देश की जनता विस्मय के साथ यह समझने की कोशिश कर
रही है कि किस मुकाम पर आकर राष्ट्रीय-हित और पार्टी-हित एक दूसरे से अलग होते हैं
और कहाँ दोनों एक होते हैं। मॉनसून सत्र के पहले चार दिन शोर-गुल में चले गए और
लगता नहीं कि आने वाले दिनों में कुछ काम हो पाएगा। यह समझने की जरूरत भी है कि तकरीबन
एक साल तक संसदीय मर्यादा कायम रहने और काम-काज सुचारु रहने के बाद भारतीय राजनीति
अपनी पुरानी रंगत में वापस क्यों लौटी है? क्या कारण है कि ‘मैं बेईमान तो तू डबल बेईमान’ जैसा तर्क राजनीतिक ढाल बनकर सामने आ रहा है?
Sunday, July 26, 2015
भूमि अधिग्रहण कानून की अटकती-भटकती गाड़ी
पिछले
एक साल की सकारात्मक संसदीय सरगर्मी के बाद गाड़ी अचानक ढलान पर उतर गई है। भूमि
अधिग्रहण कानून में संशोधन के विधेयक सहित 64 विधेयक संसद में विभिन्न स्तरों पर
लटके पड़े हैं। आर्थिक सुधारों से जुड़े तमाम विधायी काम अभी अधूरे पड़े हैं और सन
2010 के बाद से अर्थ-व्यवस्था की गाड़ी कभी अटकती है और कभी झटकती है।
फिलहाल
भूमि अधिग्रहण विधेयक एनडीए सरकार के गले की हड्डी बना है। राहुल गांधी ने एक ‘इंच
जमीन भी नहीं’ कहकर ताल ठोक दी है। शायद इसी वजह से केंद्रीय मंत्रिमंडल अपनी तरफ
से विधेयक में कुछ परिवर्तनों की घोषणा करने पर विचार करने लगा है। हालांकि इस बात
की आधिकारिक रूप से पुष्टि नहीं हुई है, पर
लगता है कि सरकार इस कानून के सामाजिक प्रभाव को लेकर नए उपबंध जोड़ने को तैयार
है। इन्हें इस विधेयक में इसके पहले पूरी तरह हटा दिया गया था। पर क्या इतनी बात
से मामला बन जाएगा?
Saturday, July 25, 2015
पांच सौ अक्षरों में कैद बहस
नई शिक्षा नीति के निर्माण में आम जन की भागीदारी स्वागतयोग्य है, मगर ट्विटर मार्का बहस सुसंगत निष्कर्षों तक नहीं पहुंचा सकती.
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अप्रैल के महीने में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने नई शिक्षा नीति के निर्माण के लिए आम जनता को आमंत्रित करने के फैसले की जानकारी दी. उन्होंने बताया कि सरकार ने mygov वेबसाइट के जरिये "पहली बार आम नागरिक को नीतिनिर्माण के काम में हिस्सेदार बनाने का प्रयास किया है, जो अब तक चंद लोगों तक सीमित था." सरकार के इस कदम की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि एक लोकतंत्र के भीतर नीतिनिर्माण में लोगों की ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी से ही बेहतर नीतियां बनती हैं. कम से कम सिद्धांत रूप में यह बात सही है.
लेकिन वेबसाइट मेंलोगों की टिप्पणियों को 500 अक्षरों और चंद पूर्वनिर्धारित मुद्दोंतक सीमित कर दिया गया है. इस तरह आंशिक रूप से सेंसर की गयी रायशुमारी से ज्यादा से ज्यादा विखंडित और विरोधाभासी सुझाव ही जनता की ओर से मिल पाएंगे. हालांकि विरोधाभासी दृष्टिकोण स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान हैं, फिर भी उन्हें तर्कपूर्ण व व्यवस्थित किए जाने की जरूरत पड़ती है. दूसरे शब्दों में- अगर उन्हें शिक्षा पर एक व्यापक आधार वाले संवाद के उद्देश्य से एकत्र किया जा रहा है तो उन्हें सुविचारित तर्कके रूप में प्रकट करना होगा.
Thursday, July 23, 2015
अगले चार साल में क्या करेगी कांग्रेस?
पिछले कुछ महीनों से
कांग्रेस पार्टी के आक्रामक तेवर और विपक्षी दलों के साथ उसके बेहतर तालमेल के कारण भारतीय राजनीति में बदलाव का संकेत
मिल रहा है. पिछले एक साल में नरेंद्र मोदी की सरकार की लोकप्रियता में गिरावट के
संकेत मिल रहे हैं.
बीजेपी सरकार की रीति-नीति
के अलावा कांग्रेस की बढ़ती आक्रामकता भी इस गिरावट का कारण है. पर यह आभासी
राजनीति है. इसे राजनीतिक यथार्थ यानी चुनावी सफलता में तब्दील होना चाहिए. क्या अगले
कुछ वर्षों में यह पार्टी कोई बड़ी सफलता हासिल कर सकती है?
कैसे होगा बाउंसबैक?
फिलहाल कांग्रेस
इतिहास के सबसे नाज़ुक दौर में है. देश के दस से ज्यादा राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों से लोकसभा
में उसका कोई प्रतिनिधि नहीं है. सन
1967, 1977, 1989, 1991 और 1996 के साल कांग्रेस की चुनावी लोकप्रिय में गिरावट के
महत्वपूर्ण पड़ाव थे. पर 2014 में उसे अब तक की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा.
Wednesday, July 22, 2015
अभी कितनी दूर है अंतरिक्ष का जीव?
नासा की मुख्य वैज्ञानिक एलेन स्टोफन
ने इस साल अप्रैल में एक सम्मेलन में कहा, मुझे लगता है कि एक दशक के भीतर हमारे पास
पृथ्वी से दूर अन्य ग्रहों पर भी जीवन के बारे में ठोस प्रमाण होंगे. हम जानते हैं कि कहां और कैसे खोज करनी है.
उनकी बात का मतलब यह नहीं कि अगले दस साल में हम विचित्र शक्लों वाले जीवधारियों
से बातें कर रहे होंगे. उन्होंने कहा था, हम एलियन के बारे में नहीं, छोटे-छोटे
जीवाणुओं ज़िक्र कर रहे हैं.
आपने फिल्म ईटी देखी होगी. नहीं तो
टीवी सीरियल देखे होंगे जिनमें सुदूर अंतरिक्ष में रहने वाले जीवों की कल्पना की
गई है. परग्रही प्राणियों से मुलाकात की कल्पना हमारे समाज, लेखकों, फिल्मकारों
और पत्रकारों को रोमांचित करते रही है. अखबारों में, टीवी में उड़न-तश्तरियों की खबरें
अक्सर दिखाई पड़ती हैं. हॉलीवुड से बॉलीवुड तक फिल्में बनी हैं. परग्रही जीवन के
संदर्भ में वैज्ञानिक अब नए प्रश्न पूछ रहे हैं. परग्रही जीवन कैसा होता होगा? कितने
समय में उसका पता चलेगा और हम इसे कैसे पहचानेंगे? हाल के निष्कर्ष हैं कि यह जीवन हमारे
काफी करीब है. वह धरती के आसपास के ग्रहों या उनके उपग्रहों में हो सकता है.
ब्रिटिश भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग
ने सोमवार को 10 करोड़ डॉलर की जिस परियोजना का सूत्रपात किया है वह मनुष्य जाति
के इतिहास के सबसे रोमांचक अध्याय पर से पर्दा उठा सकती है. यह परियोजना रूसी मूल के अमेरिकी
उद्यमी और सिलिकॉन वैली तकनीकी निवेशक यूरी मिलनर ने की है. मिलनर सैद्धांतिक
भौतिक-विज्ञानी भी हैं. इस परियोजना में कारोबार कम एडवेंचर ज्यादा है. कोई
वैज्ञानिक विश्वास के साथ नहीं कह सकता कि अंतरिक्ष में जीवन है. किसी के पास
प्रमाण नहीं है. पर कार्ल सागां जैसे अमेरिकी वैज्ञानिक मानते रहे हैं कि अंतरिक्ष
की विशालता और इनसान की जानकारी की सीमाओं को देखते हुए यह भी नहीं कहा जा सकता कि
जीवन नहीं है.
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