणति पर पहुँचा था। भारत आज़ाद हुआ। 1942 से 1947 के बीच 1945 के अगस्त की दो तारीखें मानवता के इतिहास की क्रूरतम घटनाओं के लिए याद की जाती हैं। 6 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा शहर पर एटम बम गिराया गया। फिर भी जापान ने हार नहीं मानी तो 9 अगस्त को नगासाकी शहर पर बम गिराया गया। इन दो बमों ने विश्व युद्ध रोक दिया। इस साल दुनिया उस बमबारी की सत्तरवीं सालगिरह मना रही है।
नवम्बर 2007 में संघवाद पर दिल्ली में हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने कहा कि संघवाद को अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद तथा मौसम परिवर्तन जैसी मानव-जनित चुनौतियों से निपटने के उपाय भी खोजने होंगे। नरेंद्र मोदी सरकार ‘सहकारी संघवाद’ की बात करती है। उसका आशय भी समस्याओं के समाधान मिलकर खोजने वाली व्यवस्था से है। यह एक आदर्श स्थिति है। भारत जैसे बहुरंगी समाज के लिए संघीय ढाँचा अनिवार्यता भी है। कई बार हमारी संघ-राज्य राजनीति समाधान बनने के बजाय समस्या बन जाती है।
भारत में संघीय व्यवस्था तीन सतह पर काम करती है। केंद्र, राज्य और केंद्र शासित क्षेत्र। संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज भी इस व्यवस्था में शामिल हो गया है। संविधान के अनुच्छेद 268 से 281 तक राज्यों और केन्द्र के बीच राजस्व संग्रहण और वितरण की व्यवस्था परिभाषित की गई है। संविधान के अनुच्छेद 352 से 360 तक आपात उपबंधों की व्यवस्था है। अनुच्छेद 355 बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति से निपटने की जिम्मेदारी केन्द्र को देता है।